[ सुरेंद्र किशोर ]: सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जन प्रतिनिधियों से जड़े मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित हो चुकी हैं। यह आदेश 2017 में आया था। इसके तहत गठित अदालतें काम भी कर रही हैं और उनकी सुनवाई में गति भी आई है, लेकिन जब यही मुकदमे हाईकोर्ट में जाते हैं तो वहां लंबा इंतजार करना पड़ रहा है। दरअसल मुकदमों को वहां अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि उस स्तर पर सुनवाई में प्राथमिकता का अभी कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए निचली अदालतों की तेजी निरर्थक जाती है। क्या उच्च न्यायालयों के स्तर पर भी ऐसे मामलों की शीघ्र सुनवाई नहीं तय की जा सकती? ऐसा उच्च अदालतें ही कर सकती है, क्योंकि हाईकोर्ट को कोई अन्य निर्देशित नहीं कर सकता।

जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदमें दशकों तक लंबित

अगर हाईकोर्ट के स्तर पर त्वरित सुनवाई नहीं होती तो निचली अदालतों के स्तर पर विशेष व्यवस्था करने का पूरा लाभ नहीं मिल पाएगा। बहुत दिनों से यह शिकायत आ रही थी कि जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदमें दशकों तक लंबित रहते हैं। इस बीच वे बार-बार जन प्रतिनिधि बनते रहते हैं। इससे राजनीति दूषित होती है और प्रशासन पर भी बुरा असर पड़ता है। दूसरी ओर जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ राजनीतिक कारणों से या द्वेषवश मुकदमे शुरू होते हैं वे वर्षों तक बदनाम होते रहते हंै। इसलिए ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई पूरी हो जाए तो सिर्फ असली गुनहगारों को छोड़कर सबका भला है। ऐसे काम में सभी संबंधित पक्षों और खासकर अदालतों को भरसक सहयोग करना चाहिए, लेकिन कई कारणों से ऐसा हो नहीं पाता।

उच्च न्यायालयों में जजों के 399 पद खाली

हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की शीघ्र सुनवाई करने की सीबीआइ की अर्जी को मानने से इन्कार कर दिया। याद रहे 2 जी मामले में विशेष अदालत ने 2017 में पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.राजा और अन्य को दोषमुक्त कर दिया था। उस निर्णय के खिलाफ सीबीआइ ने हाईकोर्ट में अपील की। देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 399 पद खाली हैं। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि इन पदों को भरने से अधिक जरूरी काम कोई और हो ही नहीं सकता। ये पद भरे जाने चाहिए, लेकिन इसी के साथ निचली अदालतों की ओर से दिए गए फैसलों का उच्चतर अदालतों द्वारा निस्तारण भी प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए।

लंबित मुकदमों की बड़ी संख्या

विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की बड़ी संख्या को देखते हुए किसी न्यायाधीश के लिए यह तय करना कठिन होता है कि बारी से पहले किसी केस की सुनवाई कैसे कर ली जाए, लेकिन मौजूदा और पूर्व जन प्रतिनिधियों से संबंधित मुकदमों की शीघ्र सुनवाई की जरूरत खुद सुप्रीम कोर्ट बता चुका है। उनके मामलों को शीघ्र निपटा देने से भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण पर काबू पाने में सुविधा होगी। इस देश की विधायिका में ऐसे प्रतिनिधियों की संख्या समय के साथ बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ अपराध और भ्रष्टाचार के आरोपों में मुकदमे चल रहे हैं।

ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का अंतिम निर्णय अब तक नहीं हो सका

