सृजनपाल सिंह। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव इस आर्थिक महाशक्ति के आधुनिक इतिहास में शायद सबसे अव्यवस्थित चुनाव थे। चुनाव के दौरान राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों पर एक-दूसरे के खिलाफ सोशल मीडिया पर गलत सूचनाएं फैलाने का आरोप लगा था, जिसकी गहन जांच भी हुई। तब अफवाहें यहां तक फैली थीं कि हिलेरी क्लिंटन द्वारा अमेरिका के प्रमुख पिज्जा स्टोरों में बच्चों को दासों के रूप में छिपाकर बाल तस्करी की जा रही है।

बात यहीं नहीं रुकी, तमाम अमेरिकियों ने इस फर्जी सूचना पर विश्वास किया और पिज्जा स्टोरों पर हंगामा तक किया। उस चुनाव से यह जाहिर हो गया कि सोशल मीडिया किसी भी लोकतांत्रिक देश के चुनाव में एक अहम भूमिका निभाएगा। आज अमेरिका में लगभग दो तिहाई लोग सोशल मीडिया पर खबरें प्राप्त करते हैं जहां पर सच्चाई और अफवाहों के बीच की रेखा को चिन्हित करना मुश्किल होता है। यह प्रवृत्ति दुनिया में हर जगह बढ़ती जा रही है। भारत में भी जहां डाटा रेट दुनिया में सबसे कम है और सस्ते स्मार्टफोन विभिन्न भाषाओं में काम कर सकते हैं, एक सोशल मीडिया संचालित समाज बनता जा रहा है। वॉट्सएप और अन्य सूत्रों द्वारा साझा किए गए समाचारों पर लोगों का विश्वास काफी ज्यादा है, लेकिन इन समाचारों की पुष्टि के संसाधन कम हैं। 2016 के अमेरिकी चुनावों के बाद अमेरिकी सीनेट ने लगभग सभी सोशल मीडिया और सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियों के सीईओ को अपनी सफाई पेश करने के लिए बुलाया। इसमें फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग और गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई भी शामिल थे।

फेसबुक समूह इंस्टाग्राम और वॉट्सएप का भी मालिक है। अमेरिकी सीनेट की जांच से फेसबुक का शेयर कुछ ही दिनों में बीस प्रतिशत गिर गया, जो फेसबुक के लिए साढ़े आठ लाख करोड़ का नुकसान था। 2017 की सीनेट सुनवाई के बाद टेक्नालॉजी दिग्गजों ने चुनावों में सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर नियंत्रण शुरू किया। अपने यहां हो रहे लोकसभा चुनाव के लिए फेसबुक और ट्विटर, दोनों ने ही राजनीतिक प्रचार के लिए नई नीतियां बनाई हैं। यहां यह कहना भी जरूरी है कि ये नीतियां अभी परीक्षण के दौर में ही हैं और उनके दूरगामी परिणामों का अनुमान लगाना अभी संभव नहीं है।

बीते दिनों इन नीतियों का पहला परिणाम देखने को मिला जब फेसबुक ने अपने प्लेटफॉर्म से 700 पेज और खाते बंद कर दिए। इन खातों के जरिये राजनीतिक प्रेरित गलत सूचनाएं फैलाने का आरोप है। फेसबुक के साइबर सिक्योरिटी पॉलिसी हेड नरानिएल लिचेर ने बताया कि बंद किए गए खातों में 687 खाते कांग्रेस को समर्थन कर रहे थे, जबकि 15 खाते भाजपा को। इन दोनों प्रकार के खातों में 2014 से लगभग 80 लाख रुपये का विज्ञापन व्यय हुआ और लगभग 28 लाख लोग इन फेसबुक एकाउंट को फॉलो करते थे। 80 लाख रुपये फेसबुक के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर हैं। फेसबुक ने 2018 में पूरे भारत में 521 करोड़ रुपये की आय विज्ञापनों द्वारा अर्जित की, जिसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीतिक प्रेरित विज्ञापन थे। हालांकि यह भी ध्यान रहे कि फेसबुक सटीक राशि का खुलासा नहीं करता।

राजनीतिक सूचनाओं के साथ अफवाह फैलाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल पहले से ही होता आ रहा है। यह लगातार बढ़ता जा रहा है। यदि 700 पेजों पर एक साथ प्रतिबंध लगा जिससे 28 लाख लोग जुड़े हुए थे तो हमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सूचनाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की आवश्यकता है। अधिकांश चुटकुले, मीम्स, डेटा, चित्र और यहां तक कि खबरों पर हम आसानी से विश्वास कर लेते हैं और इसी कारण उन्हें आगे फॉरवर्ड कर देते हैं, लेकिन संभव है कि उनके पीछे एक कंपनी द्वारा संचालित एक मार्केटिंग अभियान हो, जिसके आप केवल एक उपभोक्ता भर हों।

आखिर यह किससे छिपा है कि तमाम ऐसे ट्विटर एकाउंट मौजूद हैं जो नाम से किसी एक व्यक्ति के लगते हैं, लेकिन उनको बढ़ावा देने के लिए उनके पीछे एक पूरी टीम, एक पूरी इंडस्ट्री लगी है। एक मुद्दा फेसबुक की पारदर्शिता का है। दिलचस्प बात यह है कि किसी एकाउंट को राजनीतिक घोषित करने या किसी पोस्ट को राजनीतिक सामग्री बताने का एकाधिकार फेसबुक ने अमेरिका स्थित अपनी टीम को दिया है। इसका अर्थ यह है कि सात समंदर पार स्थित ऑफिस में भारत जनित कंटेंट के राजनीतिक होने या नहीं होने की सच्चाई पर फैसला लिया जा रहा है। इस तरह के फैसले लेने की क्या प्रणाली है और फैसला लेने के खिलाफ अपील करने की क्या पद्धति है, इस पर फेसबुक ने चुप्पी ही साध रखी है।

आखिर यह क्यों नहीं संभव है कि यह जांच और उसके आधार पर होने वाली कार्रवाई भारतीय पद्धति को समझने वाले लोग करें? सच तो यह है कि फेसबुक और साथ ही सभी बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भारत में सिर्फ एक ब्रांच ऑफिस चलाते हैं। इन कंपनियों के सभी नीतिगत फैसले अमेरिका में बैठे उनके अधिकारियों द्वारा लिए जाते हैं। ऐसे परिदृश्य में यह जानना आवश्यक है कि फेसबुक पेज के जरिये करोड़ों रुपये राजनीतिक विज्ञापनों में तो नहीं बहाए जा रहे हैं? महज 700 खाते जिनका कुल व्यय चार साल में 80 लाख रुपये था, हटा देने से ये बड़ा सवाल दरकिनार नहीं किया जा सकता।

फेसबुक के साथ अन्य सभी सोशल मीडिया कंपनियों को इस प्रकार की राजनीतिक गलतफहमियों और अफवाहों को फैलाने वाले खातों के ऊपर और पारदर्शी कार्रवाई करने की दरकार है। 700 फेसबुक एकाउंट पर कार्रवाई एक छोटी सी शुरुआत है। यह कार्रवाई हमारी बड़ी चुनौती के ऊपर पर्दा नहीं बननी चाहिए। सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां बहुत बड़ी हो चुकी हैं, लेकिन उनका तंत्र पारदर्शी नहीं है। एप्पल कंपनी की संपत्ति लगभग 75 लाख करोड़ रुपये की है, जबकि फेसबुक जो महज एक कंप्यूटर प्रोग्रामिंग है, 45 लाख करोड़ रुपये के बराबर है। यानी फेसबुक की संपत्ति लगभग पाकिस्तान और बांग्लादेश के संयुक्त जीडीपी के बराबर है। फेसबुक ने इतनी संपत्ति बनाने के लिए 36,000 कर्मचारियों का उपयोग किया है जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश को अपनी पूरी 36 करोड़ की आबादी से यह जीडीपी मिलता है। साफ है कि ऐसे में कोई भी सरकार या उसकी एजेंसियां इन कंपनियों के ऊपर अपना नियंत्रण नहीं कर सकतीं।

आज आवश्यकता इस बात की है कि फेसबुक के उपभोक्ता जिनकी संख्या एक अरब के ऊपर है, फेसबुक से अधिक पारदर्शिता की मांग करें। यह मांग अन्य सोशल मीडिया कंपनियों से भी करनी चाहिए। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि आम लोग राजनीतिक अफवाहों से निपटने के लिए सोशल मीडिया कंपनियों की ओर से उठाए गए कदमों की पूरी जानकारी हासिल करने के लिए एक साथ आवाज उठाएं और स्व-नियमन की मांग करें। इस मांग का पूरा होना आसान नहीं होगा, मगर यह तय है कि 2019 के आम चुनावों में सोशल मीडिया का उपयोगदुरुपयोग वैश्विक लोकतांत्रिक संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कड़ी अवश्य बनेगा।

 (लेखक सूचना प्रौद्योगिकी मामलों के विशेषज्ञ और एपीजे अब्दुल कलाम सेंटर के सीइओ एवं सह-संस्थापक हैं)