[ गिरीश्वर मिश्र ]: समकालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में समावेश यानी इनक्लुजन के विचार को बड़ी तरजीह मिल रही है। राजनेता इस लोक-लुभावनी अभिव्यक्ति का ख़ूब उपयोग कर रहे हैं। इसका आशय समाज के अधिकांश भाग को लोक कल्याणकारी योजनाओं की परिधि में शामिल करना होता है। सुविधाओं, लाभों और अवसरों की उपलब्धता सभी के लिए सुनिश्चित करना सभी राजनीतिक दलों का आग्रह बन रहा है। हालांकि अपने और पराए को परिभाषित करने के सांचे सबके अलग-अलग होते हैं और अपनी सुविधानुसार वे विभाजन करने वाली रेखा खींचते हैं। अपनों की पहचान और अपने से इतर को बहिष्कृत करना ही इन सीमा रेखाओं की खास भूमिका होती है।

असली समस्याओं के समाधान की जगह आए दिन नई-नई सीमा रेखाएं खड़ी कर नए समूह और नए भेद पैदा करना राजनीतिक दलों की वर्चस्व स्थापित करने की युक्ति बनती जा रही है। इसके फलस्वरूप हित और लाभ की योजना अलग-अलग समूहों को लाभ पहुंचाती है और अन्य समुदायों का बहिष्कार कर उन्हें हाशिये पर भेजने की प्रक्रिया जारी रहती है। वैचारिक कोटियों का प्रदूषण किस कदर फैल रहा है इसका उदाहरण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले विचार-विमर्श में भी देखा जा सकता है, जहां प्रदूषण के पैमाने और उनसे छूट जैसे संवेदनशील प्रश्नों के बारे में निर्णय लिए जाते हैं।

वैसे भारतीय चिंतन में समावेश की व्यापक परिकल्पना रही है जिसमें सृष्टि के सभी अवयवों के बीच पारस्परिक सहयोग और अनुपूरकता का भाव दिखता है। यहां ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ को लक्ष्य बनाया गया। यहां शांति की बात करते हुए पृथ्वी, जल, वनस्पति, पशु और पक्षी सबके सह अस्तित्व और सह जीवन की उत्कट चाह दिखती है। दूसरों से मिलकर ही पूर्णता आती है। अत: आश्चर्य की बात नहीं कि वैदिक मानस यह आकांक्षा करता है कि सब साथ चलें, साथ बोलें और उनके मन, चित्त, हृदय और बुद्धि में समानता हो। मेल-मिलाप, साझेदारी और पारस्परिकता के साथ रहने से ही अस्तित्व की प्रामाणिकता और उन्नयन की संभावना विकसित होती है। यह इसलिए भी उचित है, क्योंकि हमारे अस्तित्व की बुनियाद संबंधों में होती है। सामाजिक जीवन दूसरों के साथ रिश्तों में ही आकार लेता है। मनुष्य का जन्म भी रिश्तों की परिणति होता है और जन्म के बाद शिशु का जीवन माता-पिता या किसी अभिभावक की देखरेख की अनिवार्य अपेक्षा करता है। इस तरह जीवन की डोर रिश्तों यानी समावेशन पर टिकी होती है।

सहयोग और सहकार से ही हमारे जीवन-पट के ताने-बाने रचे जाते हैं। शायद अबोध शिशु को आरंभ में माता से अलग अपने निजी अस्तित्व का भान ही नहीं होता है। धीरे-धीरे उसे अपने स्वतंत्र इकाई होने का पता चलता है और इसी क्रम में ख़ुद को भी अपने प्रत्यक्ष और विचार का विषय बना लेता है। वह स्वयं को दृश्य और द्रष्टा, दोनों ही रूपों में देखने लगता है। तब वह स्वयं को शेष दुनिया से अलग देखना शुरू करता है। वह अपने इर्द-गिर्द एक सीमा रेखा बनाता है, जिसके भीतर ‘मैं और मेरा’ होता है और दूसरी ओर ‘तू और तेरा’ होता है। फिर अपने और पराए का विचार पनपने लगता है। ऐसी सीमा रेखा के सहारे स्व तथा पर का विभाजन दो विचार कोटियों को जन्म देता है।

सामान्य व्यक्ति आत्ममुग्ध होता है। उसके लिए मैं और अपना, चाहे वह कितना भी खराब हो हर तरह से प्रिय ही होते हैं। पराया अपरिचित, अनिश्चित और अप्रिय होता है। उसके लिए अपने और पराए के बीच की सीमा रेखा अभेद्य होती है। सीमा रेखाएं जहां अपने भीतर के लोगों में समानता लाकर एक-दूसरे को जोड़ती हैं वहीं वे औरों या गैरों से अलग भी करती हैं। सीमा रेखा विभाजन को सही ठहराते हुए कैसे संघर्ष की स्थिति पैदा कर देती हैं यह सर्वविदित है। इसका आत्यंतिक रूप देशों के बीच हिंसा और युद्ध आदि में दिखता है।

सामाजिक समरसता की दरकार इसलिए है कि व्यक्ति के लिए आत्मीयता का दायरा बढ़े तभी वह अपनी ही तरह दूसरों को भी देख सकेगा। वह अपने सुख-दु:ख, पीड़ा और आनंद की ही तरह दूसरे की स्थिति को भी देखेगा। यह मानवीय विवेक और संवेदना उसे एक अच्छा मनुष्य बनाती है। इसीलिए जब ‘वसुधैव कुटुंबकम’ कहा जाता है तो उसकी शर्त होती है कि हम मन से उदार भी हों। उदार मन से औरों को भी अपने जैसा देखना, अपना मानना और उनके साथ अपनों जैसा व्यवहार करना बड़प्पन की निशानी होती है।

आत्म विस्तार ही अपने भीतर ब्रह्म की अनुभूति कराता है। ऐसी अनुभूति आत्मसाक्षात्कार और आत्मोन्नयन की राह दिखाती है। अपनी मुक्ति और जगत का हित दोनों साथ-साथ चलते हैं। तभी सबका साथ और सबका विकास होगा और मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। हमारी रचना में माता-पिता, गुरु और सृष्टि जिनका भी योगदान है उनके ऋण का सतत स्मरण करना चाहिए। दुर्भाग्य से इस विचार को प्राचीन कहकर व्यर्थ और विस्मृत किया जाता रहा। आधुनिक होते हुए हम पर्यावरण और अन्य संसाधनों का दोहन करने लगे जिसका परिणाम ग्लोबल वार्मिंग और ग्रीन हाउस प्रभाव जैसी परिघटनाओं में विनाशकारी रूप में दिख रहा है। यह विकट किस्म का विकास मानव जाति के भविष्य को ही प्रश्नांकित कर रहा है।

विभाजन करती सीमा रेखा सभ्य समाज की एक जरूरत बन गई है, पर वह कैसे खींची जाए इसका तरीका भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग तय किया गया है और यह प्राय: उनके आत्मबोध की अवधारणा पर निर्भर करता है। परिसीमित और अपेक्षाकृत स्वतंत्र किस्म के आत्मबोध की संस्कृतियों में बिलगाव, अकेलेपन और निजता का उत्सव मनाया जाता है। दूसरी ओर अपेक्षाकृत सामूहिकता प्रधान संस्कृतियों में परस्परावलंबन और साझेदारी पर बल दिया जाता है। व्यक्ति रिश्तों की सघन प्रगाढ़ता में जीता-मरता है। जीवन में बदलती भूमिकाओं के साथ ही रिश्तों का दायरा जरूर घटता-बढ़ता है।

सामाजिक समावेश और बहिष्कार की गतिकी बड़ी रोचक है, क्योंकि सामाजिक जीवन उन रिश्तों या संबंधों की परिधि में संचालित होता है जिसमें लोग समावेश और जुड़ाव की चाह रखते हैं, पर रिश्ते लोगों को शामिल करते हुए सीमा रेखा खींच दूसरों को बाहर कर देते हैं। इन सीमा रेखाओं को चुनौती भी मिलती है और उन्हें पार भी किया जाता है। परिवारों में जन्म, मृत्यु, विवाह और तलाक आदि द्वारा नए सदस्य शामिल भी होते हैं और खोते भी हैं। इन सीमा रेखाओं द्वारा अकादमिक, खेलकूद और राजनीति सभी क्षेत्रों में निर्णय भी लिए जाते हैं। व्यापक स्तर पर नस्ल, व्यवसाय, जाति आदि के आधार पर लोग आकर्षित और विकर्षित होते हैं। साथ ही राजनीतिक-सांस्कृतिक गठजोड़ भी समावेश और बहिष्कार के लिए हैं।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के कुलपति हैैं )