नई दिल्‍ली [ प्रदीप सिंह ]। हमारी कहावतें यह बताती हैं कि समय के साथ मानव व्यवहार में बदलाव के बावजूद एक निरंतरता होती है। बहुत पुरानी कहावत है-‘थोथा चना बाजे घना। कहावतें अक्सर अपने शाब्दिक और भावनात्मक अर्थ के पैमाने पर खरी उतरती हैं। इस कहावत के साथ भी ऐसा ही है। यह कहावत आज की राजनीति और नेताओं पर बहुत सटीक बैठती है।

ऐसे राजनेताओं में भी राहुल गांधी अपने रवैये से इस कहावत को चरितार्थ करने को तत्पर से दिखते हैं। अपने एक दशक से भी अधिक के संसदीय/ राजनीतिक जीवन में राहुल गांधी बार-बार साबित करते हैं कि वह राजनीति के लिए नहीं बने हैं। उनकी पार्टी और परिवार उन्हें जितना धकेलकर आगे बढ़ाता है वह उतना ही औंधे मुंह गिरते हैं। उनके राजनीतिक बयान अक्सर स्कूली बच्चों की याद दिलाते हैं।

एक मामले में राहुल गांधी खुशकिस्मत हैं कि वह ऐसे दौर में राजनीति में आए हैं जब राजनीतिक विमर्श का स्तर बहुत नीचे गिर गया है। किसी को पता नहीं कि यह कहां जाकर थमेगा, लेकिन राहुल गांधी की मुश्किल यह है कि इस बुरे दौर में भी वह राजनीति के अखाड़े में खड़े ही नहीं हो पा रहे। एक बार उन्होंने कहा कि वह संसद में ऐसा कुछ बोलने वाले हैं कि भूकंप आ जाएगा। भूकंप तो नहीं आया, लेकिन कांग्रेस जरूर चुनाव दर चुनाव जमींदोज होती दिखी। अब उन्होंने कहा कि उन्हें संसद में पंद्रह मिनट बोलने का मौका मिल जाए तो मोदी कहीं खड़े होने लायक नहीं रह जाएंगे। क्या राहुल गांधी को इस बात का इल्म भी है कि वह जो बोल रहे हैं उसका अर्थ क्या है?

किसी राष्ट्रीय पार्टी और वह भी देश की सबसे पुरानी पार्टी का अध्यक्ष ऐसी बात कह भी कैसे सकता है? अगर मान भी लें कि राहुल गांधी का दावा सही है तो भी पद की गरिमा और पार्टी की प्रतिष्ठा के अनुरूप उन्हें यह बात कहने के बजाय करके दिखाना चाहिए। 24 घंटे के टीवी और सोशल मीडिया के जमाने में किसी से छिपा नहीं है कि संसद क्यों और किसकी वजह से नहीं चली? संसद में उनकी उपस्थिति 50 फीसदी भी नहीं है।

बीते 14 साल में किसी भी मुद्दे पर राहुल गांधी का ऐसा एक भी भाषण नहीं है जिसे याद रखा जाए। संसद से बाहर छात्रों या प्रबुद्ध लोगों से संवाद में वह एक ऐसी छवि लेकर निकलते हैं जिसे कांग्रेसी जल्दी से जल्दी भूल जाना चाहते हैं। यही हाल रहा तो कांग्रेस भाजपा से कैसे लड़ेगी? उसके सामने तो सबसे बड़ी चुनौती अपने अध्यक्ष के राजनीतिक ज्ञान से पार पाने की है। राहुल गांधी के बयानों से एक बात और पता चलती है कि वस्त्रविहीन राजा और बच्चे की कहानी जैसा कांग्रेस पार्टी में कोई ऐसा नहीं है जो कह सके कि राजा नग्न है।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के लोग समझते नहीं कि राहुल गांधी के ऐसे बयान पार्टी को हर बार पीछे धकेल देते हैं। राहुल गांधी के ऐसे बयानों को इकट्ठा किया जाए तो पूरी किताब बन सकती है, फिर भी कांग्रेस के लोग चुप हैं। पार्टी के प्रवक्ता रोज आकर अपने अध्यक्ष का बचाव करते हैं। यह उनकी मजबूरी है, लेकिन ऐसा लगता है कि बंद कमरे की बैठकों में भी इस विषय पर कांग्रेसी चुप ही रहते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में शायद ऐसी ही स्थिति के लिए लिखा है-‘सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होई बेगिहीं नास।’

एक समय था कि राहुल गांधी किसी विषय पर कुछ बोलने से ही बचते थे। अमेरिका से लौटने और गुजरात चुनाव के समय से एक बदलाव आया है। अब वह हर विषय पर और हर समय बोलते हैं, लेकिन उन्हें अभी तक शायद यह समझ में नहीं आया कि किस समय क्या बोलना है? अभी अमेठी में एक बच्ची ने अपनी समस्या बताई तो उनका जवाब था इस समय हमारी सरकार तो है नहीं। जनप्रतिनिधि के नाते आपका फर्ज है कि क्षेत्र के लोगों की समस्या का समाधान करने का प्रयास तो करें। क्या जिस पार्टी की सरकार होगी सिर्फ उसी के जनप्रतिनिधियों का काम होता है? फिर अमेठी तो उनके परिवार का गढ़ है।

जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं के बयानों से गंभीरता और गरिमा दोनों गायब हो रही है। ज्यादा चिंता की बात यह है कि अपेक्षाकृत युवा नेताओं के साथ यह समस्या और भी गंभीर है। राहुल गांधी ही नहीं उनके सहयोगी दलों के नेता अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के बयानों में एक समानता है। ये सब ऐसे बोलते हैं जैसे अपना प्रिय खिलौना छिन जाने पर खिसियाए हुए बच्चे। ये सत्ता की छांव में पले बढ़े बबुआ लोग हैं। सत्ता इन्हें पारिवारिक विरासत में मिली। संषर्ष इनसे होता नहीं और सत्ता के जितना पास आने का प्रयास कर रहे हैं वह उतना ही दूर भाग रही है। इनमें एक और समानता है तीनों को ही उम्मीद ही नहीं यकीन है कि कुछ करने की जरूरत नहीं है।

सत्तारूढ़ दल से नाराज होकर लोग उन्हें मौका देंगे। इसलिए ये बड़ी लाइन खींचने में यकीन नहीं करते। इनका मानना है कि बड़ी लकीर को छोटा कर दो तो अपनी लकीर अपने आप बड़ी हो जाएगी। इनमें से कोई भी सामान्य ढंग से कोई गंभीर बात करने को इच्छुक ही नहीं नजर आता। किसी पर भी कोई आरोप लगा देना इनके लिए सामान्य बात है। एक अरविंद केजरीवाल भी हुआ करते थे, एक मायने में इन सबके आदर्श। उनकी नजर में उनके अलावा सब भ्रष्ट थे। सार्वजनिक मंच से चिल्ला-चिल्लाकर जिन्हें भ्रष्ट कहते थे, आज उन सबसे माफी मांगते घूम रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि भाजपा या दूसरे दलों में ऐसे लोगों की कमी है। ऐसे बयानवीर ही आजकल मीडिया में ज्यादा सुर्खियां बटोरते हैं। गंभीर लोग हर दल में पीछे धकेले जा रहे हैं। राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव का खासतौर से जिक्र इसलिए कि ये तीनों देश का तो पता नहीं, लेकिन अपने-अपने दलों का भविष्य हैं। इनके दलों का क्या होगा या फिर इनके राजनीतिक भविष्य के बारे में कोई अनुमान लगाने से अधिक इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि देश की राजनीति का भविष्य क्या होगा? समस्या अधिक बड़ी इसलिए है कि इनका सफल होना और नाकाम होना, दोनों ही चिंता का विषय हैं।

इनके बयानों और भाषणों से एक बात साफ हो जाती है कि तीनों नेताओं को देश और समाज की समस्याओं की बड़ी सतही जानकारी है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि विषय की गहराई में जाने, उसके हल के विकल्पों पर विचार करने और देश के लोगों के सामने एक वैकल्पिक नीति पेश करने में उनकी कोई रुचि नहीं है। तीनों को अपने नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से दो-चार होना पड़ा है। तीनों के दलों की पहचान भी इसी रूप में है। भ्रष्टाचार के खिलाफ इनके किसी बयान पर यकीन करने के लिए जरूरी होगा कि पूरे देश के लोगों की याद्दाश्त गायब हो जाए। जाहिर है कि ऐसा होने से रहा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)