[ बलबीर पुंज ]: जम्मू-कश्मीर का पुलवामा हाल में भीषण आतंकवादी हमले का शिकार बना। यक्ष प्रश्न यह है कि 1947 से लेकर अब तक स्वतंत्र भारत की अलग-अलग सरकारों के विभिन्न प्रयासों के बाद भी कश्मीर में हिंसक घटनाएं रुकने का नाम क्यों नहीं ले रही हैं? क्यों बीते सात दशकों से घाटी की स्थिति जम्मू और लद्दाख की तुलना में अशांत है? इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर उस वीडियो में है जिसे फिदायीन आदिल अहमद डार ने आत्मघाती हमला करने से पहले रिकॉर्ड किया था और जो सोशल मीडिया में वायरल हुआ।

14 फरवरी को पुलवामा के अवंतीपुरा में हुए भीषण आतंकवादी हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 40 जवान शहीद हो गए। इस घटना से देश के आम नागरिकों में जिस प्रकार का आक्रोश और शोक देखा जा रहा है उसका प्रतिबिंब 15 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्य में भी दिखा। उन्होंने कहा, ‘देश के लोगों का खून खौल रहा है। आप सभी की भावनाओं को मैं भली-भांति समझ पा रहा हूं। सुरक्षाबलों को आगे की कार्रवाई के लिए, समय क्या हो, स्थान क्या हो और स्वरूप कैसा हो, यह तय करने की पूरी छूट दे दी गई है। देश के 130 करोड़ लोग मिलकर मुंहतोड़ जवाब देंगे।’

ऐसा नहीं है कि कश्मीर में पहली बार कोई आतंकवादी हमला हुआ है। बीते कई दशकों से घाटी इस प्रकार की घटनाओं को झेल रही है, जिस पर समाज स्वाभाविक रूप में आक्रोशित भी होता है। भारी मात्रा में विस्फोटक से भरे वाहन को 2,500 से अधिक सीआरपीएफ जवानों के काफिले से टकरा देने वाला फिदायीन कौन था? आखिर वह अपनी जान देकर उन लोगों की जान क्यों लेना चाहता था, जिन्हें वह जानता तक नहीं था? इस मानसिकता को किस विचारधारा ने जन्म दिया? 1999 में जन्मा आदिल अहमद डार पुलवामा के ही काकपोरा का निवासी था और 12वीं कक्षा में पढ़ रहा था। आतंकी बनने से पहले वह एक स्थानीय आरा मशीन पर काम करके लकड़ी की पेटियां बनाता था और मार्च 2018 में उसने आतंकवाद की राह पकड़ ली। प्रारंभ में वह जिहादी जाकिर मूसा के साथ रहा, फिर जैश-ए-मोहम्मद का हिस्सा बन गया, जहां पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद आतंकी कामरान गाजी ने उसे प्रशिक्षण दिया। यही गाजी गत दिवस सेना के हाथों मारा गया।

आखिर आदिल मरने-मारने को क्यों तैयार हो गया? पुलवामा हमले से पहले उसके द्वारा बनाए वीडियो संदेश से ही काफी हद तक उसका खुलासा हो जाता है। वह कहता है, ‘अभी मैंने अपने हिस्से का कर्ज और फर्ज अदा किया है। अपनी जान का नजराना पेश करके उम्मत (इस्लामी जगत) का सिर फिर से बुलंद किया है। मुझ जैसे हजारों लोग तुम्हारी (भारत की) तबाही का सामान लिए अपनी मंजिल को पाने के लिए बेताब बैठे है। हमारा जिहाद गजवा-एर्-ंहद की मुबारक कड़ी है, जिसे तोड़ना तुम गाय का पेशाब पीने वालों के बस की बात नहीं है। हम हर दिन पहले से अधिक ताकतवर हो रहे हैैं। हमारी शहादत इस्लाम के लिए कुर्बानी है।’

आदिल जैसे जिहादियों का दर्शन अन्य धर्मावंलबियों को ‘काफिर-कुफ्र’ घोषित करता है। इस विध्वंसक मानसिकता को भारत सदियों से झेल रहा है। चाहे वह आठवीं शताब्दी से विदेशी आक्रांताओं द्वारा लूटपाट, मंदिरों को ध्वस्त, मतांतरण और गैर-मुस्लिमों की हत्या हो या फिर 19वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाववाद का बीजारोपण हो या फिर 1946 में बंगाल में ‘सीधी कार्रवाई’ और 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन हो, 1980-90 के दशक में घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन हो या फिर कालांतर में जैश-ए-मोहम्मद, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा और इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठनों का जन्म।

सभ्य समाज दशकों से इस विषैले चिंतन पर ईमानदार चर्चा करने से बच रहा है, यह उसका ही परिणाम है कि उस विषबेल ने आज पूरे विश्व को जकड़ लिया है। पुलवामा में जिस प्रकार विस्फोटक से लदे वाहन से आतंकवादी हमला किया गया, वैसा कश्मीर में पहली बार हुआ है। इसी तरह की बर्बरता हम कुछ वर्ष पहले-फ्रांस, बर्लिन और लंदन जैसे यूरोपीय शहरों में देख चुके है, जिसमें वाहन के माध्यम से ही दर्जनों निरपराधों को कुचलकर मार डाला गया। स्पष्ट है कि कैंसर रूपी यह दर्शन भयावह रूप ले चुका है। इस रुग्ण मानसिकता का एक बड़ा कारण मजहबी शिक्षा पद्धति भी है, जिसका सबसे बड़ा दोष यह है कि उनमें सामाजिक, वैचारिक और साहित्यिक समरसता का नितांत अभाव रहता है।

प्रारंभिक परवरिश में बाहरी दुनिया से कटाव छात्रों को अन्य समुदाय, विशेषकर विविधताओं से भरे समाज में-आचार-विचार, जीवन दर्शन, शैली और संस्कृति से अपरिचित रखता है। यदि बाल्यकाल से ही इन बच्चों को एक विशेष प्रकार का वातावरण मिले तो स्वाभाविक तौर पर उनका दृष्टिकोण, वेशभूषा, भाषा और इतिहास की समझ और आकांक्षाएं- शेष समाज से भिन्न हो जाएंगी। इसी पृष्ठभूमि में जब उनके तौर-तरीकों में समय के अनुसार परिवर्तन करने का प्रयास किया जाता है तो उसे मजहब पर हमला करार दिया जाता है।

कटु सत्य तो यह है कि मजहबी शिक्षण व्यवस्था को प्रोत्साहन और जिहादी कट्टरता-आतंकवाद को जड़ से खत्म करने का अभियान, एक दूसरे का सबसे बड़ा विरोधाभास है। शिनजियांग, गांसू सहित कुछ अन्य चीनी प्रांतों में जिहादी कट्टरता, अलगाववाद और आतंकवाद से निपटने के लिए चीन की वामपंथी सरकार ने उग्र अभियान छेड़ा है। वहां मदरसा शिक्षा प्रणाली प्रतिबंधित है। 16 वर्ष से कम आयु वर्ष के बच्चों के मजहबी कार्यक्रमों में भाग लेने पर रोक है। सार्वजनिक स्थानों पर मुस्लिम पुरुषों को दाढ़ी रखने तो महिलाओं को बुर्का पहनने पर भी पाबंदी है।

एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, इस्लाम के चीनीकरण हेतु अप्रैल 2017 से चीनी सरकार ने मुस्लिम समुदायों के 10-20 लाख लोगों को शिविरों में अनिश्चितकाल के लिए बंद किया हुआ है। सरकारी निर्देश नहीं मानने वालों को घंटों भूखा रखा जाता है और एकांत कोठरियों में दिन-रात खड़े रहने की सजा दी जाती है। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सरकारी अधिकारियों के नियमित दौरे से वहां इस्लामी मान्यताओं का अनुपालन लगभग वर्जित हो गया है। निर्विवाद रूप से भारत, अमेरिका सहित कोई भी पंथनिरपेक्ष, बहुलतावादी और लोकतांत्रिक देश-आतंकवाद और हिंसक अलगाववाद से निपटने के लिए चीनी नीतियों का अनुसरण कभी नहीं करेगा। इसके बावजूद इस्लामी जगत दुनिया भर की शिकायत करता है, लेकिन चीन को लेकर मौन साधे रहता है।

क्या कश्मीर समस्या का अंत संभव है? सबसे पहले हमें समझना होगा कि घाटी के अशांत होने का मुख्य कारण बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा, विकास, आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय असंतुलन में नहीं है। कश्मीर में हमारी लड़ाई उस विषाक्त मानसिकता से है जिसमें घाटी के तमाम बाशिंदे ‘उम्मत बनाम काफिर-कुफ्र’ के विषाक्त मकड़जाल में उलझे हुए हैैं। जिस दिन कश्मीर इस मकड़जाल से मुक्त हो जाएगा उस समय से ही वह भी शेष भारत की भांति सामान्य क्षेत्र हो जाएगा।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )