मृणाल पांडेय

आज से चौथाई सदी पहले जब सत्तारूढ़ बिल क्लिंटन अमेरिकी राष्ट्रपति पद का चुनाव तमाम तरह के निजी और दलीय लांछनों से जूझते हुए दोबारा लड़ रहे थे तो उनके अभियान प्रमुख जेम्स कारविल ने एक सूत्रवाक्य पार्टी कार्यकर्ताओं के हर कमरे में लगवा दिया था, ‘मूर्खो, राजनीति नहीं, अर्थनीति निर्णायक होती है’ (इट्स दी इकोनॉमी स्टुपिड!)। राष्ट्रपति पर काफी खराब और गंभीर आरोपों के बीच भी नब्बे के दशक की शुरुआत में अमेरिकी अर्थनीति लगातार तरक्की करती दिख रही थी। बैंकों से लेकर निवेशक, गृहणियां और उद्योग जगत सब बल्ले-बल्ले थे। इसलिए कारविल का तर्क यह था कि विपक्ष के राजनीतिक प्रचार के बावजूद निजी हित स्वार्थो को जस का तस बनाए रखने को जनता बिल क्लिंटन को ही दोबारा चुनेगी। जब यह बात सच साबित हुई तो उसके बाद लोकतांत्रिक म चुनावों की बाबत लंबे समय तक यही विचार कायम रहा, लेकिन तब से अब तक गंगा-यमुना, पोटोमैक और मिसीसिपी नदियों में काफी पानी बह चुका है।

अब पिछले चुनावों के डाटा के गहन परीक्षण के बाद प्रिंसटन और शिकागो विवि के शोधकर्ताओं की एक ताजा रपट आई है जो कहती है कि 21वीं सदी में किसी लोकतंत्र में खजाने या शेयर बाजार या बैंकों की हालत जैसी भी हो, मतदाताओं का किसी पार्टी विशेष से निजी जुड़ाव ही तय कराता है कि वे अपना वोट इस बार चुनाव में किसे देंगे? अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी पिछले चुनावों में पुराने तर्क के आधार पर अंतिम विजेता डोनाल्ड ट्रंप से कहीं मजबूत मानी जा रही थीं, लेकिन तभी आतंकवाद के बढ़ते साए, घरेलू बेरोजगारी और काम की आउटसोर्सिग के साथ खास तरह की मर्दवादी परंपराओं को मुद्दा बना कर विपक्षी रिपब्लिकन नेता डोनाल्ड ट्रंप ने एक खास तरह के नस्ली राष्ट्रवाद को तवज्जो देते हुए अपना चुनाव अभियान छेड़ दिया। इसकी मध्यवर्गीय मतदाताओं और मीडिया ने निंदा करते हुए इसे मूल अमेरिकी रीति-नीति के विपरीत बताया, लेकिन चुनावी नतीजे आए तो पाया गया कि बड़ी पूंजी के भारी समर्थक और गैर गोरे बाहरिया लोगों की वक के मुखर विरोधी ट्रंपवाद ने आम अमेरिकी पर धारणा के विपरीत काफी गहरा असर डाला था। नतीजतन मीडिया और चुनावी पंडितों के अमेरिकी बहुलतावाद के समर्थन में दिए तमाम तर्को और ट्रंप से जुड़े तमाम विगत घोटालों और विवादों को अनदेखा करते हुए चुनावों में बेरोजगार गोरों तथा श्वेत महिलाओं ने डोनाल्ड ट्रंप को बड़ी तादाद में अपने मत दे कर व्हाइट हाउस में ला बिठाया।

गुजरात चुनावों के संभावित नतीजों की दृष्टि से उपरोक्त घटनाक्रम गौरतलब बनता है। जीएसटी और नोटबंदी से देश की माली हालत और आम मतदाता की जिंदगी पर पड़े साफ दुष्प्रभाव के बावजूद उत्तर प्रदेश में मोदी की पार्टी को बहुमत मिला। हालांकि प्रशासन में कोई उल्लेखनीय बेहतरी नहीं दिखती, फिर भी अभी के निकाय चुनावों में वहां फिर उसी रुझान के दर्शन हुए हैं। गुजरात में सरकार जुलाई-सितंबर 2017 के बीच जीडीपी की दर में आई (5.7 प्रतिशत से 6.3 प्रतिशत की मामूली सी) बढ़त का प्रचार कर रही है। अधिकतर अर्थशास्त्री अभी इसे तनिक शक से देख रहे हैं। उनकी राय है कि अभी वित्तीय घाटे और निवेश में अपेक्षित बेहतरी उनको नजर नहीं रही है। इसके साथ ही खरीफ की बंपर फसल के बाद अभी भी किसानों को अपनी फसलों के वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं। कोयला, कच्चे तेल, कुदरती गैस, रिफाइनरी उत्पाद, उर्वरक, इस्पात, सीमेंट और बिजली इन आठ बड़े उत्पादों के बड़े-बड़े संस्थानों की गति भी लगातार शिथिल बनी हुई है। घरेलू निवेश हो नहीं रहा, बैंक पहले की तरह दबाव से जूझ रहे हैं। ऐसे में त्योहारों, शादी-ब्याह सब में खर्च घटा है। असंगठित क्षेत्र जो कुल अर्थव्यवस्था का 90 फीसद भाग है, छंटनियों और नकद की कमी से बेहाल है।

यह सब देखते हुए नेतृत्व का मतदाताओं से यह कहना कि देश नोटबंदी और जीएसटी के कठिन दौर से उबर या है और अच्छे दिन बस ना ही चाहते हैं, जल्दबाजी होगी। इस सबके बावजूद ताजा दिशा संकेत दिखा रहे हैं कि कुछ दुनियादारी और कुछ कांग्रेस व समाजवादी दलों के मौकापरस्त धर्मनिरपेक्ष-सापेक्ष तेवरों का फायदा उठाकर भाजपा नेतृत्व अपना हिंदू जनाधार फैलाने में काफी कामयाब हो गया है। सत्ता में ठीक-ठाक जम जाने के बाद पुराने इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों की कई प्रामाणिक स्थापनाओं को अकादमिक जगत से बेदखलकर हिंदुत्व का एक नया संस्करण भी चुनाव दर चुनाव तैयार कर प्रचारित किया गया है इस नई वैचारिकता का काम लगातार (गांधीयुगीन) धर्मनिरपेक्षता व वसुधैव कुटुंबकम जैसे विचारों को कायम रखना और (नेहरुयुगीन) विदेश नीति के तहत अंतरराष्ट्रीय फैसले लेते हुए अल्पसंख्यकों को देशद्रोह की हद तक संदिग्ध बना देना है।

इसी से देश की लोकतांत्रिक चुनाव परंपरा लगातार कबीलाई और बहुसंख्यकों की पक्षधर बन रही है। हाल में कांग्रेस तक अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को तोड़कर राहुल गांधी के हिंदू होने के प्रमाण टीवी पर दिखाने के हथकंडे अपनाती दिखी जो इसका शर्मनाक प्रमाण है। हिंदू धर्म ईसाइयत या इस्लाम की तरह कोई कठोर इकरंगा किताब आधारित धर्म नहीं है। वह कई जातीय-उपजातीय वफादारियों, स्तिक-नास्तिक समुदायों और मनमाने रीति-रिवाजों का सामूहिक नाम है, जबकि आधुनिक राष्ट्रराज्य राजनीतिक इंजीनियरिंग से बनाई गई ऐसी इमारत होती है जो युगानुरूप लगातार बदलते हुए नए-नए संतुलन साधती रहे। इस सदी में आनेवाली पीढ़ियों के लिए विश्वभर में डिजिटल सूचना संचार तकनीकी, रोबोटिक्स और कृत्रिम बुद्धि तेजी से उत्पादन के नए गोमुख ही नहीं, उत्पादकता और उपभोग के ऐसे नए प्रतिमान भी बना रहे हैं जो हर कहीं, हर तरह के राज-समाज की तमाम मौजूदा इमारतों को एकदम नए सिरे से रचकर रख देंगे।

आगामी दशकों में जब गणना, संगणना कंप्यूटर रोबोटिक्स की मदद से करेंगे, अल्गोरिद्मिक संगणक सारी दुनिया के बाशिंदों की पलक झपकते शिनाख्त करेंगे और हम सबकी बाबत निजी जानकारियों सहित दुनिया का सारा ज्ञान भासी दुनिया के क्लाउड्स पर रची भासी लाइब्रेरियों में डिजिटल फाइलों में रखा जाने लगेगा तब आज के फीता-फाइल, चपरासी, कुर्सीवाले दफ्तर, तफ्तीशी खिड़कियां, खुफियागिरी व गोपनीयता, राजनय और व्यापार सबके रूप और परिभाषाएं सिरे से बदल जाएंगी। काम बदलेगा, कार्य स्थल बदलेंगे तो बाबू, बेबी, बीबी आधारित परिवार, समाज ही नहीं साक्षरता और मानवीयता की परिभाषा भी बदलेगी। लिहाजा अभी जबरदस्ती हम यह मान भी लें कि हिंदूधर्म सदियों की परंपराओं से बनी बड़ी भव्य इमारत है तो भी वह इस नए विश्व के बीच सवा सौ करोड़ भारतीयों के विविधतामय लोकतंत्र में शायद ताजमहल की तरह एक सराहनीय संरक्षित धरोहर ही बन सकता है। नई पीढ़ी की चुनौती जब मनुष्य की तरह मशीनों के बीच गरिमामय जीवन जी सकने की होगी तब नारेबाज हिंदुत्व के नाम पर मध्यकाल की तलवार-कृपाणों लहराकर कुछ नहीं मिलेगा। सयाने कह गए ऐसी विद्या पढ़ियो बेटा, जा में हंडिया खदबद होय। गे युवा मतदाता खुद समझदार हैं।

[लेखिका प्रसार भारती की पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं]