विवेक काटजू : हाल में भारत ने जहां 74वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक वास्तविक लोकतांत्रिक ढांचे में अपनी जनता से व्यापक प्रगति के लिए पुन: प्रतिबद्धता व्यक्त की, तो दूसरी ओर पाकिस्तान भारी राजनीतिक एवं आर्थिक मुश्किलों के भंवर में फंसा है। उसके हालात को पाकिस्तानी अखबार ‘डान’ ने हालिया संपादकीय टिप्पणी में इस प्रकार व्यक्त किया है, ‘देश निराशा की इतनी गहरी गर्त में पहुंच गया है कि लोग बोरिया-बिस्तर समेटने और देश छोड़ने की वकालत कर रहे हैं।’ पाकिस्तान की सेना और राजनीतिक बिरादरी देश की ऐसी दुर्गति के कारण और निवारण पर मंथन करने के बजाय अपनी पुरानी नीतियों पर कायम हैं। ये नीतियां लोगों को निरंतर गरीबी के दलदल में धकेलने और उन कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों की ताकत बढ़ाने वाली हैं, जो देश को वापस पाषाण युग में ले जाना चाहते हैं।

पाकिस्तान के मौजूदा हालात की सुध लेने से पहले एक हालिया घटनाक्रम का उल्लेख आवश्यक है। भारत ने शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की बैठक के लिए पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी को आमंत्रण भेजा है। चूंकि इस संगठन की अध्यक्षता फिलहाल भारत के पास है तो इस नाते एससीओ बैठक आयोजन की जिम्मेदारी भी उस पर है। ध्यान रहे बिलावल को भेजा गया बुलावा द्विपक्षीय संबंधों के संदर्भ में नहीं है और एससीओ का अध्यक्ष होने के नाते भारत पाकिस्तानी विदेश मंत्री को आमंत्रित करने से नहीं बच सकता था। दूसरी ओर पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि बिलावल इस बैठक में हिस्सा लेंगे या नहीं।

नि:संदेह कूटनीतिक प्रोटोकाल की मर्यादा को देखते हुए बिलावल को बुलाने में जयशंकर को कड़वा घूंट पीना पड़ा होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि गत माह बिलावल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति अमर्यादित भाषा इस्तेमाल की थी। इसके लिए बिलावल की कम उम्र और अनुभवहीनता की दुहाई नहीं दी जा सकती। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ तो सार्वजनिक रूप से कह सकते थे कि वह मोदी के प्रति बिलावल की भाषा से सहमत नहीं, लेकिन उन्होंने भी ऐसा कुछ नहीं किया। कुल मिलाकर बिलावल को आमंत्रण भेजने के मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि भारत ने पाकिस्तान के प्रति अपनी उस नीति को बदल दिया है कि जब तक वह आतंक का परित्याग नहीं करता तब तक उसके साथ किसी प्रकार की कोई बातचीत संभव है।

पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति देखें तो पाकिस्तानी स्टेट बैंक के पास केवल एक महीने के निर्यात की वित्तीय व्यवस्था बची है और वह भी संयुक्त अरब अमीरात की हालिया मदद की बदौलत हासिल हुई है। उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से सहायता की तत्काल आवश्यकता है, ताकि पाकिस्तानी रुपये को कुछ सहारा मिल सके। आइएमएफ ने मदद के लिए कुछ शर्तें तय की हैं। इनमें सरकार को सब्सिडी खर्च में कटौती करने, कर संग्रह और ईंधन एवं बिजली की दरें बढ़ानी हैं। ऐसे कदम उठाते ही शरीफ सरकार अलोकप्रिय होने लगी। पाकिस्तानी पंजाब के उपचुनावों में इसकी झलक भी दिखी, जहां पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआइ ने जीत का परचम फहराया। इससे परेशान शहबाज अपने भाई और पार्टी नेता नवाज शरीफ की सलाह पर आइएमएफ से किए वादे से पलट गए। आइएमएफ ने भी अपनी मदद पर तुरंत रोक लगा दी। अब मजबूरी में शहबाज ने आइएमएफ को आश्वस्त किया है कि वह उसकी शर्तों को लागू करेंगे।

जनसमर्थन गंवाती शहबाज शरीफ सरकार को देखकर इमरान को राजनीतिक अवसर दिख रहा है। वह जल्द से जल्द चुनाव कराने का अभियान चला रहे हैं, जबकि तय कार्यक्रम के अनुसार नेशनल असेंबली के लिए इस साल अक्टूबर में चुनाव होने हैं। अपने अभियान को परवान चढ़ाने के लिए इमरान ने पंजाब और खैबर-पख्तूनख्वा की विधानसभाएं भंग करा दी हैं। इन राज्यों में कामचलाऊ सरकारें नियुक्त की गई हैं और अप्रैल के अंत तक चुनाव होना है। अगर पंजाब में पीटीआइ जीत हासिल कर लेती है तो इमरान को राजनीतिक रूप से रोकना मुश्किल हो जाएगा। उन्हें तभी रोका जा सकता है जब चुनाव आयोग उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराए और अदालत उस फैसले पर मुहर लगाए।

यहां शहबाज से अधिक नवनियुक्त सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर की भूमिका कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होगी। मुनीर ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। पुरानी कहानी के हिसाब से देखें तो मुनीर की इमरान से अदावत है, क्योंकि इमरान ने प्रधानमंत्री रहते हुए सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा पर मुनीर को आइएसआइ मुखिया के पद से हटाने का दबाव बनाकर उनकी जगह जनरल फैज हमीद की नियुक्ति कराई थी। यह भी माना जाता है कि मुनीर ने इमरान को उनके कुछ करीबियों की वित्तीय गड़बड़ियों को लेकर आगाह भी किया था। नि:संदेह, बाजवा द्वारा इमरान को प्रधानमंत्री पद से हटवाने में यह भी एक कारण रहा होगा, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि इमरान उनके उत्तराधिकारी को चुनें, क्योंकि इमरान यकीनन फैज हमीद को चुनते। इस टकराव को देखते हुए यही उम्मीद की जा सकती है कि मुनीर कोशिश करेंगे कि पीटीआइ पंजाब विधानसभा चुनाव में मुंह की खाए और इमरान चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य सिद्ध हो जाएं। उनके समक्ष समस्या यह है कि उन्हें अपने इन लक्ष्यों की पूर्ति उस दायरे में रहकर करनी होगी ताकि सेना पर जनता के विश्वास में कोई आंच न आए।

पाकिस्तानी सेना अपनी जनता को निरंतर रूप से भारत-विरोधी खुराक देती आई है। उसने यही दर्शाया है कि पाकिस्तान के स्थायी शत्रु भारत से केवल वही उनकी रक्षा कर सकती है। पाकिस्तानी जनता भी एक बड़ी हद तक उसके इस प्रचार को स्वीकार करती है। इससे फौज को न केवल देश की भारत नीति तय करने का अधिकार मिल जाता है, बल्कि अपने व्यापक वाणिज्यिक एवं आर्थिक उपक्रमों से वह बड़ा लाभ भी कमाती है। मुनीर के लिए समस्या यह है कि इमरान की लोकप्रियता कायम है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि मुनीर की अगुआई में सेना चुनाव में इमरान के खिलाफ कितनी सक्रिय भूमिका निभाएगी? इस साल पाकिस्तानी राष्ट्रजीवन में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक होगा।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)