मनुष्य अपने और जिन्हें अपना मानता है, उनके साथ अपनी सारी भावनाएं जोड़ देता है। वह अपने लिए एक सुविधाजनक दायरा बना लेता है। जीवन भर वह इस दायरे में रहकर सुख या दुख का अनुभव करता रहता है। इससे उसके सुख और दुख के अवसर संकुचित हो जाते हैं। उसने अपने जीवन के मानदंड भी संकुचित कर लिये हैं। संतान, धन, पद, संपत्ति और शक्ति के अर्जन को वह ख़ुशी के कारण मानता है। इनके चले जाने से वह दुखी होता है। उसकी सारी आशाएं इसी के इर्दगिर्द घूमती रहती हैं। वह अपनी मेहनत अपने भाग्य से जो चाहता है, उसे पाने में सफल रहता है। उसके पास सब कुछ होता है, फिर भी वह असंतुष्ट और खिन्न रहता है। ऐसा संसार में अधिकांश लोगों के साथ हो रहा है।

संस्कृति और मूल्य बदल रहे हैं

संस्कृति और मूल्य बदल रहे हैं, किंतु दोष उनका नहीं। जीवात्मा तो वही है, जो सृष्टि के आरंभ से ही विभिन्न रूपों में जन्म लेकर संसार में आ-जा रही है। उसके मूल गुण नहीं बदल सकते। संकट उन गुणों को भुला दिए जाने का है। मनुष्य ने अन्य के साथ मनुष्य के नाते व्यवहार करना छोड़ दिया है। व्यवहार के कई स्तर बना लिए। आज व्यक्ति अपनी पत्नी व संतान के लिए कर सकता है वैसा परिजनों और संबंधियों के लिए भी नहीं करता। इसके बाद जो स्थान बचता है, वह मित्रों, परिचितों के लिए होता है। उसका धीरे-धीरे अन्य के प्रति अनुदार और उदासीन होते जाना मानव सभ्यता के लिए बड़ी चेतावनी है। कभी गांव और नगर के साथ स्वयं को जोड़ा जाता था। देश और समाज के प्रति प्रेम व चिंता होती थी। अब वह अनुभूतियां लुप्त हो गई हैं।

दायरों में सिमटे हुए लोग खुशियों को तरसते हैं

अपने नगर और गांव की सुधि लेने का समय नहीं है। दायरों में सिमटे हुए लोग खुशियों को तरसते हैं। जीवन का सच्चा आनंद अपनी बनाई परिभाषाएं तोड़ कर ही मिलेगा। ईश्वर ने संसार में खुश और संतुष्ट रहने के अनंत कारण उत्पन्न किए हैं। प्रति क्षण संसार में कुछ न कुछ सुंदर घटित हो रहा है। सवाल स्वयं को उससे जोड़ने का है। इसके लिए परमात्मा का अंश होने की संवेदनशीलता होनी चाहिए। सारे जीव परमात्मा का ही अंश है, इसलिए यह अनुभूति उसे एक व्यापक परिवार का अंग बनाती है। आज जिन महापुरुषों का नाम आदर से लिया जाता है, वे सारे संसार को अपना परिवार समझ कर आगे आए थे।

[ डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह ]