[ हृदयनारायण दीक्षित ]: शब्द अर्थ बदल रहे हैं। वे अपने भारतीय मूल की ओर लौट रहे हैं। वैसे भी राजनीति के व्याकरण में विस्मयादि बोधक अव्यय नहीं होते। लगभग पांच वर्ष पहले तक स्वयं को हिंदू कहना दुस्साहस तो गर्व से हिंदू कहना आक्रामक था। हिंदुत्व समर्थक ‘सांप्रदायिक शक्तियां’ कहे जाते थे। मजहबी अल्पसंख्यकवादी सेक्युलर थे। छद्म सेक्युलर होना महानता का पर्याय था। ऐसे स्वयंभू महान लोगों की दृष्टि में हिंदुत्व से राष्ट्रीय एकता को खतरा था। आश्चर्य है कि पांच वर्ष के भीतर ही हिंदुत्व राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में है। हिंदुत्व विरोधी कथित सेक्युलर नेता स्वयं को हिंदू सिद्ध करने की प्रतिस्पर्धा में हैं। हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस गोशालाओं का आश्वासन दे रही है। मध्य प्रदेश में राम वनगमन मार्ग के विकास की घोषणा कर चुकी है। उसने राजस्थान के चुनाव घोषणा पत्र में वेदों के अध्ययन का बोर्ड बनाने और संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने की घोषणा की है। गोशालाओं के लिए सब्सिडी बढ़ाने का वादा भी किया है। ममता बनर्जी भी हिंदू हो रही हैं। सपा के अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में अंकोरवाट जैसा विष्णु मंदिर बनाने की बात कह चुके हैं। राहुल गांधी मंदिर-मंदिर भाग रहे हैं। राष्ट्र के अंतस का भारत द्रव्य हिंदू रसायन जीत रहा है।

‘भारत द्रव्य’ अद्वितीय है। हिंदू भू-सांस्कृति अनुभूति है। हिंदू सतत् जिज्ञासु बने रहने का आनंद है। हिंदू भौतिकवादी है। अध्यात्मवादी भी है। एक ईश्वर के विश्वासी हैं। बहुदेव उपासक है। उनमें ईश्वर या देव उपासना की बाध्यता नहीं है। वे दुनिया के सभी पंथों, विश्वासों के प्रति आदर भाव से युक्त हैं। वे विश्व को एक संयुक्त परिवार मानते हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ प्राचीन भारतीय अनुभूति है। हिंदूतत्व राष्ट्रीय अपरिहार्यता है। डॉ. राममनोहर लोहिया हिंदुओं को तेजस्वी देखना चाहते थे। उन्होंने ‘सगुण-निर्गुण धर्म पर एक दृष्टि’ में लिखा था, ‘हमेशा कीड़े चींटी की तरह या दूब की तरह आत्मसमर्पण करने से अच्छा है कि हम खत्म हो जाएं। आत्मसमर्पण की क्षति खत्म करना सीखें और यह तभी संभव होगा जब हम हिंदू धर्म में तेजस्विता लाएं।’ हिंदू तेजस्विता सशक्त राष्ट्र की बुनियादी जरूरत है।

महात्मा गांधी ने 1933 में पंडित नेहरू को यरवदा जेल से लिखे पत्र में कहा, हिंदुत्व छोड़ना असंभव है। हिंदुत्व के कारण ही मैं ईसाइयत, इस्लाम और अन्य धर्मों से प्रेम करता हूं। इसे मुझसे दूर कर मेरे पास कुछ नहीं बचेगा।’ गांधी जी की चेतावनी सही थी। हिंदुत्व छोड़ दें तो कुछ भी नहीं बचेगा। कांग्र्रेस ने हिंदुत्व छोड़ दिया। उसके पास इतिहास बचा है, कांग्रेस शासित भूगोल सिमट गया है। संसद व विधानमंडलों में भी अस्तित्व का संकट है।

स्वाधीनता संग्राम के वरिष्ठ नेता भारतीय जीवन मूल्य आधारित राष्ट्रवाद से प्रेरित थे। लोकमान्य तिलक ने स्वराज्य को जन्म सिद्ध अधिकार बताया था। गोखले, गांधी जी, मदनमोहन मालवीय और विपिन चंद्र पाल जैसे वरिष्ठों की निष्ठा भारतीय संस्कृति में थी। स्वराष्ट्र स्वराज्य व स्वदेशी की मूल भूमि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही थी और है, लेकिन स्वाधीनता के बाद की कांग्रेस पर वामपंथ का प्रभाव था। अपनी तमाम विशेषताओं के बावजूद पं. नेहरू और इंदिरा गांधी आदि वामपंथ से प्रभावित और सांस्कृतिक राष्ट्रभाव से दूर थे। सोनिया गांधी की कांग्र्रेस सेक्युलर आवरण में अल्पसंख्यकवाद चला रही थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय संपदा पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताया था। हिंदू मानस स्वाभाविक ही आहत था। वह कांग्रेस से दूर होता गया। भाजपा अपने जन्मकाल से ही संस्कृति आधारित राजनीति की पैरोकार थी। वह स्वाभाविक ही राष्ट्रवादियों की पसंद बनी। जॉर्ज फर्नांडिस जैसे समाजवादी भी भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के सहयोगी बने, लेकिन कांग्र्रेस और वामदलों ने हिंदू मन को सांप्रदायिक ही बताया। आश्चर्य है कि उसी कांग्रेस के अध्यक्ष स्वयं को हिंदू सिद्ध करने के लिए अपनी जाति और गोत्र का हास्यास्पद प्रचार करा रहे हैं।

भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो रहा है। भारतीय दर्शन और संस्कृति के प्रति दुनिया का आकर्षण बढ़ा है। जाति भेद समाप्त हो गए हैं। गोत्र कालवाह्य हैं। वैदिक काल में गोत्र का अर्थ गायों के एकत्र रहने का स्थान था। ऋषि विशेष से संबंधित जनसमूह उन ऋषि के नाम पर अपना गोत्र मानता था। राहुल स्वयं को हिंदू सिद्ध करने के लिए प्रचार करा रहे हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा है कि उन्हें हिंदू मर्म का ज्ञान नहीं है। दरअसल हिंदू होना गोत्र और जाति से मुक्त होने का तप है। सभी संकीर्णताओं से मुक्ति और मोक्ष हिंदुओं का ध्येय है। मूलभूत प्रश्न यह है कि राहुल जी स्वयं को हिंदू सिद्ध करने की कसरत क्यों कर रहे हैं? क्या उन्हें पिछले दो-तीन वर्षों में कोई नई अनुभूति हुई है? मंदिरों में जाना निजी आस्था का विषय है, लेकिन इसके सुनियोजित प्रचार का कोई उद्देश्य तो होगा ही। क्या इसका मूल उद्देश्य राजनीतिक बढ़त लेना ही नहीं है। उन्हें इसका पूरा अधिकार है, लेकिन हिंदुत्व की मूल अवधारणा राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक है।

राजनीतिक लाभ के लिए हिंदू-मुस्लिम या ईसाई समर्थक होना अलग बात है, लेकिन अपनी अनुभूति से हिंदू होना कठिन है। तो भी भारत की राजनीति के लिए यह शुभ संकेत है। प्रत्येक राजनीति की पोषक एक संस्कृति होती है। इसी तरह प्रत्येक संस्कृति की एक राजनीति भी होती है। हिंदुत्व सभी राष्ट्रीय कर्तव्यों का नीति निदेशक तत्व है। यह संस्कृति एक है। भारत के लोग मिलकर एक जन हैं। एक जन, एक भूमि और एक संस्कृति के कारण हम एक राष्ट्र हैं। कांग्रेस हिंदू परिवार में अभी-अभी आई है। कांग्रेस को वामपंथियों द्वारा पोषित और कांग्र्रेस द्वारा अंगीकृत तमाम संस्कृतियों के अस्तित्व पर भी स्पष्टीकरण देना चाहिए। क्या वे भारत को एक संस्कृति आधारित राष्ट्र मानते हैं? या अनेक संस्कृतियों का देश। राहुल और कांग्र्रेस के नए रूपांतरण से परेशान वामपंथी नेता उनकी आलोचना भी कर रहे हैं। कांग्र्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। अस्तित्व पर संकट के समय सामान्य जीव भी तमाम विकल्प अपनाते हैं। राहुल जी ही बताएंगे कि उनके इस विकल्प में संकल्प की मात्रा क्या है?

राष्ट्र प्रसन्न है। धीरे-धीरे सभी दल भारतीय संस्कृति से जुड़ रहे हैं। हिंदुत्व राजनीति की मूल धुरी बन रहा है। राजनीतिक स्वीकार्यता पर्याप्त नहीं होती तो भी इसके अपने लाभ हैं। उम्मीद है कि अब हिंदुओं के समागम को सांप्रदायिकता जैसी गाली नहीं दी जाएगी। अभी तक इन्हीं दल समूहों द्वारा गैर-राजनीतिक हिंदू समूहों को भी सांप्रदायिक कहा जा रहा था। भारत के जागृत जनगणमन से दलतंत्र में दहशत है। हिंदू हितैषी हो जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। डॉ. हेडगेवार का स्वप्न आकार ले रहा है। राजनीति में अल्पकाल होता है। राष्ट्रनिर्माण दीर्घकालिक गतिविधि है। ऋग्वैदिक काल से लेकर इस राष्ट्र ने अनेक सांस्कृतिक मूल्य रचे हैं। राहुल जी के रूपांतरण का स्वागत किया जाना चाहिए। प्रसन्नता है कि भारतीय विचार का प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है। भारतीयता और राष्ट्रवाद विकल्पहीन हो रहे हैं। आगे अग्नि परीक्षा है। राजनीति के क्षेत्र में असली-नकली की पहचान का दायित्व भारतीय मतदाता पर है। वह जागरूक हो गया है। दलतंत्र में हिंदू तत्व की अपरिहार्यता का प्रवेश स्वागत योग्य है।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]