[केसी त्यागी]। आजादी के बाद महात्मा गांधी का आकलन था कि सत्ता मिलने के बाद कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व सभी राज्यों, भाषाओं, दलितों, वंचितों, किसान समूहों के साथ व्यापक साझेदारी बनाने में असफल होगी और इसीलिए इस संस्था को भंग कर इसका नाम लोक सेवक संघ रख दिया जाए। गांधी जी सही साबित हुए। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद कांग्रेस ताश के पत्ते की तरह बिखरने लगी। सी राजगोपालाचारी एवं देश के राजे-राजवाड़ों का एक बड़ा हिस्सा जो मुक्त अर्थव्यवस्था के हामी भी था, स्वतंत्र पार्टी का गठन करने में जुट गया। कई राज्यों में यह पार्टी मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाती रही और संसद में भी यह एक बड़े दल के रूप में उभरी।

बाद के दिनों में राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव ने, जो वैचारिक तौर पर गांधी जी के करीबी माने जाते थे, किसान मजदूर प्रजा पार्टी का गठन कर लिया। ईएमएस नंबूदरीपाद और पी सुंदरैया जैसे वामपंथी भी साम्यवादी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए कांग्रेस से बाहर आ गए। नेहरू की पहली कैबिनेट के बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1950 के नेहरूलियाकत समझौता से क्षुब्ध होकर 1951 में जनसंघ की स्थापना की। यही जनसंघ आज की भाजपा है। डॉ. आंबेडकर ने भी कांग्रेस से नाराज और निराश होकर दलित-शोषित वर्गों के लिए एक अलग मंच का निर्माण कर लिए। यद्यपि 1967 तक सत्ता का आकर्षण कांग्रेस पार्टी को संजीवनी देता रहा।

1967 के बाद गैर कांग्रेसवाद के आंदोलनों की सफलता ने पूरे देश में नई सामाजिक शक्तियों को उभार दिया। इस दौरान नए नेतृत्व का भी विकास हुआ। हरियाणा-पंजाब में अकाली दल और कांग्रेस से क्षुब्ध देवीलाल और राव वीरेंद्र सिंह के नेतृत्व में नए लोग आगे आए। संयुक्त पंजाब में कांग्रेस से जितने भी मुख्यमंत्री बने उनमें प्रताप सिंह कैरो को छोड़कर सभी गैर किसान-वंचित एवं शहरी परिवेश के नेता थे। उप्र में चौ. चरण सिंह और समाजवादियों ने कांग्रेस को काफी कमजोर कर दिया। इसी तरह बिहार में कर्पूरी ठाकुर, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के साझा नेतृत्व ने कांग्रेस पार्टी की नींव हिलाने का काम किया और कर्पूरी ठाकुर के रूप में पिछड़ों को एक निर्विवाद बड़ा नेता भी मिल गया। केरल, पश्चिम बंगाल में साम्यवादियों का आंदोलन प्रभावी हुआ। च्योति बसु, ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में वहां कांग्रेस दिन-प्रतिदिन आभाहीन होती जा रही थी।

तमिलनाडु के भाषा आंदोलन, द्रविड़ आंदोलन ने अन्नादुरई के नेतृत्व में कामराज जैसे सशक्त नेता की उपस्थिति के बावजूद कांग्रेस को खोखला कर दिया। स्वतंत्रता आंदोलनों की विरासत की एकमात्र वारिस होने के कारण कांग्रेस लंबे समय तक इन अवरोधों और झंझावातों को किसी तरह से झेलती रही। इसके बाद पिछड़ों के आरक्षण के आंदोलन की ऊष्मा को कांग्रेस सही से भांप नहीं पाई। 27 फीसद आरक्षण को लेकर यह वर्ग सरकारी नौकरियों, संस्थानों में हिस्सेदारी के लिए संघर्षरत था। लगभग आधी से अधिक आबादी के लिए बने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए जब वीपी सिंह द्वारा मंत्रिमंडल में प्रस्ताव पास किया गया तो कांग्रेस नेतृत्व उसके सामाजिक असर को समझ नहीं पाया और यह कांग्रेस पार्टी के अवसान का बड़ा कारण बना।

लोकसभा में बतौर नेता प्रतिपक्ष राजीव गांधी ने मंडल आयोग पर लगभग दो घंटे का भाषण देकर पिछड़ों-दलितों-वंचितों को निराश कर दिया। उन्होंने जाति आधारित आरक्षण का विरोध कर कांग्रेस पार्टी को रसातल में भेजने का इंतजाम कर दिया। उसका दंश आज भी कांग्रेस पार्टी झेल रही है। डॉ. आंबेडकर की मृत्यु के बाद कांग्रेस लंबे समय तक जगजीवन राम के चेहरे को आगे कर इन वर्गों को आकर्षित करती रही, लेकिन जो भूख डॉ. आंबेडकर जगाकर गए थे उसकी उचित अभिव्यक्ति नहीं हो पा रही थी। 1980-1990 के दशक में कांशीराम के नेतृत्व में दलित सरकारी कर्मचारियों के संगठनों की राजनीतिक चेतना बढ़ी जिसका अहसास भी कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को उस समय नहीं हो पाया। कांशीराम के इस नारे के बाद ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ ने तो दलितों और पिछड़ों में सत्ता के लिए जागृत ही कर दिया। आज पिछड़ों-अति पिछड़ों, दलितों-महादलितों के कई सामाजिक संगठन सक्रिय हैं।

सरकारी नौकरियों में अपनी हिस्सेदारी मांगने के लिए शुरू हुआ आंदोलन का स्वरूप आज बदल चुका है। दलितों-वंचितों का वर्तमान नेतृत्व छिटपुट राहत के लिए आंदोलित नहीं है। वह न्यायपालिका और राजकाज के हर हिस्से में संख्या के आनुपातिक आधार पर सम्मानजनक हिस्सेदारी को आतुर है। यह आतुरता सत्ता में साझेदारी की नहीं, व्यवस्था पलट के लिए है। डॉ. राम मनोहर लोहिया इन वर्गों की चेतना और भागीदारी के प्रबल समर्थक थे। उत्तर प्रदेश में गत वर्ष हुए गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों को इसी सामाजिक विद्रोह के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है। योगी आदित्यनाथ के शहर में मठ का बड़ा सम्मान है। वह स्वयं मुख्यमंत्री भी हैं। यहां मल्लाह केवट जाति की संख्या 3.5 लाख से अधिक है। यह आबादी अपनी पहचान और साझेदारी, दोनों के लिए व्यग्र है इसीलिए उसने पिछले उपचुनाव में उनका मोह त्यागने से परहेज नहीं किया। इसी प्रकार केशव प्रसाद मौर्य की खाली सीट पर भी पिछड़ी जाति के अनजान उम्मीदवार ने जीतकर नया इतिहास बना दिया।

पिछली लोकसभा में कांग्रेस पार्टी को मुख्य विपक्षी दल की मान्यता से भी वंचित रहना पड़ा तो इसका बड़ा कारण किसान, दलित, शोषित वर्ग द्वारा भाजपा को विकल्प मानना था। इससे कांग्रेस को सबक लेना है। भाजपा के भी कुछ नेताओं द्वारा नासमझी भरे बयान जब-तब मुसीबत को निमंत्रण देते हैं। संबंधित वर्गों के बीच ऐसे बयानों की कैसी प्रतिक्रिया होती है, इन नेताओं को शायद इसका अंदाजा नहीं होता। एक दर्जन से अधिक सामाजिक न्याय की पार्टियां आज सक्रिय हैं।

विभिन्न राज्यों में इनके स्वरूप अलग-अलग हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बिहार के बक्सर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह वक्तव्य बेवजह नहीं था कि भाजपा अब बनिया-बाभन के दायरे से निकल वंचितों-पिछड़ों एवं दलितों के मन की पार्टी बनेगी। कांग्रेस पार्टी ने राजस्थान में एक माली को, छत्तीसगढ़ में एक कुर्मी को मुख्यमंत्री बनाकर यह दर्शाने का प्रयास किया है कि कांग्रेस इन वर्गों का समर्थन प्राप्त करने के लिए पुन: प्रयत्नशील है। आने वाले समय में और सजगता एवं जागरूकता के साथ कार्य करने की आवश्यकता है, क्योंकि जब मराठों और पटेलों का आरक्षण के लिए आंदोलन चलता है तो मंडल की जातियां और दलित संगठन समानांतर रैली निकाल अपनी एकजुटता दर्शाकर अपने कोटे के आरक्षण की रक्षा करते हैं। सामाजिक परिवर्तन की चाहत और भूख से पैदा हुए इस आंदोलन को नकारा नहीं जा सकता। व्यवस्था परिवर्तन की चाहत में उत्पन्न हुए आंदोलन सामाजिक संघर्ष में न बदल जाएं, इसके लिए जरूरत है कि सभी दल इन वर्गों के उत्थान के प्रति ईमानदारी दिखाएं। आशा है कि चुनाव संपन्न होने के बाद कुछ ठोस एवं व्यावहारिक नीतियों से इन वर्गों का हित सुनिश्चित हो सकेगा।

(लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)