ध्यान रहे कि पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड से संबंधित मुकदमे का अंतिम निर्णय अब तक नहीं हो सका है। उनकी हत्या बिहार के समस्तीपुर में 1975 में हुई थी। महत्वपूर्ण मुकदमों में यथाशीघ्र निर्णय से लोगों में न्यायपालिका के प्रति भरोसा बढ़ता है। चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव और अन्य अनेक लोगों को पहली बार 2013 में सजा हुई थी। रांची की विशेष अदालत सीबीआइ ने उन्हें सजा दी। उस सजा के खिलाफ लालू प्रसाद ने रांची हाईकोर्ट में अपील कर रखी है, पर वह अपील अब तक विचाराधीन है। इस बीच कुछ अन्य मुकदमों में भी लालू प्रसाद को सजा मिली है। ये मामले भी हाईकोर्ट जाएंगे। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट भी जा सकते हैं। कहना कठिन है कि इस प्रक्रिया में कितने साल या दशक लगेंगे? देर से मिला न्याय न्याय नहीं होता, यह कहावत यहां पूरी तरह लागू हो रही है। दरअसल भ्रष्टाचार और अपराध से संबंधित मामलों के त्वरित निपटारे के अभाव में अन्य अपराधियों और घोटालेबाजों का मनोबल बढ़ता जाता है। 2 जी घोटाले से संबंधित मुकदमे के शीघ्र निपटारे से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की न सिर्फ साख बढ़ेगी, बल्कि अन्य घोटालेबाजों के हौसले भी पस्त होंगे।

2 जी घोटाले की जांच से क्या मिला?

2 जी घोटाले ने राजनीति और चुनाव को भी प्रभावित किया है, लेकिन बीच में मामला अटक जाने के कारण सिस्टम के प्रति असंतोष का खतरा बढ़ गया। कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर 2 जी घोटाले की जांच से क्या मिला? कोर्ट ने आरोपितों को तो दोषमुक्त कर दिया। कम ही लोगों को यह मालूम है कि 2 जी का मामला अब भी दिल्ली हाईकोर्ट में विचाराधीन है। सीबीआइ ने लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील कर रखी है। इस मामले में ए.राजा और कनिमोझी को दिल्ली स्थित विशेष सीबीआइ जज ओपी सैनी ने 2017 में दोषमुक्त करते हुए कहा था कि कलाइग्नार टीवी को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डीबी ग्रुप द्वारा 200 करोड़ रुपये देने के मामले मेंं अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह तक नहीं की।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा-165 का प्रावधान

याद रहे कि इस टीवी कंपनी का मालिकाना हक करुणानिधि परिवार के पास है। शायद मनमोहन सरकार के कार्यकाल में सीबीआइ के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी, लेकिन भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए धारा-165 का प्रावधान किया गया है। आखिर विशेष अदालत ने इस अधिकार का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? संभवत: इस सवाल पर हाईकोर्ट में विचार होगा। इस धारा के अनुसार, ‘न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता लगाने के लिए या उनके उचित सळ्बूत हासिल करने के लिए किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकार से कोई भी प्रश्न पूछ सकता है और किसी भी दस्तावेज को पेश करने का आदेश दे सकता है। न तो पक्षकार और न ही उनकी पैरवी करने वालों कोऐसे किसी भी आदेश पर आक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा।

चारा घोटाले के मामले अभी लोअर कोर्ट में ही फंसे हैं

इस मौके पर चर्चित चारा घोटाले की भी चर्चा आवश्यक है। अदालत के आदेश पर सीबीआइ ने चारा घोटाले की जांच 1996 में शुरू की थी, लेकिन अभी तक केवल लोअर कोर्ट ही इस घोटाले के कुछ मामलों में निर्णय कर सका है। 23 साल बीत जाने के बाद भी यह स्थिति है। कल्पना कीजिए कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचते-पहुंचते और कितने साल लगेंगे? आखिर ऐसे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के प्रति लोगों का भरोसा कैसे बढ़ सकता है? ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में सीबीआइ ने जिन आरोपितों को कठघरे में खड़ा किया है उनके बारे में दिवंगत मिश्र के परिजन कहते हैं कि असली हत्यारे वे नहीं हैं। सच्चाई जो भी हो, इस तरह के मामलों में सुनवाई में देरी का कोई औचित्य नहीं। सच तो है कि अपराध और भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों का अंतिम स्तर पर निस्तारण कहीं जल्द होना चाहिए।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )