[डॉ. एके वर्मा]। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वैसे तो अभी एक वर्ष से ज्यादा का समय शेष है, लेकिन ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी अभी से ही राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण सूबे में पैर जमाने के लिए सक्रिय हो गए हैं। इसी कड़ी में उन्होंने भाजपा के पूर्व सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर और अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर 2022 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है।

ओवैसी बिहार में मिली हालिया चुनावी सफलता से उत्साहित हैं। बिहार में उनकी पार्टी ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा और उनमें से पांच सीटें जीतीं। इससे मिले हौसले के बाद वह अब बंगाल और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। बंगाल में अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी को देखते हुए उनका पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ना राज्य के राजनीतिक परिदृश्य को बदल सकता है। जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो 2017 के विधानसभा चुनावों में ओवैसी ने 38 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे। तब उन्होंने कोई सीट नहीं जीती, पर उन निर्वाचन क्षेत्रों में उनकी पार्टी को 2.47 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार उनका गठबंधन सुहेलदेव पार्टी से है जिसने 2017 में भाजपा गठबंधन घटक के रूप में आठ प्रत्याशी खड़े किए थे और चार सीटें जीती थीं। उन निर्वाचन क्षेत्रों में उसे 34.14 प्रतिशत वोट मिले।

यूपी में 140 विधानसभाएं ऐसी जिनमें मुस्लिम जनसंख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा

ओवैसी यूपी की करीब सौ विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं। प्रदेश में न उनका संगठन है, न जनाधार, न कोई काम, पर यदि कोई तत्व मजबूत है तो वह है सांप्रदायिकता। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी लगभग 20 प्रतिशत है। 25 जिले और 140 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें मुस्लिम जनसंख्या 20 प्रतिशत से ऊपर है। वे क्षेत्र एआइएमआइएम के लिए लाभदायक रहेंगे, क्योंकि मुस्लिम मतदान की कुछ खास प्रवृत्तियां हैं। जैसे-भाजपा को हराना, जो दल भाजपा को सबसे मजबूत चुनौती दे उसे जिताना है और यदि कोई सशक्त मुस्लिम दल या नेतृत्व उपलब्ध है तो उसे पहले वोट देना है।

2017 में मायावती ने भी मुस्लिम और दलित समीकरण बनाने की कोशिश की थी

सवाल है कि फिर 2017 में मुस्लिमों ने ओवैसी को वोट क्यों नहीं दिया? दरअसल तब प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार थी और मुस्लिमों को उम्मीद थी कि सपा पुन: जीतेगी इसीलिए उन्होंने किसी और विकल्प पर विचार नहीं किया। लिहाजा सपा को मुस्लिमों के 60 प्रतिशत वोट मिले। मायावती ने भी 2017 में दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश की थी, पर उनको पहले की ही तरह 18 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले। अब तो भाजपा को भी मुस्लिमों के वोट मिलने लगे हैं। आंकड़ों के अनुसार भाजपा को 2014 में 10 प्रतिशत, 2017 में सात प्रतिशत और 2019 में आठ प्रतिशत मुस्लिम मत मिले।

ट्विटर-पॉलिटिशियन’ होकर रह गए हैं अखिलेश यादव

बहरहाल 2022 में यूपी में मुस्लिमों को ओवैसी के रूप में एक सशक्त विकल्प मिलेगा। उनके सामने बिहार का मॉडल है। वे ओवैसी में मुस्लिम नेतृत्व की संभावना देखते हैं। इसलिए मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग सपा से खिसककर ओवैसी की ओर जा सकता है। ओवैसी के गठबंधन में शिवपाल यादव के आने से इसकी संभावना बढ़ जाएगी। दलीय विभाजन और 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद सपा हाशिये पर है। उसके नेता अखिलेश यादव आज ‘ट्विटर-पॉलिटिशियन’ होकर रह गए हैं। पिता मुलायम सिंह से जो सशक्त जनाधार उनको मिला था, वे उसे संभाल न सके। जिस तरह अखिलेश ने 2017 में राहुल गांधी के साथ ‘यूपी के दो लड़के’ और फिर 2019 में मायावती के साथ ‘बुआ- भतीजा’ समीकरण बनाने का असफल प्रयोग किया, उससे स्पष्ट है कि सपा को नेतृत्व देने में वह नाकाम रहे हैं। मुस्लिमों का उनसे मोहभंग हुआ है। इसलिए भाजपा की ‘बी टीम’ कह एआइएमआइएम की उपेक्षा करना सपा को भारी पड़ सकता है। दूसरा नुकसान सुहेलदेव पार्टी को होगा। 2017 में उसे चार सीटें इसलिए मिलीं, क्योंकि भाजपा उसे अपना वोट ट्रांसफर करवा पाई, पर एआइएमआइएम में यह क्षमता नहीं है। इसलिए संभव है सुहेलदेव पार्टी अपनी वर्तमान सीटों को भी न बचा पाए और फायदा केवल ओवैसी को ही हो।

जानिए क्या हो सकता है ओवैसी का एजेंडा 

ओवैसी का एजेंडा साफ है। वह दलितों और पिछड़ों को हिंदू समाज से काटकर ‘हिंदुत्व’ पर प्रहार करना चाहते हैं। वह ‘सेक्युलर’ पार्टियोंसे अल्पसंख्यक अधिकार और मुस्लिम नेतृत्व के मुद्दे छीनकर उनकी अगुआई करना चाहते हैं। वह इन पार्टियोंपर ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का आरोप लगाकर उनको ‘सेक्युलरिज्म’ और ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ के भंवर में फंसाना चाहते हैं। वह नागरिकता संशोधन कानून, कृषि कानूनों संबंधी किसान आंदोलन, रोजगार के मुद्दों को अल्पसंख्यक सुरक्षा और मुस्लिम प्रतिनिधित्व से जोड़कर दलितों-पिछड़ों के साथ साझा मंच बनाकर कांशीराम के ‘बामसेफ’ जैसा कोई प्रयोग भी कर सकते हैं। इसकी बानगी गत दिनों बिहार में देखने को मिली।

ओवैसी के आने से यूपी में छोटी पार्टियों का होगा नुकसान

उत्तर प्रदेश में ओवैसी के आने से भाजपा को जितना नुकसान नहीं होगा उससे ज्यादा उसे सुहेलदेव और अन्य छोटी पार्टियों के छिटकने से हो सकता है। भले ही अपना दल का कृष्णा पटेल गुट ओवैसी के साथ जाए, पर भाजपा के लिए अनुप्रिया पटेल गुट को साथ रखना जरूरी है। उसे कुछ अन्य छोटे और सीमांत दलों को भी साथ रखना होगा जिससे पार्टी की समावेशी छवि बनी रहे। उत्तर प्रदेश में 2014, 2017 और 2019 चुनावों में शानदार प्रदर्शन के कारण सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाने वाले सभी दलित विधायक और सांसद भाजपा के खाते में चले गए जिससे पार्टी को दलित समाज में पैठ बनाने का मौका मिला। इसी के साथ पार्टी ने चुनावों में ओबीसी समाज को उनकी जनसंख्या (40 प्रतिशत) के अनुपात में टिकट देकर पिछड़े वर्ग को भी अपने में मिला लिया। इससे भाजपा का सामाजिक आधार सशक्त हो गया है। इसी के साथ मायावती की यूपी और दलितों से दूरी, सपा की अंतर्कलह और राजनीतिक निष्क्रियता, कांग्रेस का प्रदेश में पतन, जातिवादी राजनीति के ऊपर हावी होती विकास की राजनीति आदि वे कारण हैं जिससे आगामी चुनावों में भाजपा के जनाधार में कमी आने की संभावना नहीं है। फिर भी प्रमुख दलों को ओवैसी के प्रवेश को हल्के में नहीं लेना चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं) 

[लेखक के निजी विचार हैं]