बेनतीजा मंथन की परंपरा का पालन

[ अभिषेक अवस्थी ]: कुछ बातें शाश्वत होती हैं। जैसे कि जीवन-मरण का चक्र। इस चक्र में कुछ मनुष्यों की आत्मा नेता का चोला भी पहन लेती है। फिर ये चोला नेता चाहकर उतारना भी चाहें तो उनके चेले कभी उतारने नहीं देते। हर पेशे में रिटायरमेंट का एक पड़ाव आता है, पर नेता कभी रिटायर नहीं होते। असल में आम जिंदगी में जो रिटायरमेंट की उम्र मानी जाती है, उसमें तो नेताजी युवा ही माने जाते हैं। नेताजी शाश्वत होते हैं तो उनके मुद्दे भी सदाबहार रहते हैं। मसलन नेता जी लोग दशकों से गरीबी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी खत्म करने के वादे करते आए हैं, लेकिन ये मसले यूं ही जस के तस बने हुए हैं।

चुनावों में हारना-जीतना जितना शाश्वत है, उससे अधिक शाश्वत है हार पर मंथन करना

असल में नेतागीरी का फूल चुनावों की बगिया में ही खिलता है। चुनावी बयार ही नेताओं का बसंत-पतझड़ तय करती है। हाल में भी ऐसी एक चुनावी हवा चली। इसके बाद कोई जीता, कोई हारा। कहने को दोनों दल अलग-अलग हैं, मगर आम आदमी के लिए वे दरअसल ‘दल-दल’ ही हैं। शाश्वत ‘राजनीतिक दलदल!’ बहरहाल हारना-जीतना जितना शाश्वत है, उससे अधिक शाश्वत है हार पर मंथन करना। इस बार भी उन्होंने जीतने का दंभ भरा था। मगर उन्हें यह पता नहीं चला कि हार का गम अब भी हरा रहने वाला था। जो जनता को चुनाव के बाद झटका देते, उन्हें जनता ने पहले ही झटक दिया।

‘राजनीति की यही रीत है...हार के बाद ही जीत है’

यह भी राजनीति की एक रीत है कि चुनाव में हारने वाली पार्टी को झटके से उबरने के लिए एक ही रास्ता सूझता है और वह होता है हार पर मंथन। वह हमेशा की भांति खुद को चौराहे पर ही खड़ा पाती है। ऐसे ही झटके से उबरने के लिए नेता जी प्लान बना ही रहे थे कि मेरी पकड़ मे आ गए। वे सकपकाए कि अभी तो अगले चुनावों में बहुत समय है, इस आम और निकृष्ट जनता टाइप आदमी की पकड़ मे इतनी जल्दी कैसे आ गए! अपनी सकपकाहट को उन्होंने काले धन की तरह छिपाया। फिर जैसा कि आजकल महफिलों में कर रहे हैं, वे गुनगुनाने लगे, ‘राजनीति की यही रीत है...हार के बाद ही जीत है’ मैंने कहा, वाह! दैट्स द स्पिरिट नेता जी! करारी हार के बाद भी आप यों कोरोना की तरह सकारात्मक हैं। जनता चाहे या न चाहे, आप उसके होकर रहेंगे।’ इस बात पर वे लगभग रोते हुए हंसे। बोले, ‘बिल्कुल ठीक। जनता के लिए हम महामारी जैसे ही हैं। वह समझती है कि हम निकल लिए, लेकिन हम फिर भी चिपक लेते हैं। जनता से चिपके रहेंगे, तभी काला-सफेद माल हमसे चिपका रहेगा। और मान लो कि हारे हैं तो क्या दिल तो हमने ही जीता है न। वैसे भी हम न तो पहली बार हारे हैं और न आखिरी बार। यह कौन सी बड़ी बात हुई?’

‘बड़ी बात यह नहीं कि हम हार गए, बड़ी बात यह है कि हम हार मानने को तैयार नहीं'

वे कुछ पल के लिए मौन हुए। मैं पूछ बैठा, फिर बड़ी बात क्या है?’ वे किसी संतुष्ट शातिर की तरह हंसते हुए बोले, ‘बड़ी बात यह नहीं कि हम हार गए। बड़ी बात तो यह है कि हम यह मानने को तैयार नहीं कि हम हार गए। समझो। सुपरपावर देश के सुपरपावर नेता से भी आगे वाले नेता हैं हम। यह हार साजिश है हमारे खिलाफ। हो न हो, इसमे ‘पश्चिमी-विक्षोभ’ और ‘ईवीएम-विक्षोभ’ का घालमेल है...बस! और हम तो भाई कर्म करते हैं। फल-वल की चिंता जनता करती है, नेता नहीं। वैसे भी कहीं कहा गया है-कर्म ही तुम्हारा अधिकार है...उसके फलों पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं। तो जिस चीज पर अधिकार नहीं, वह हम क्यों मानें? कोई जीते, कोई हारे, हम तो अपना ‘कट’ खींच ही लेते हैं।’

जब तक जांच नहीं होती, हम नहीं मानेंगे कि हम हारे

‘तो अब आगे क्या?’ मैंने पूछा। वे बहकते हुए बोले, ‘नासमझ पैदा हुए थे तुम। अब तक वैसे ही हो। तभी जनता हो। तुम बताओ हादसे के बाद क्या होता है? मैंने कहा, ‘जांच होती है...बिना निष्कर्ष वाली।’ वे बोले, ‘बस वही...हम भी जांच की मांग कर रहे हैं कि हम हारे क्यों? जब तक जांच नहीं होती, हम नहीं मानेंगे कि हम हारे। अब यहां से निकलो। हमें भी हार पर मंथन के लिए निकलना है। इसी बहाने थोड़ी बाहर की हवा भी नसीब हो जाएगी।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]