[डॉ. एके वर्मा]। दिल्ली में शाहीन बाग इलाके में डेढ़ महीने से चल रहा सीएए, एनपीआर और एनआरसी विरोधी धरना भारतीय लोकतंत्र में विरोध का नया मॉडल दर्शाता है। यह कोई साधारण लोकतांत्रिक धरना नहीं, वरन नाकाबंदी है। जो लोग शाहीन बाग धरने के पीछे हैं वे संवैधानिक प्रतीकों राष्ट्रीय झंडे, राष्ट्रगान और मौलिक अधिकारों को हथियार बनाकर भारतीय संविधान, कानून और संप्रभुता को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं। वे भारत के ‘टुकड़े’ करने और असम को भारत से काटने का दिवास्वप्न देखने वालों के साथ भी खड़े हैं।

सरकार के विरुद्ध भड़काने का काम

यह ध्यान रहे कि 1971 से ही पाकिस्तान अपने विभाजन का बदला लेना चाहता है। पहले उसने भारत के विरुद्ध गुरिल्ला- युद्ध छेड़ा, फिर आतंक का सहारा लिया। दरअसल वह भारतीय मुस्लिमों में शक पैदा कर उन्हें सरकार के विरुद्ध भड़काने का काम कर रहा है। अनु. 370 हटने और राम मंदिर पर फैसला आने के बाद मुस्लिम समाज में यह अंदेशा भरा जा रहा है कि मोदी सरकार का अगला कदम समान नागरिक संहिता होगा।

तमाम मुस्लिम इसे भाजपा या संघ का एजेंडा मानते हैं, जबकि संविधान के अनुसार अनु. 370 अस्थाई प्रावधान था जिसे बहुत पहले समाप्त हो जाना चाहिए था। इसी तरह अनु. 44 देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता का निर्देश देता है जिसे अभी पूरा होना है।

इस्लामिक एजेंडा लागू करने की साजिश

जहां तक राम मंदिर की बात है तो उसके लिए हिंदू समाज को 72 वर्ष तक इंतजार करना पड़ा और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद ही उसका पटाक्षेप हो सका। चिंता की बात यह है कि पाक सरीखी जो बाहरी शक्तियां ‘इस्लामिक एजेंडा’ लागू करने की साजिश रच रही हैं वे पूरे मुस्लिम समाज को कलंकित करने पर तुली हुई हैं जबकि अधिकांश मुसलमानों का इससे कोई लेनादेना नहीं। दूसरी चिंता की बात यह है कि जो दल भाजपा और हिंदुत्व विरोधी एजेंडे पर राजनीति करते हैं वे जाने अनजाने ‘इस्लामिक-एजेंडा’ लागू करने वालों की गिरफ्त में आ जाते हैं।

क्या शाहीन बाग में विरोध करने वालों को यह पता भी है कि वे क्यों विरोध कर रहे हैं और उससे उनका क्या नफा-नुकसान हो रहा है? कहीं यह धरना केवल इसलिए तो नहीं दिया जा रहा कि नागरिकता कानून से मुसलमानों को क्यों बाहर रखा गया? जिन मुसलमानों को बाहर रखा गया है वे तो भारत के नागरिक ही नहीं हैं। वे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हैं।

भारतीय मुसलमान प्रभावित नहीं होते

मुद्दा तो पड़ोसी इस्लामिक देशों में उत्पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का है। इससे भारतीय मुसलमान तो प्रभावित ही नहीं होते। शाहीन बाग में जमा भीड़ का प्रोफाइल भी चौंकाने वाला है। इसमें महिलाओं और बच्चों को ढाल बनाकर नाकाबंदी चलाई जा रही है। क्या किसी ने इस पर ध्यान दिया कि किन असाधारण शारीरिक, मानसिक और वित्तीय उत्पीड़न द्वारा महिलाओं को मैदान में उतारा गया है? इसमें बच्चों का प्रयोग तो ‘चाइल्ड-एब्यूज’ की श्रेणी में आता है।

उनमें जैसा ‘मोदी-फोबिया’ भरा गया है वह असामान्य है। उनमें जिस तरह की कट्टरता भरी जा रही है वह आगे चलकर भारत की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब और सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा हो सकती है। मोदी शायद पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने ‘इस्लामिक-एजेंडा’ को चुनौती देने की कोशिश की है। पूरे विश्व में चीन से लेकर अमेरिका तक में ‘इस्लामिक-एजेंडा’ लागू करने की सुनियोजित मुहिम चल रही है। न चीन कुछ कर पा रहा है और न अमेरिका। 

चीन ने मुस्लिमों पर लगाए कई प्रतिबंध

अमेरिका में तुर्की के मौलवी फयूतुल्ला गुलेन के समर्थक सैकड़ों ‘हारमनी’ स्कूलों की आड़ में ‘इस्लामिक-एजेंडे’ का प्रचार कर रहे हैं और अमेरिकी सरकार से करोड़ों डॉलर की सहायता भी ले रहे हैं। चीन ने बुर्का और हिजाब पहनने, लाउडस्पीकर और अरबीलिपि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है और अनेक मस्जिदों की मीनारों को तोड़ दिया है। बेल्जियम में एक-चौथाई जनसंख्या मुस्लिम हो गई है जिसके 2050 तक 50 फीसद होने की उम्मीद है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह क्या करे? अभी से वहां शरीया कानून की मांग जोर पकड़ रही है।

इस्लामिक एजेंडा लागू करवाने वाली बाहरी शक्तियां शाहीन बाग मॉडल को पूरे देश में फैलाने का षड्यंत्र कर सकती हैं। वैसे भी यह तो कहा ही जा रहा है कि शहर-शहर शाहीन बाग बनाए जाएंगे। दिल्ली के शाहीन बाग को जिस तरह मुंबई, भरूच, पटना, लखनऊ आदि शहरों में दोहराने की कोशिश की गई उससे लगता है कि सुनियोजित तरीके से मुस्लिमों को भड़काने और भाजपा एवं मोदी-विरोधी दलों को अपने जाल में फंसाने का काम हुआ है।

धरना प्रदर्शन के लिए कहां से आ रहा है पैसा 

कई शहरों में चलने वाले धरने-प्रदर्शन में पैसा आखिर कहां से आ रहा है? ‘आजादी’ और वह भी ‘जिन्ना वाली आजादी’ के जो आपत्तिजनक नारे लग रहे हैं, उनका आखिर सीएए से क्या लेनादेना? क्या शाहीन बाग का दिल्ली विधानसभा चुनावों से भी कोई संबंध है? क्या कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने इस धरने को समर्थन देकर मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने का प्रयास किया है? ऐसा करके उन्होंने कई गलतियां की हैं। उन्होंने दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में मतदाताओं का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया है।

ऐसा करके उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत युवाओं को भड़काने का काम किया है। यह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा हो सकता है। शाहीन बाग धरने को समर्थन देकर कांग्रेस और केजरीवाल ने एक गलती यह भी की है कि भारत में भी अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका की भांति मुस्लिम ‘नो-गो- जोन्स’ अर्थात ऐसे क्षेत्र जहां गैर-मुस्लिम या पुलिस भी नहीं जा सकती, का श्रीगणेश कर दिया है।

हिंदुत्ववादी एजेंडा थोपने का आरोप

देश के कुछ राज्यों के कई जिलों में मुस्लिम आबादी जिस तरह बढ़ी है उससे ये क्षेत्र पहले ही काफी संवेदनशील हो चुके हैं पर राजनीतिक स्वार्थ के कारण कोई भी सरकार इस समस्या से जूझना नहीं चाहती। उलटे ज्यादातर दल भाजपा पर हिंदुत्ववादी एजेंडा थोपने का आरोप लगा कर उसे रक्षात्मक बनाने की कोशिश करते हैं ताकि ‘इस्लामिक-एजेंडे’ पर कोई विमर्श न हो।

प्रश्न उठता है कि ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ की परिभाषा क्या है? क्या जहां पाक के लगभग बराबर संख्या में मुसलमान रहते हों, जहां मुस्लिम आबादी 14.2 प्रतिशत हो और जहां देश के अनेक जिलों में मुस्लिम जनसंख्या राष्ट्रीय औसत से कई गुना ज्यादा हो, उसे धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देना चाहिए? शाहीन बाग की नाकाबंदी तो खत्म हो जाएगी, लेकिन उससे उठे सवाल जवाब मांगते रहेंगे।

 

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)