[ओमप्रकाश तिवारी]। मद अभिमान न कीजिए, कहैं कबीर समुझाय। जा सिर अहं जु संचरै, पड़ै चौरासी जाय। अर्थात, मद-अभिमान मत कीजिए। जिसकी खोपड़ी में अहंकार का संचार होता है, वह चौरासी लाख योनियों में भटकने जाता है। पंद्रहवीं सदी के रहस्यवादी कवि संत कबीरदास के समय में न तो आज की राजनीति थी, न आज के लोग। लेकिन घटनाक्रम संभवत: हर युग में स्वयं को दोहराता रहता है, जिससे प्रेरणा पाकर लिखी गई कबीर जैसे संत की पंक्तियां हर युग में सच साबित होती दिखाई देती हैं।

50-50 का फार्मूला बना कांटा

आज महाराष्ट्र की राजनीति में भी ऐसा ही कुछ दृश्य दिखाई दे रहा है। विधानसभा चुनाव में 56 सीटें जीती शिवसेना 105 सीटों वाली भाजपा की बाहें मरोड़ने को तैयार है। क्योंकि महाराष्ट्र की क्षेत्रीय राजनीति में ‘बड़ा भाई’ होने का भ्रम वह भूलने को तैयार नहीं है। इसी बड़प्पन के भ्रम में वह 50-50 का दावा कर रही है। ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद मांग रही है। ऐसा न होने की स्थिति में ‘अन्य विकल्प खुले रहने’ की बात कर रही है।

भाजपा-शिवसेना का गठबंधन

बात आगे कि जाए, उससे पहले शिवसेना के बड़प्पन के दावे की पड़ताल कर लेनी चाहिए। यह सच है कि गठबंधन की राजनीति में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन अब तक एक अनूठा प्रयोग साबित हुआ है। यह गठबंधन थोड़े-बहुत मानमनौवल के साथ करीब 30 साल से चलता आ रहा है। उम्मीद है कि आगे भी चलता ही रहेगा। क्योंकि दोनों वैचारिक धरातल पर कहीं न कहीं समान हैं। यदि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सोच को दरकिनार कर दिया जाए तो दोनों का मतदाता वर्ग भी कम से कम हिंदुत्व के मुद्दे पर तो एक ही है।

बालासाहब ठाकरे की विशेष शैली

यही वह प्रमुख मुद्दा था, जिसके उभार के बाद 1985 में दोनों दलों को एक-दूसरे के करीब आने की जरूरत महसूस हुई। उन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व की बात भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी और अटलबिहारी वाजपेयी कर रहे थे तो महाराष्ट्र में उसी हिंदुत्व की बात शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे भी कर रहे थे। ठाकरे अपनी विशेष शैली में आडवाणी-वाजपेयी की तुलना में यही बात ज्यादा प्रखर तरीके से कर रहे थे। लेकिन वह महाराष्ट्र से बाहर निकलने को राजी नहीं थे। यह और बात है कि उनकी प्रखरता को भुनाते हुए अन्य राज्यों में कुछ लोगों ने शिवसेना का संगठन खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर संगठन और सोच दोनों का अभाव होने के कारण उनकी कोशिशें सफल नहीं हो सकीं।

जनसंघकालीन राष्ट्रव्यापी संगठन

दूसरी ओर भाजपा के पास जनसंघकालीन राष्ट्रव्यापी संगठन रहा है। उसे भी सहारा देने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा पितृ संगठन रहा है। जनसंघ ने महाराष्ट्र सहित पूरे देश में स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव से ही भाग्य आजमाना भी शुरू कर दिया था। जबकि उस समय शिवसेना का जन्म भी नहीं हुआ था। बड़ा भाई होने का दावा करनेवाली शिवसेना को यह भी याद जरूर कर लेना चाहिए कि भारतीय जनसंघ ने 1967 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी 166 सीटों पर चुनाव लड़कर 8.17 फीसद वोट हासिल किए थे और चार सीटें जीती थीं। जनसंघ के भारतीय जनता पार्टी में बदलने के तुरंत बाद हुए 1980 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी भाजपा 145 सीटों पर चुनाव लड़कर 9.38 फीसद वोट और 14 सीटें जीतने में सफल रही थी।

जबकि उस समय तक भी शिवसेना ने विधानसभा चुनाव लड़ना शुरू नहीं किया था। भाजपा से गठबंधन के बाद शिवसेना जब अपना पहला विधानसभा चुनाव 1990 में लड़ने उतरी तो उस समय तक उसके पास अपना अधीकृत चुनाव निशान भी नहीं था। यह और बात है कि 1985 में श्रीरामजन्मभूमि मसले के उभार के बाद महाराष्ट्र के भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने जब शिवसेना के साथ मिलकर राजनीति करने की सोची तो बाल ठाकरे की प्रखरता को महाराष्ट्र में भुनाकर सत्ता में आने का विचार उन्होंने जरूर किया होगा। इसी सोच के तहत उन्होंने राज्य की राजनीति में शिवसेना को ज्यादा सीटें लड़ने और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा को अधिक सीटें लड़ाने का फैसला भी किया होगा। इस रणनीति का फायदा भी हुआ।

शिवसेना-भाजपा की गठबंधन सरकार

कभी कांग्रेस का गढ़ समझे जानेवाले महाराष्ट्र में 10 साल बाद ही 1995 में शिवसेना-भाजपा की गठबंधन सरकार शपथ ले चुकी थी। लेकिन राजनीति में कोई परिस्थिति स्थाई नहीं होती। राष्ट्रीय राजनीति के लिए तय शर्तों का अतिक्रमण स्वयं शिवसेना की तरफ से होने लगा। शुरुआत में भाजपा द्वारा लड़ी गईं लोकसभा सीटों पर भी शिवसेना का दावा बढ़ने लगा। इसी तरह विधानसभा सीटों पर भाजपा अपना दावा बढ़ाने लगी। शिवसेना से काफी कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद लड़ी गई सीटों पर जीत का प्रतिशत भाजपा का ही ज्यादा रहता था। इसलिए भाजपा लगातार शिवसेना से उन सीटों की मांग करती रही, जिनपर वर्षों से लड़ने के बावजूद शिवसेना कभी जीत नहीं सकी थी।

शिवसेना-15 साल सत्ता से बाहर नहीं गुजारना पड़ता 

2014 में गठबंधन टूटने के पहले भी भाजपा ऐसी ही सीटों की मांग कर बराबरी पर लड़ने की बात कर रही थी। यहां तक कि 2019 में भी शिवसेना की तरफ से ऐसी ही अतिरिक्त सीटें भाजपा को दी गई हैं, जिन पर उसके उम्मीदवार कभी नहीं जीते थे। यदि शिवसेना 1999 में ही भाजपा की इस मांग पर गौर कर बराबरी की सीटों पर लड़ने की बात स्वीकार कर लेती तो लड़ी गई सीटों पर भाजपा के जीत प्रतिशत अधिक होने का लाभ पूरे गठबंधन को मिलता और उसे अगले 15 साल सत्ता से बाहर नहीं गुजारने पड़ते। अब इस चुनाव में भाजपा से लगभग आधी सीटें पाने के बावजूद यदि शिवसेना ‘अन्य विकल्प खुले रहने’ की बात कर रही है तो माना जाना चाहिए कि वह पिछली गलतियों से सबक सीखने को कतई तैयार नहीं है।

[ब्यूरो प्रमुख, मुंबई]

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