डॉ. विशेष गुप्ता। आजकल उत्तर प्रदेश के अमरोहा के बावनखेड़ी कांड से जुड़ी शबनम की चर्चा काफी हो रही है। शबनम ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर सात स्वजनों की हत्या कर दी थी। उस समय वह गर्भवती थी और उसने जेल में ही अपने बेटे को जन्म दिया था। उसे फांसी की सजा हो चुकी है। वह जेल में है और उसका बेटा उसके एक सहपाठी के परिवार में पल रहा है। अभी हाल ही में उसका बेटा उससे मिलने जेल आया था। उसके नाबालिग बेटे के बाहर निकलने पर उसका पालन-पोषण करनेवाले परिवार ने उसकी पहचान उजागर न करने की अपील भी की थी। उसने कहा था कि अगर उसकी पहचान उजागर होगी है तो न ही स्कूल के साथी और न ही समाज उसको अच्छी निगाह से देखेगा। इसके बावजूद मीडिया के एक हिस्से ने उस नाबालिग बच्चे की पहचान उजागर की।

यह किशोर न्याय अधिनियम (बालकों की देखरेख व संरक्षण)-2015 के अध्याय-9 के 74 (1)(2)(3) का उल्लंघन है। पत्रकारिता से जुड़े अनेक पेशेवर पत्रकारों का मत है कि पत्रकारिता, खासतौर पर बाल पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग नैतिकता और संतुलन की परिधियों में होना आवश्यक है। परंतु बाल पत्रकारिता का स्वरूप वर्तमान में ठीक इसके उलट है। कहने की जरूरत नहीं कि आज देश की पत्रकारिता में बच्चों और बुजुर्गो इत्यादि से जुड़े सामाजिक सरोकारों को उभारने का समय बहुत कम बचा है। इसलिए ऐसे दौर में बच्चों और उनसे जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर पत्रकारिता के बारे में एक सर्वसम्मत सोच बनाने का समय है।

बच्चों के हक में देखा जाय तो 11 दिसंबर 1992 का दिन बालकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण दिन रहा है। इसी दिन भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सभा द्वारा पारित बाल अधिकारों से संबंधित अभिसमय को बालकों के सवरेत्तम हितों को सुनिश्चित करते हुए इसे अंगीकार किया था। तत्पश्चात किशोर न्याय अधिनियम 2000 अस्तित्व में आया था। वर्ष 2015 में कुछ संशोधन करते हुए इसे पुन: अधिनियमित किया गया। अब इसे किशोर न्याय अधिनियम (बालकों की देखरेख और संरक्षण)-2015 के नाम से जाना जाता है। इस एक्ट के अध्याय-9 के 74 (1)(2)(3) में स्पष्ट उल्लेख है कि बालक का नाम किसी जांच या अन्वेषण या न्यायिक प्रक्रिया के बारे में किसी समाचार पत्र-पत्रिका या समाचार पृष्ठ या दृश्य-श्रव्य माध्यम या संचार के किसी अन्य रूप में, किसी रिपोर्ट में ऐसे नाम पते या विद्यालय या किसी अन्य विशिष्ट को प्रकट नहीं किया जाएगा। कहना न होगा कि बच्चों से जुड़ी पत्रकारिता की पवित्रता इस बात को लेकर है कि समाज के नियमों का उल्लंघन करने वाले नाबालिग बच्चों के गोपनीयता के अधिकार को संरक्षित करें। ऐसे बच्चों से जुड़ी कोई भी रिपोर्ट न तो समाचारपत्र-पत्रिका और न ही किसी दृश्य-श्रव्य माध्यम से प्रस्तुत की जाएगी। वहीं दूसरी ओर यदि सामान्य बच्चे राष्ट्रभक्ति अथवा वीरता से जुड़ी कहानी गढ़ते हैं तो उनकी इस रिपोर्ट को प्रमुखता से प्रकाशित करना पत्रकार का पुनीत दायित्व बन जाता है। क्योंकि इस प्रकार की रिपोर्ट नवोदित, रचनात्मक, वीर स्वभावी और राष्ट्रवादी बच्चों को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

आज जब प्रत्यक्ष संवाद की परंपरा कमजोर पड़ रही है, ऐसे में बच्चे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बहुत बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। देश की आजादी के दशकों बाद तक परिवार, स्कूल, चलचित्र, नृत्य, नाट्यकला इत्यादि के माध्यम से बच्चों में संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों का सीधे रूप में संप्रेषण हुआ। परंतु जैसे जैसे बाल पत्रकारिता से जुड़े उपादानों में तीव्र गति से व्यावसायिकता बढ़ी, उसी अनुपात में पत्रकारिता, वह चाहे बाल साहित्य से जुड़ी पत्र-पत्रिकाएं हों अथवा प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक साधनों से जुड़ी पत्रकारिता हो, सभी में बाल सरोकारों का क्षरण परिलक्षित होने लगा। उधर संयुक्त परिवारों के विघटन और शिक्षा की ज्ञान परंपरा के पलायन का सीधा प्रभाव बाल संस्कारों पर भी पड़ा। समाजीकरण की दौड़ में बच्चों के पिछड़ने से बच्चों में संस्कारों का अभाव तो हुआ ही, साथ ही मीडिया के एक हिस्से ने भी बच्चों को केंद्र में रखकर उनको स्वयंभू आधार पर निर्देशित करना शुरू कर दिया।

यह सच है कि मीडिया पेशेवरों ने बच्चों के मुद्दों को देश के पटल पर रखा तो है, परंतु बच्चों से जुड़ी विषयवस्तु, सरोकार व विचारभाव उनसे गायब ही रहे। आज के दौर की पत्रकारिता यह भूल गई कि बच्चे भी इस देश का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जिनकी चर्चा के बिना आज की पत्रकारिता कल की प्रौढ़ पत्रकारिता नहीं बन सकती। दूसरे आज के दौर की पत्रकारिता को यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यही बच्चे बड़े होकर कल देश का अभिमान बनेंगे। अगर इनके बाल अधिकारों का ठीक से संरक्षण होगा तो मीडिया में इनके समावेश से इनका भी स्वस्थ समाजीकरण होगा और ये बच्चे भी राष्ट्रवाद की मुख्यधारा से जुड़कर देश की चिंता करेंगे।

मीडिया को बच्चों से जुड़े मुद्दों की रिपोर्टिग करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह संतुलित हो। यदि बच्चों का साक्षात्कार करना है तो उन्हें धैर्यपूर्वक सुना जाए। बच्चों के बारे में हमेशा सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। उनके बारे में हमेशा सकारात्मक रुख रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण में बाल पत्रकारिता का उपयोग करना पत्रकारों का पुनीत दायित्व बनता है।

[अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग]