अवधेश कुमार। समझौता एक्सप्रेस विस्फोट कांड में विशेष न्यायालय के फैसले पर आ रही विरोधी प्रतिक्रियाएं बिल्कुल अपेक्षित हैं। जो यह मानकर चल रहे थे या जिन्होंने यह साबित करने की कोशिश की थी कि मालेगांव, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद आदि में हुए विस्फोटों र्में हिंदू संगठन से जुड़े तत्वों का हाथ था उनका इनसे संबंधित फैसलों से निराश होना स्वाभाविक है।

वस्तुत: यर्ह हिंदू आतंकवाद शब्द गढ़ने वालों की पराजय है। न्यायालय के फैसलों को देखते हुए हमें मान लेना चाहिए कि पिछले सालों र्में हिंदू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद का जो मुहावरा गढ़ा गया उसके पीछे केवल राजनीतिक दुर्भावना काम कर रही थी। असीमानंद सहित कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा आदि उसी के शिकार थे। कुछ भी टिप्पणी करने के पहले न्यायालयों के फैसले को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। जिन तीन प्रमुख मामलों का फैसला आया है वे तीनों 2007 में ही घटे थे। असीमानंद तीनों मामलों में निर्दोष साबित हुए। अंतिम मामला समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट का है। भारत और पाकिस्तान के बीच सप्ताह में दो दिन चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में 17 और 18 फरवरी की रात में विस्फोट हुआ था, जिसमें 68 लोग मारे गए थे। मरने वालों में 44 पाकिस्तानी थे। 18 मई 2007 को हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट में 9 लोग मारे गए थे। अजमेर स्थित सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह परिसर में 11 अक्टूबर, 2007 को आहता ए नूर पेड़ के पास हुए बम विस्फोट में तीन लोग मारे गए थे।

समझौता विस्फोट मामले में असीमानंद के साथ कमल चौहान, राजिंदर चौधरी और लोकेश शर्मा भी आरोपी थे। पंचकुला के विशेष न्यायालय ने फैसले में कहा कि एनआइए आरोपितों के खिलाफ आरोपों को साबित करने में विफल रही। मामले में 299 गवाह थे और उनमें से 224 गवाहों से पूछताछ की गई। 51 गवाहों ने आरोप लगाया कि एनआइए ने उन्हें धमकी देकर जबरन मनमाना बयान दिलवाया। न्यायालय ने पाकिस्तानी गवाहों को पेश होने के लिए भी कई बार मौका दिया, लेकिन कोई हाजिर नहीं हुआ। सुनवाई पूरी होने के बाद जब फैसला सुनाना था तो पाकिस्तान के हफीजाबाद जिले के निवासी एवं विस्फोट का शिकार हुए मोहम्मद वकील की बेटी राहिला वकील ने 11 मार्च को न्यायालय में वकील मोमिन मलिक के माध्यम से अपने देश के चश्मदीदों की गवाही दर्ज किए जाने की अपील की। समझौता एक्सप्रेस ट्रेन में पीड़ित होने का दावा करने वाले पाकिस्तानी नागरिक अनिल सामी ने भी वकील मोमिन मलिक को वीडियो और पत्र लिखा जिसमें विस्फोट के आरोपियों को पहचानने का दावा किया।

न्यायालय ने सुनवाई के बाद कहा कि इन याचिकाओं का उद्देश्य केवल प्रचार पाना है इसलिए वे स्वीकार करने लायक नहीं। पानीपत के दिवाना रेलवे स्टेशन के पास समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट हुआ था। पुलिस को मौके से दो बमयुक्त सूटकेस मिले, जिनमें विस्फोट नहीं हुआ था। जांच में बताया गया कि ये इंदौर के एक बाजार से खरीदे गए थे। हरियाणा सरकार ने मामले की जांच के लिए एक एसआइटी बनाई। धमाके के एक महीने बाद हरियाणा पुलिस ने इंदौर से दो संदिग्धों को गिरफ्तार किया। पुलिस ने दावा किया कि सूटकेस कवर के जरिये वह आरोपियों तक पहुंचने में कामयाब रही। केंद्र सरकार ने 26 जुलाई, 2010 को मामला एनआइए को सौंप दिया। असीमानंद को इसके बाद ही आरोपी बनाया गया। एनआइए ने 26 जून, 2011 को पांच लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया। इसमें नाबा कुमार उर्फ असीमानंद, सुनील जोशी, रामचंद्र कालसंग्रा, संदीप डांगे और लोकेश शर्मा का नाम था। इस मामले के मूल आठ आरोपी बनाए गए जिनमें से एक की हत्या हो चुकी है और तीन को भगोड़ा घोषित किया जा चुका है।

आरंभ में विस्फोट के पीछे लश्कर-ए- तैयबा का हाथ माना गया था। मक्का मस्जिद में भी लश्कर का ही नाम आया था। स्थानीय पुलिस ने गिरफ्तारी भी की, किंतु एनआइए के हाथ में आते ही जांच की दिशा बदल गई। यह बताया गया कि समझौता एक्सप्रेस की तरह ही हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह और मोदासा-मालेगांव में भी हुए धमाकों के तार आपस में जुड़े हैं। इसमें अभिनव भारत संगठन का नाम लिया गया। पहले आरोप पत्र में कहा गया र्कि हिंदू संगठनों से जुड़े लोग अक्षरधाम , रघुनाथ मंदिर, संकट मोचन मंदिरों में हुए हमलों से दुखी थे और बम का बदला बम से लेना चाहते थे।

असीमानंद को इस पूरी साजिश का मुख्य सूत्रधार बनाया गया। एनआइए के अनुसार उसी ने वैचारिक रूप से सबको तैयार किया और संसाधन की व्यवस्था की। हैदराबाद के विशेष न्यायालय में मक्का मस्जिद विस्फोट मामले की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने आरएसएस को लेकर एनआइए द्वारा रखे गए तर्क को खारिज करते हुए कहा था कि यह कोई गैरकानूनी रूप से काम करनेवाला संगठन नहीं है। अगर कोई व्यक्ति इसके लिए काम करता है तो इसके कारण उसका सांप्रदायिक या असामाजिक होना साबित नहीं होता। इससे पहले 8 मार्च, 2017 को जयपुर के न्यायालय ने अजमेर विस्फोट कांड में भी असीमानंद के साथ हर्षद सोलंकी, मुकेश वासाणी, लोकेश शर्मा, मेहुल कुमार, भरत भाई को भी बरी किया था। 23 सितंबर, 2008 को हुए मोदासा विस्फोट में एनआइए ने क्लोजर रिपोर्ट लगा दी थी जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

ध्यान रखिए जयपुर के इसी विशेष न्यायालय ने अजमेर विस्फोट मामले में तीन को दोषी करार देकर सजा दी थी। आखिर इसका क्या मतलब कि पांच को बरी करने पर सवाल उठाया जाए और तीन को सजा देने को नजरअंदाज कर दिया जाए? इस मामले में 149 गवाहों में से कई ने यह कहा था एनआइए ने उनसे जबरदस्ती बयान दिलवाए। मालेगांव विस्फोट मामले में भी ज्यादातर गवाहों ने एनआइए पर दबाव डालकर बयान लेने के आरोप लगाए हैं। चार वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय ने कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा पर मकोका लगाए जाने को गलत करार दिया था।

मोदासा और मालेगांव से लेकर समझौता, मक्का मस्जिद, अजमेर कांडों में गवाहों ने एनआइए के व्यवहार का जैसा विवरण न्यायालय में प्रस्तुत किया उससे सीधा निष्कर्ष निकलता है कि जांच एजेंसी को इससे मतलब ही नहीं था कि विस्फोटों का असली अपराधी कौन है? वह किसी तरह यह स्थापित करना चाहती थी र्कि हिंदू संगठनों से जुड़े लोगों ने संगठित होकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया।

अजमेर विस्फोट कांड में अवश्र्य हिंदू संगठन से जुड़े लोगों का हाथ था, लेकिन इसे विचारधारा आधारित संगठित अपराध नहीं कहा जा सकता है। हालांकि समझौता एक्सप्रेस और मक्का मस्जिद मामले में यह प्रश्न तो अनुत्तरित रह ही गया कि मौतों के लिए जिम्मेदार कौन हैं? उसकी जांच तो होनी ही चाहिए, लेकिन एनआइए के गैर जिम्मेदार अधिकारियों पर भी मुकदमा चलना चाहिए ताकि पता चले कि उन्होंने किस स्थिति में ऐसा किया।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं)