नई दिल्ली [बिंदू डालमिया]। नेल्सन मंडेला ने कहा था कि किसी समाज का वास्तविक आकलन इससे होता है कि वह अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करता है। बीते कुछ दिनों से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार चर्चा में हैं। इन घटनाओं पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी ध्यान दिया है और कुछ ने तो भारत पर रेप रिपब्लिक का ठप्पा लगाने की भी कोशिश की है। 2018 का मौजूदा माहौल एक तरह से 2012-13 सरीखा दिख रहा है जब निर्भया कांड के कारण महिला सुरक्षा और सुशासन बड़ा मुद्दा बना था। इन दिनों भी महिला सुरक्षा एक बड़ा मसला बना हुआ है। महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्रवाई के साथ जरूरी उपचारात्मक कदम उठाने की भी जरूरत है।

पोस्को एक्ट में और सुधार की जरूरत है, ताकि देश में भरोसा पैदा किया जा सके। इस कानून के सही क्रियान्वयन के साथ यौन अपराधों को रोकने की चुनौती है जो निर्भया मामले के बाद 29 फीसदी बढ़े हैं। कानूनवेत्ताओं का मानना है कि मौत की सजा के प्रावधान से शायद दुष्कर्म के मामले शायद ही रुकें। एक आशंका है कि कहीं इससे पीडितों के लिए जोखिम बढ़ न जाए? कहीं ऐसा न हो कि दुष्कर्मी तत्व सुबूत खत्म करने के लिए पीडित की ही जान लेने की कोशिश न करें? दुष्कर्म वहशीपन से उपजता है। अपराध करने वाला इसके कानूनी नतीजों के बारे में शायद ही सोचता हो? सोचता भी है तो उसकी परवाह नहीं करता।

हमें यह देखने की जरूरत है कि यौन अपराधों को नियंत्रित कैसे किया जाए? दरअसल कुछ ऐसा करने की जरूरत है जिससे यौन हिंसा के मामले घटित ही न हों। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि दुष्कर्म अब एक आपदा की शक्ल ले चुका है। यह दुनिया के तमाम देशों और खासकर प्रगतिशील समझे जाने वाले देशों में तेजी से बढ़ रहा है। इनमें वे देश भी हैं जहां संपन्नता है और प्रति व्यक्ति आय ज्यादा है। बच्चों के लिए स्कूल वह संस्था होती है जहां वह पहली बार बाहरी दुनिया का सामना करता है। उस पर स्कूल का असर भी खूब होता है। एक तरह से नैतिकता, समझ और नागरिक स्तर बढाने वाली पहली संस्था स्कूल ही होता है। स्कूल के इस महत्व के बाद भी बच्चों के विकास में परिवार का योगदान कम नहीं। किशोरवय के लड़के-लड़कियों को सकारात्मक माहौल मिलना चाहिए। वे ड्रग्स और अन्य बुरी आदतों का शिकार न हों। वे गलत धारणाओं का शिकार न हों, इस सबकी परवाह परिवार को करनी होगी।

यौन अपराध की घटनाओं में पुलिस और अदालत की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, लेकिन हम यह पाते हैं कि ये दोनों संस्थाएं दोषमुक्त नहीं। दोनों संस्थाएं भ्रष्टचार और राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार हो रही हैं। इसके अलावा वे संख्याबल के अभाव और आधुनिक तकनीक एवं अन्य संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं। एक अन्य समस्या यह है कि घरों में घटने वाली बाल यौन शोषण की घटनाएं दबकर रह जाती हैं और चूंकि अपराधी दंडित नहीं होते इसलिए उनका दुस्साहस बढ़ता है। घर में जब लड़के और लड़कियों के साथ कोई परिचित या संबंधी यौन दुव्र्यवहार करता है तो वह शर्म या अपमान के भय से उसे अभिभावकों को नहीं बताता। एक आंकड़े के अनुसार 52 फीसदी लड़के या लड़कियां किशोरवय में इस तरह के हादसों से गुजरते हैं।

यह भी ठीक नहीं कि सरकार यह नहीं तय कर पा रही है कि निर्भया फंड की राशि को सही तरह कैसे खर्च किया जाए? इस फंड की राशि बढ़ाई जानी चाहिए और उसे महिलाओं की सुरक्षा और साथ ही सार्वजनिक सुरक्षा के माहौल को दुरुस्त करने में खर्च की जानी चाहिए। अगर यौन अपराधों के खिलाफ माहौल बनाने के अभियान में बॉलीवुड, खेल और अन्य सभी क्षेत्रों की हस्तियां शामिल हों तो उसका समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अमेरिका में ऐसे समूह बने हैं जो पुरुषों की ओर से संचालित होते हैं। ये समूह यौन अपराधों के खिलाफ सक्रिय हैं। यह समझने की जरूरत है कि जटिल समस्याओं का निदान आम नागरिकों, नागरिक समाज और सरकार के एक साथ आने से ही किया जा सकता है। महिलाओं के लिए एक सुरक्षित और बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अनुसरण करने के साथ और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हमारा संविधान उस दौर में बना जब महिलाएं आर्थिक तौर पर गरीब और सामाजिक भेदभाव का शिकार थीं। अब हालात कुछ बदले हैं, लेकिन इसी के साथ इस संदेश के प्रचार-प्रसार की जरूरत बढ़ गई है कि महिला अधिकार भी मानवाधिकार हैं और उन्हें एक सुरक्षित माहौल प्रदान किया जाना शेष है।

(लेखिका उपन्यासकार एवं स्तंभकार हैं)