Article 370 पर व्यंग्य: मैं तो ‘नजरबंद’ हूं, राजनीति क्या खाक करें! एक देश, एक नेता’ का फार्मूला लागू
आप पार्टी से जुड़े हैं हम विचारधारा से। ‘धाराएं’ टूट रही हैं पर ‘विचार’ बचाना है। आप पार्टी बचाओ तभी राजनीति बचेगी। देश कहीं नहीं जा रहा उसे हम बचा लेंगे।
[ संतोष त्रिवेदी ]: इधर लगातार बुरी खबरें आ रही थीं। वे बड़ी उम्मीद से बैठे थे, पर उनका दिल बैठा जा रहा था। बार-बार वे घटनास्थल की ओर ताक रहे थे, पर उनके सिवा कुछ भी ‘घट’ नहीं रहा था। टीवी के रिमोट को लगातार घुमा रहे थे, पर उनका सिर घूमने लगा। ‘अनार-बाग’ से एक ‘अनार’ तक फूटने की आवाज नहीं आ रही थी। वे कुछ भी ‘इच्छित’ देख-सुन नहीं पा रहे थे। मन बड़ा बेचैन हो रहा था, मगर वहां अजीब सी शांति पसरी थी। इसी नामुराद शांति को वे मन ही मन कोसने लगे-‘अजी, शांति तो मरघट में भी होती है। यह भी कोई उपलब्धि हुई! शांति तो उनके ‘टैम’ में थी। और क्या खूब थी! केवल गोलियों और पत्थरों की आवाजें आती थीं। मजाल थी कि किसी का सुकून भंग हो! महीनों स्कूल बंद रहते थे, पर कभी लोकतंत्र पर रत्ती भर आंच नहीं आई। बम और बारूद के बाद भी ‘स्वर्गिक-सुख’ मिल रहा था। हर तरह की आजादी थी।’
दिनदहाड़े लोकतंत्र की हत्या
हमसे मिलते ही अपना दुखड़ा रोने लगे, ‘तुम अब भी कुछ नहीं बोलोगे? दिनदहाड़े लोकतंत्र की हत्या हुई है। कम से कम तरीका तो लोकतांत्रिक होता। लोग बंद हैं। खबरें बंद हैं। यहां तक कि हमारी राजनीति भी बंद है। अब तुम्हीं बताओ, ऐसे में कोई करे तो क्या करे? ठीक से भड़क तक नहीं पा रहे हैं।’ मामला गंभीर था। मैंने भी गंभीरता ओढ़ ली। विचार आने से पहले वैचारिक दिखना भी पड़ता है। मैंने कहा, ‘भई, मैं तो लेखक हूं। बयान नहीं विचार देता हूं।
धाराएं’ टूट रही हैं, ‘विचार’ बचाना है
आप पार्टी से जुड़े हैं, हम विचारधारा से। ‘धाराएं’ टूट रही हैं, पर ‘विचार’ बचाना है। आप पार्टी बचाओ, तभी राजनीति बचेगी। देश कहीं नहीं जा रहा, उसे हम बचा लेंगे। देश बचे, इसके लिए पहले ‘लोकतंत्र’ को बचाना है। इसीलिए हम अपनी ‘लाइन’ से टस-से-मस नहीं हुए। आपकी ‘राजनीति’ की तरह हम ‘छुट्टा’ नहीं हैं। खूंटे से बंधे हैं। अपनी नांद में ही मुंह मारते हैं। अब वैचारिक बने रहना इतना आसान नहीं रहा। कई बार ‘भूखा’ रहना पड़ता है। विचार शून्य होकर भी हम अपना अस्तित्व बचा रहे हैं। जैसे आप जो भी करते हो, ‘राजनीति’ होती है, वैसे ही हम जो भी लिखते हैं, ‘विचार’ होता है। सोचिए मत रणनीतिए।’ यह कहकर हमने उनमें संजीवनी भरी।
मैं तो ‘नजरबंद’ हूं, राजनीति क्या खाक करें!
वे बड़ी देर से कसमसा रहे थे। हमने उनके ‘हिस्से’ का समय भी ले लिया था। हमारे चुप होते ही बोल पड़े, ‘भई, मैं यह सब कैसे देख सकता हूं। मैं तो ‘नजरबंद’ हूं। पहले ‘उनका’ आतंक नहीं देख पाया, अब इनकी ‘शांति’ नहीं देख पा रहा हूं। राजनीति क्या खाक करें! क्या खाकर करें? कानून भी तो कुछ नहीं बोल रहा। उसका भी तो कोई ‘पहलू’ होगा?’
सबके अलग-अलग ‘पहलू’
‘सबके अपने ‘पहलू’ हैं। तुम्हारा अलग है, हमारा अलग। कानून का भी है। सब अपनी रोशनी में देखते हैं। ‘पहलू’ तो बस फुटबॉल की तरह इधर-उधर होता रहेगा। हमें भी उसी का आसरा है। जरूरत इस बात की है कि हम दोनों एक रहें।’ हमने बिल्कुल नेक सलाह दी।
एक देश, एक कानून या ‘एक देश, एक नेता’
यह सुनते ही उनकी हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ गई। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। वे फिर बोलने लगे, ‘सारी समस्या की जड़ यही ‘एक’ है। वे सब कुछ ‘एक’ करने में तुले हैं। उनके ऊपर ‘एक देश, एक कानून’, एक देश, एक चुनाव’,‘एक देश, एक पार्टी’ की रट सवार है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो बात ‘एक देश, एक नेता’ तक पहुंच जाएगी। फिर न हम बचेंगे, न हमारी बची हुई पार्टी। हमारे सामने मुश्किल है कि इन सबके बीच ‘देश’ घुसा है। यह सरासर ज्यादती नहीं तो और क्या है?’ तभी एक चैनल से चीखने की आवाज सुनाई देने लगी। लग रहा था कि बेचारा एंकर भी कुछ समय से ठीक से चिल्ला नहीं पाया था। उनकी आंखें चमक उठीं। हमने भी अपनी निगाह गड़ा दी। पड़ोसी देश से खबर आ रही थी।
पड़ोसी देश बोल उठा- एक हो जाओ, इसी में भलाई है
वहां का नेता माइक के आगे इकबालिया बयान दे रहा था, ‘वे कुछ भी कर सकते हैं। पहले से भी ‘बड़ा’ हो सकता है। वे हमारे यहां घुस सकते हैं। अब जेहाद के लिए तैयार रहो।’ यह सुनकर उनका सारा जोश ठंडा पड़ गया। स्थिति को हमने भी ताड़ लिया। ‘संदेह’ अब ‘सबूत’ बन गया था। कुछ देर वे सन्नाटे में रहे। उनके होश में आने से पहले हमें होश आ गया। हमने तुरंत चैनल बदल दिया। वहां ‘ब्रेकिंग न्यूज’ थी। जिस ‘गुप्त बैठक’ से पड़ोसी देश को उम्मीद थी, वह गुप्त ही रही। होश में आते ही वे बोल उठे-‘एक हो जाओ, इसी में भलाई है।’ ऐसा नहीं किया तो फिर से होश उड़ जाएंगे।
[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]