प्रवीण दावर। महज क्रांतिकारी नहीं थे भगत सिंह आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक सबसे नामचीन शख्सियत शहीद भगत सिंह का 89वां शहादत दिवस है। उन्होंने 23 मार्च, 1931 को देश की खातिर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। भगत सिंह सिर्फ भारत के ही नायक नहीं हैं, बल्कि पाकिस्तान में भी समान रूप से आदर और सम्मान पाते हैं। वे दोनों देशों के साझा नायक हैं।

भगत सिंह की छवि उपनिवेशवाद के विरोधी और प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में बना दी गई है, जो उनके संबंध में पूर्ण सत्य नहीं है। वह एक शहीद से भी बढ़कर बहुत कुछ थे। इंकलाब की उनकी अवधारणा सिर्फ राजनीतिक दायरे में सीमित नहीं थी, बल्कि सामाजिक मुद्दों से भी जुड़ी थी। वह भारत को सिर्फ अंग्रेजों की दासता से ही मुक्त नहीं कराना चाहते थे, बल्कि उसे सामाजिक बुराइयों से छुटकारा भी दिलाना चाहते थे।

देश पर मर-मिटने से पहले वह दो साल तक अंग्रेजों की कैद में रहे थे। वहीं से उन्होंने अपने सभी महत्वपूर्ण लेख लिखे। हालांकि 1924 में जब वह सत्रह साल के थे तभी से ज्वलंत मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने लगे थे। 22 नवंबर, 1924 में ‘यूनिवर्सल ब्रदरहूड’ शीर्षक से लिखे अपने एक लेख में वह लिखते हैं कि ‘यदि आप शांति, खुशी और विश्व बंधुत्व का संदेश देने के सच में इच्छुक हैं तो अपमान और तिरस्कार के खिलाफ आवाज उठाना सीखिए।’‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ नामक अपना चर्चित लेख भगत सिंह ने तब लिखा था जब वह जेल में थे। यह सबसे पहले लाला लाजपत राय के अखबार ‘द पीपल’ में प्रकाशित हुआ था।

इसमें अपने नास्तिक होने की खास वजह के बारे में भगत सिंह लिखते हैं, ‘मैं पूछता हूं कि आपका सर्वशक्तिमान ईश्वर किसी को कोई पाप या अपराध करने से क्यों नहीं रोकता? जब वे लोग ऐसा करते हैं तब वह कहां रहता है, जबकि वह इन्हें आसानी से रोक सकता है? वह युद्ध उन्मादियों को क्यों नहीं मारता? वह भारत को आजाद करने के लिए क्यों नहीं अंग्रेजों के दिलोदिमाग में थोड़ी संवेदना जगाता? कैद के दौरान अपने साथियों सुखदेव और राजगुरु सहित दूसरे राजनीतिक कैदियों जिसमें महान बंगाली क्रांतिकारी जतिन दास भी शामिल थे, के साथ मिलकर भगत सिंह ने भूख हड़ताल की थी।

इसका मकसद जेल की स्थिति को सुधारना और भारतीय कैदियों को भी यूरोपीय कैदियों के सामान सुविधाएं दिलाना था। वह भूख हड़ताल 116 दिनों तक चली। 63वें दिन जतिन दास की मृत्यु हो गई। जतिन दास के देहांत के कुछ ही सप्ताह पहले जवाहरलाल नेहरू जेल में उनसे और भगत सिंह से मिले थे। वह कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस अध्यक्ष बने थे। नेहरू ने इसका जिक्र अपनी जीवनी में इस प्रकार किया है, ‘भूख हड़ताल के आरंभिक दिनों में मैं लाहौर में ही था। मुझे कैदियों से मिलने की अनुमति दी गई। मैंने भगत सिंह और जतिन दास आदि को पहली बार देखा। वे बहुत अधिक बात करने की स्थिति में नहीं थे।

भगत सिंह का चेहरा बहुत ही आकर्षक और बौद्धिक था। वह धैर्यवान और शांत लग रहे थे। उन्होंने बहुत ही सज्जनता से देखा और बात की...जतिन दास भी सहज और नम्र थे...वह थोड़े दर्द में थे।’क्रांतिकारी भगत सिंह सामाजिक सुधार को लेकर काफी प्रतिबद्ध थे। यह स्वाभाविक था कि उन्होंने अपने समय के दो युवा आइकन जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की बहुत प्रशंसा की। 1928 में उन्होंने लिखा, ‘वर्तमान परिदृश्य में सुभाष चंद्र बोस और पंडित नेहरू दो महत्वपूर्ण युवा नेता हैं।

जनता पर दोनों का प्रभाव दिख रहा है और दोनों स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। दोनों बुद्धिमान और देशभक्त हैं।’ दोनों नेताओं के गुणों का बखान करने के बाद भगत सिंह पंजाब के युवाओं से कहते हैं, ‘समय की मांग है कि पंजाबी युवा इन नेताओं के विचारों पर ध्यान दें और अपनी दिशा तय करें। पंजाब को नए विचार चाहिए और यह पंडित नेहरू ही मुहैया करा सकते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि हमें उनका अंधभक्त बन जाना चाहिए।’ फांसी पर झूलने से कुछ ही दिनों पहले 2 फरवरी, 1931 को भगत सिंह ने युवाओं को सलाह दी, ‘सबसे पहले अपनी विशिष्टता छोड़ें, आरामतलबी से नाता तोड़े। फिर कार्य आरंभ करें। इंच दर इंच आपको आगे बढ़ना होगा।

इसके लिए साहस, दृढ़ता और मजबूत इच्छाशक्ति की दरकार होगी। फिर कोई संकट और कोई भी बाधा आपकी राह नहीं रोक पाएंगी। कोई भी विफलता और छलकपट आपको हतोत्साहित नहीं करेंगी। तमाम कष्टों और बलिदानों के बीहड़ों को पार कर आप विजेता के रूप में सामने आएंगे।’

  (लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी एवं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य हैं)