[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: इस वर्ष फरवरी-मार्च में भारत ने मान लिया था कि अब कोरोना नियंत्रण में है। प्रसन्नता का एक कारण यह भी था कि दुनिया के तमाम देशों को भारत में बने टीके दिए जा रहे थे। फिर अप्रैल-मई में संक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ी, जिससे हमारी सारी स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई। दूसरे देशों की सहायता करने के स्थान पर हमारी स्थिति इतनी बिगड़ी कि विश्व के छोटे-बड़े देशों से हमें मदद लेनी पड़ी। यह भारत जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्र के लिए विश्व-पटल पर सम्मान की स्थिति तो नहीं ही है। यह हमारे लिए कठिन समय है। आज अनेक प्रकार की आशंकाएं प्रत्येक व्यक्ति के दैनंदिन जीवन में आ चुकी हैं। किसी परिजन या परिचित को फोन करने के पहले या उनका फोन आने पर चिंता होने लगती है। लगभग हर परिवार में या उनके निकट के परिजनों में कहीं न कहीं कोई न कोई कोरोना से पीड़ित है या हो चुका है। ऐसा कोई परिवार या परिचित नहीं है, जो वर्तमान स्थिति में स्वास्थ्य और व्यवस्था तंत्र की असफलता से दुखी न हो। इससे जीवन का हर पक्ष प्रभावित हो रहा है।

मनुष्य कोरोना पर अवश्य विजय प्राप्त करेगा

कष्ट के समय सबसे बड़ा सहारा तो अपनों के अपनत्व और भागीदारी से ही मिलता है। वह पारस्परिकता भी इस समय लॉकडाउन, पाबंदियों तथा दूरियां रखने के कारण बिखर रही है। यह उस 21वीं सदी की व्यावहारिक संवेदनशीलता है, जिसे कोरोना ने लगभग अमानवीय स्थिति में पहुंचा दिया है। अपनों की पहचान तो आपत्तिकाल में ही होती है। यदि वे ही विलग हो जाएं तो कष्ट कई गुना और बढ़ जाता है। मनुष्य कोरोना पर विजय तो प्राप्त करेगा ही। जीवन तथा संबंध भी फिर पटरी पर लौटेंगे। इच्छा, आकांक्षा और अभीप्सा मनुष्य को सदा आगे ले जाते रहे हैं। ये इस बार भी सफलता दिलाएंगे। कोई भी त्रासदी, महामारी या व्यवधान मानवीय प्रगति को प्रतिबंधित नहीं कर पाया है। इसे मनुष्य की प्रवृत्ति कहें या नियति कि वह अपने और प्रकृति के संबंधों में लालच के आ जाने पर अपना कर्तव्य भूल जाता है और लगातार अपने लिए विभिन्न प्रकार की समस्याएं पैदा कर लेता है। इसके बाद वह उनके समाधान में जुट जाता है और हर बार सफल भी होता है। टीबी, पोलियो, चेचक, प्लेग जैसी महामारियां मनुष्य ने झेली हैं और उन पर विजय भी प्राप्त की है। इबोला को लेकर विश्व भर में भयानक स्थिति की आशंका उभरी थी, लेकिन अंतत: तोड़ निकाल लिया गया। ज्ञात हो कि कोरोना के टीके भी विकसित हो चुके हैं।

देश में दवाइयों और ऑक्सीजन की कालाबाजारी

देश में एक बड़ा वर्ग केवल आलोचना और निंदा में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। जिस बड़े पैमाने पर लोग आज दवाइयों की कालाबाजारी कर रहे हैं, ऑक्सीजन की कमी का फायदा उठा रहे हैं, एंबुलेंस उपलब्ध कराने को काली कमाई का जरिया बनाकर मानवीय संवेदना को कलंकित कर रहे हैं, वह भी कल्पनातीत है। दूसरी तरफ पूरे देश में अनेकों संस्थाएं और लोग तथा समूह पीड़ितों को सहायता पहुंचाने में दिन-रात एक कर रहे हैं। इससे हताशा के इस दौर में भी पीड़ित लोगों को संबल मिलता है तथा अन्य का मनोबल बढ़ता है, भविष्य के प्रति आशा तथा विश्वास बना रहता है।

कालाबाजारी, मुनाफाखोरी भारत की छवि को धूमिल कर रहा

जिस सीमा तक कालाबाजारी, मुनाफाखोरी तथा संवेदनहीनता का फैलाव इस समय सारे देश में देखा जा रहा है, वह भारत की छवि को धूमिल कर रहा है। किसी भी राष्ट्र के धर्म, आचरण और चरित्र की पहचान आपत्तिकाल में ही होती है। आपत्तिकाल में ही राष्ट्र की एकजुटता तथा पारस्परिकता भी उजागर होती है। सरकारी तंत्र भी ऐसे समय में जन सहयोग द्वारा ही अपने कर्तव्य पूरे कर सकता है। एक साल से अधिक समय से हर प्रकार से व्यस्त पुलिस व्यवस्था लोगों के इलाज में मदद जारी रखे या कालाबाजारियों से निपटने में अपनी शक्ति लगाए?

कोरोना संक्रमितों की बढ़ी संख्या से चरमराई व्यवस्था

संक्रमितों की यकायक बढ़ी संख्या से चरमराई व्यवस्था में अस्पताल, डॉक्टर, पुलिस, प्रशासन पर आक्रोश अस्वीकार्य है। हर सकारात्मक प्रयास को विफल करने में संलग्न स्वार्थी तत्व देश का और जान-माल का अहित कर रहे हैं। इनसे सख्ती से निपटना ही होगा। इन्हें देशद्रोही मानकर सजा देनी होगी। इसमें दोराय नहीं कि कोरोना समाप्त होगा, मगर उसके प्रभाव बहुत-सी चुनौतियां छोड़ जाएंगे। इनका विस्तार आर्थिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है। हमें इनके समाधान निकालने होंगे। निश्चित रूप से ऐसे समय में गांधी जी को याद किया जाएगा। इसके लिए उनके उस चिंतन का पुनर्पाठ करना पड़ेगा, जिसमें आधुनिक सभ्यता, मशीन युग और भारत के गांव तथा किसान को लेकर उनकी चिंताएं 1909 में हिंद स्वराज से प्रारंभ होकर जीवनपर्यंत चलती रहीं।

परंपरागत ज्ञान विलुप्त न हुआ होता तो आज कोरोना गांवों में प्रवेश नहीं कर पाता

2020 में लॉकडाउन के बाद जो त्रासदी प्रवासी मजदूरों ने झेली, उसे संभवत: गांधी जी की दूरदृष्टि ने बहुत पहले भांप लिया था। वह लगातार शिक्षा के उत्पादक और बुनियादी स्वरूप पर जोर देते रहे, जिसे स्वतंत्र भारत में धीरे से बिना कहे भुला दिया गया। आज उसका सशक्त विकल्प ढूंढना ही होगा। यदि सरकारी स्कूलों की साख बची होती, वहां के अध्यापकों का सम्मान बचा होता, स्थानीयता और परंपरागत ज्ञान विलुप्त न हुआ होता तो आज कोरोना को भारत के गांवों में तो प्रवेश कतई नहीं मिल पाता। स्वास्थ्य की जिस आधुनिक प्रणाली को देश ने अपनाया, वह आपत्ति के समय किस प्रकार बिखर गई, उससे भी हमें बहुत कुछ सीखना होगा। जब देश में सभी को अपने पर, अपनों पर, अपनी संस्कृति, परिवार व्यवस्था, संबंधों की श्रेष्ठता पर दृढ़ विश्वास बनेगा, तभी देश के लिए एकजुट होकर विपत्तियों-चाहे वे आंतरिक हों या बाह्य या प्राकृतिक- का सामना कर पाना संभव होगा।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )