[ संतोष त्रिवेदी ]: इन दिनों ‘लोकतंत्र’ और ‘सत्य’ लगातार खबरों में बने हुए हैं। इससे पुष्टि होती है कि ये दोनों अभी तक जीवित हैं। इसके बावजूद हर दूसरे दिन ‘लोकतंत्र की हत्या’ होने की मुनादी पिटती है, पर यह सशक्त लोकतंत्र का कमाल ही है कि वह अगले दिन सही-सलामत और दुरुस्त पाया जाता है। अचानक ‘लोकतंत्र की जीत’ होती है। कुछ ऐसा ही बेचारे ‘सत्य’ के साथ भी घटित होता है। जब भी लोकतंत्र को थोड़ी कमजोरी महसूस होती है, वह सत्य का टॉनिक पी लेता है। ‘सत्य’ स्वाभिमानी होता है। वह सदन से उठकर पांचसितारा होटलों में सुकून की सांस लेता है और तब तो ‘सत्य की जीत’ जरूर होती है जब किसी आरोपी को सहसा ‘न्याय’ मिल जाता है।

अदालतों की फाइलें नौ दिन में अढ़ाई कोस चलती हैं

अपना देश कोई आम लोकतंत्र नहीं है। जैसे देश का आखिरी आदमी मरते-मरते जी उठता है, ठीक वैसे ही अपना लोकतंत्र भी अंतिम सांस निकलने से पहले एकदम से चिहुंक उठता है। यह लोकतंत्र का चमत्कार ही है कि न्याय की आस में पीड़ित का दम निकलता है तो निकल जाए, पर ‘न्यायिक-व्यवस्था’ का बाल-बांका भी नहीं होता! दस साल में न्याय दस कदम भले न बढ़ पाए, मगर उसकी फाइलें नौ दिन में अढ़ाई कोस जरूर चल लेती हैं। अंधा होने के कारण कानून खुद नहीं देख पाता। इसीलिए व्यवस्था उसे ‘टॉर्च’ दिखाती है। वैसे ‘सत्य’ है भी बड़ा अनूठा। एक ही समय में वह सबके पास होता है। सबका अपना ‘सत्य’ होता है।

असत्य की नींव पर सत्य का झंडा

यहां नींव भले असत्य की हो, लेकिन उस पर झंडा सत्य का ही फहरता है। साधक को जो दिखता है, वह सत्य होता है। जो नहीं दिखता वही असल सत्य होता है। इसमें एक और खास बात है। वह यह कि सत्य हमेशा ‘सबल’ होता है। बलवान के पास ही रहता है। निर्बल तो सत्य को परेशान करने की जहमत भी नहीं उठाता। बाहुबलियों को अपने सत्य पर पूरा भरोसा होता है। परम ज्ञानियों ने इन्हीं वजहों से इसे अपना जीवन-वाक्य बनाया है। इसमें एक बात कि सत्य को हमेशा प्रिय पसंद है। अप्रिय सत्य दुखकारी होता है। इसीलिए साधुजन सदैव सत्य बोलते हैं।

हमारा मजबूत लोकतंत्र

महान लोगों के ‘सत्य’ को स्थापित करने में जिस घटक की खास भूमिका है, वह है लोकतंत्र। यह ऐसा अभेद्य कवच है जिसे कोई भेद नहीं सकता। बड़े-बड़े संकट ‘लोकतंत्र’ की छतरी के नीचे समाधान पाते हैं। ‘खतरे’ सदैव सुरक्षित होते हैं और फलते-फूलते भी हैं। इसीलिए हमारा लोकतंत्र अब तक मजबूत बना हुआ है। सड़क से संसद तक इसके जबरदस्त पैरोकार हैं। यह रैलियों और भाषणों का सार होता है। चुनावों में इसे बड़े आदर से पूजते हैं। बाद में श्रद्धापूर्वक इसका आचमन भी किया जाता है। ये बड़ा संवेदनशील होता है। जरा सी बात पर ‘हर्ट’ हो लेता है और बड़ी बात पर संज्ञा-शून्य।

‘लोकतंत्र’ और ‘न्याय’ में सीधी टक्कर

आजकल ‘प्राइम-टाइम’ की सारी बहस इसी पर टिकी हुई हैं। ऐसी ही एक बहस में लोकतंत्र का ‘आखिरी आदमी’ घुस गया। बड़ी मुश्किल से उसकी जान छूटी। वहां ‘लोकतंत्र’ और ‘न्याय’ में सीधी टक्कर चल रही थी। लोकतंत्र का कहना था कि ‘न्याय’ ने उसकी व्यवस्था में सीधा दखल दिया है जबकि उसे कुछ करने का नहीं, सिर्फ देखने का अधिकार है। यह उसकी ‘अति-सक्रियता’ है। ऐसे में लोकतंत्र कैसे चलेगा? ‘सत्य’ तो उसके साथ है। जीत भी उसी की होनी चाहिए। ऐसे ही चलता रहा तो अराजकता फैल जाएगी!

‘लोकतंत्र’ का लोक लुप्त हो रहा

इस पर ‘न्याय’ ने भी अपने तर्क दिए। हम कब तक मूकदर्शक बने रहेंगे? इंसान हमारी ओर टकटकी लगाए देख रहा है। अब तो पट्टी-बंधी इन आंखों में दर्द भी होने लगा है। ‘लोकतंत्र’ का लोक लुप्त हो रहा है। यह सुनकर सत्य ने बगल में बैठी ‘व्यवस्था’ को कोहनी मारी। वह जोर से हंसी। कहने लगी, ‘तुम सभी हमारे सहयोग के लिए बनाए गए हो। केवल काम करिए। सोचने का काम हमारा है। अगर हमें कुछ हुआ तो तुम एक भी नहीं बचोगे। रही बात आदमी की, यह सब उसके लिए नया नहीं है। ‘लोकतंत्र’ तो बना ही हम दोनों से है। इसके अलावा कुछ भी सत्य नहीं है।

बहस में भी हुई ‘लोकतंत्र की जीत’

हम तो शपथ भी सत्य की खाते हैं। इसके बाद खाने को कुछ बचता ही नहीं।’ सरेआम ऐसे सत्यवचन सुनकर सत्य भी शरमा गया। वह पानी-पानी होता, इससे पहले ही लोकतंत्र ने बचा लिया। बहस देखता आदमी सकते में था। तभी न्याय ने तनिक झेंपते हुए कुछ कहना चाहा, पर उसे अगली तारीख मिल गई। इस तरह बहस में भी ‘लोकतंत्र की जीत’ हुई।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार है ]