संजय गुप्त

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सलियों के दुस्साहसिक हमले में सीआरपीएफ के 25 जवानों की शहादत ने देश को झकझोरा है। पिछले कई दशकों से लगभग हर साल इस तरह के दो-तीन बड़े हमले सीआरपीएफ अथवा पुलिस पर हो जाते हैं। कई बार नक्सली सड़क, पुल आदि के निर्माण में लगे लोगों को निशाना बनाते हैं। कभी-कभी वे पुलिस के मुखबिर होने के आरोप में आम नागरिकों को भी मार देते हैं। देश में नक्सलवाद का सिलसिला पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में साठ के दशक में शुरू हुआ। प्रारंभ में नक्सलवाद को इस तर्क के साथ आगे बढ़ाया गया कि अत्यंत पिछड़े इलाकों के गरीब-वंचित वर्ग और विशेषकर आदिवासी समाज को कथित सामंतवादी शासन द्वारा उसके हक से वंचित किया जा रहा है। नक्सलवाद की सोच को आगे बढ़ाने वाले लोगों ने भारतीय संविधान को मानने से इन्कार कर दिया। सब कुछ बंदूक के बल पर हासिल करने का इरादा रखने वाले नक्सलियों ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए भोले-भोले आदिवासियों को शासन-प्रशासन के खिलाफ भड़काना शुरू किया। धीरे-धीरे उन्होंने आधुनिक हथियारों और एक वर्ग के वैचारिक समर्थन के बल पर इस हद तक अपनी ताकत बढ़ा ली कि वे सुरक्षा बलों को गंभीर चुनौती देने लगे। आज नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। नक्सलवाद की जड़ें उन क्षेत्रों में अधिक गहरी हैं जहां विकास या तो पहुंच नहीं सका है अथवा उसकी रफ्तार बहुत धीमी है। ऐसे क्षेत्रों में तेज विकास के जरिये ही नक्सलवाद की कमर तोड़ी जा सकती है। नक्सली यह जानते हैं और इसीलिए वे विकास के कार्यों में अड़ंगा लगाने का काम कर रहे हैं। सुकमा में भी उन्होंने सीआरपीएफ की उस टुकड़ी को निशाना बनाया जो नई बन रही एक सड़क की सुरक्षा में तैनात थी। जो सड़क बनाई जा रही थी वह दो हाई-वे को जोड़ने वाली थी और उसके बन जाने से आसपास के इलाकों में विकास की रफ्तार अपने आप तेज हो जाती। सड़कें विकास की वाहक होती हैं। नक्सली इससे भयभीत हैं कि अगर विकास की रफ्तार तेज हो गई तो उनकी रही-सही पकड़ भी समाप्त हो जाएगी।
एक समय नक्सली संगठनों ने देश के करीब एक दर्जन राज्यों के आदिवासी बहुल वन क्षेत्रों में अपने ठिकाने बना रखे थे। सुरक्षा बलों की सख्ती और विकास के बल पर ऐसे तमाम ठिकाने खत्म किए जा चुके हैं, लेकिन छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, झारखंड के कुछ इलाकों में नक्सली अभी भी अपनी जड़ें जमाए हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर का इलाका उनका सबसे मजबूत गढ़ है। हालांकि छत्तीसगढ़ में लगभग 13 वर्ष से एक स्थिर सरकार है, फिर भी वह नक्सलियों पर काबू पाने में विफल है। यह रमन सिंह सरकार की नाकामी है कि नक्सली आतंक का पर्याय बने हुए हैं। ऐसा नहीं है कि नक्सली जिन क्षेत्रों में सक्रिय हैं वे इतने दुर्गम हैं कि वहां तक पहुंचा नहीं जा सकता। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता चाहें तो ऐसे क्षेत्रों में नक्सल समर्थकों को समझा-बुझाकर उन्हें मुख्यधारा में ला सकते हैं, लेकिन या तो वे ऐसा करना नहीं चाहते या फिर उनकी भी नक्सलियों से साठगांठ है। कई सरकारी विभागों के कर्मचारियों के बारे में तो यही माना जाता है कि असुरक्षा के कारण वे नक्सलियों से हाथ मिलाने में ही अपनी भलाई समझते हैं। शायद यही कारण है कि नक्सली रह-रहकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देने में समर्थ हैं जो सुरक्षा बलों को हतोत्साहित करने वाली होती हैं। जब भी इस तरह की कोई वारदात होती है तो केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े हो जाते हैं।
नक्सलियों की हर बड़ी वारदात के बाद वही घिसी-पिटी बातें सुनने को मिलती हैं कि सुरक्षा बलों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, इलाके बहुत दुर्गम हैं, सरकार के स्तर पर नीतिगत स्पष्टता का अभाव है और खुफिया तंत्र ठीक नहीं। यह भी कहा जाता है कि नक्सलियों पर दोष सिद्ध हो जाने के बाद उनकी सजा इतनी कठोर नहीं होती कि अन्य लोगों को नक्सलवाद की ओर जाने से रोका जा सके। सवाल यह है कि आखिर अब तक इन सब समस्याओं का समाधान क्यों नहीं किया जा सका है? नक्सलवाद जैसी गंभीर चुनौती का सामना करने में शासन-प्रशासन के स्तर पर तो किसी भी प्रकार की ढिलाई की कोई गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए। सुकमा की ताजा घटना के बाद यह सुनने को मिल रहा है कि दुर्गम इलाकों में लंबी तैनाती के कारण सुरक्षा बलों के जवान थक जाते हैं। कहा तो यहां तक जा रहा है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनाती कश्मीर घाटी से भी अधिक खतरनाक है। सीआरपीएफ को इस पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए कि क्या लंबी तैनाती और थकान के कारण जवानों को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चौकसी बरतने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है? यह भी देखा जाना चाहिए कि उनके पास आधुनिक हथियारों अथवा अन्य किसी संसाधन का अभाव तो नहीं है?
यह अत्यधिक चिंता की बात है कि माओ की हिंसक विचारधारा से प्रेरित नक्सली आखिर देश के एकदम बीचोबीच आधुनिक हथियार और अन्य संसाधन जुटाने में कैसे कामयाब हो रहे हैं? सुरक्षा बल एवं खुफिया एजेंसियां उन लोगों तक क्यों नहीं पहुंच पा रहीं जो नक्सलियों को हर तरह की सहायता उपलब्ध करा रहे हैं? इसकी तह तक जाने की सख्त जरूरत है कि ये हथियार विदेश से आ रहे हैं या देश के अंदर से ही? एक अर्से से यह कहा जा रहा है कि पुलिस को पर्याप्त सक्षम बनाने की जरूरत है ताकि वे सीआरपीएफ जवानों की सही तरह मदद कर सकें। यह काम अभी भी नहीं हो पा रहा है। छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में पुलिस के हजारों पद रिक्त हैं। इन राज्यों में पुलिस का खुफिया तंत्र भी बहुत कमजोर है। चूंकि बाहर से आए सीआरपीएफ जवान नक्सल प्रभावित इलाकों के भौगोलिक हालात और सामाजिक परिवेश से अनजान होते हैं इसलिए उनके साथ पुलिस की सक्षम टुकड़ी होना आवश्यक है। पता नहीं इस आवश्यकता की पूर्ति क्यों नहीं की जा रही है? नक्सली गुरिल्ला युद्ध में सक्षम हैं। सीआरपीएफ ऐसी लड़ाई के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित नहीं। आखिर उसे जंगली इलाकों में छापामार शैली की लड़ाई में प्रशिक्षित करने में क्या कठिनाई है? एक सवाल यह भी है अन्य राज्य आंध्र प्रदेश की तर्ज पर खास तौर से नक्सलियों से निपटने में सक्षम कमांडो दस्ते का गठन क्यों नहीं कर पा रहे हैं?
यह समझने की जरूरत है कि नक्सलियों द्वारा बार-बार किए जा रहे हमले और उनमें सुरक्षा बलों के जवानोें की क्षति आंतरिक सुरक्षा के परिदृश्य को कमजोर करने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को प्रभावित करती है। नक्सली गतिविधियों और खास तौर पर सुरक्षा बलों पर उनके हमलों को तत्काल प्रभाव से रोकने की जरूरत है। इसके लिए केंद्र और नक्सलवाद प्रभावित राज्यों को ठोस पहल करनी होगी। नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा के मोर्चे को दुरुस्त करने के साथ ही राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी जो प्रयास अपेक्षित हैं उनसे भी पीछे नहीं हटा जाना चाहिए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]