[ राजीव सचान ]: कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने किसानों को राहत देने के लिए लाए गए विधेयकों के खिलाफ वैसा ही अभियान छेड़ दिया है, जैसा उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ छेड़ा था। उस कानून के खिलाफ लोगों को बरगलाने के लिए छल-कपट और झूठ का जमकर सहारा लिया गया था। लोगों और खासकर मुस्लिम समुदाय को बरगलाने के लिए यहां तक कहा गया कि यह कानून उनकी नागरिकता छीनने का काम करेगा। इस अभियान में मीडिया का एक हिस्सा भी शामिल हो गया था और कई कथित बुद्धिजीवी भी इस कानून के खिलाफ जहर उगलने लगे थे। मुस्लिम समुदाय को सड़कों पर उतारकर हिंसक तौर-तरीकों का सहारा लिया जाने लगा था।

विपक्ष ने सीएए के खिलाफ मुस्लिमों को बरगलाकर पूरे देश में धरना-प्रदर्शन और सड़के बाधित की थीं

धरना-प्रदर्शन और सड़कों को बाधित करने का सिलसिला देश भर में कायम हो गया था। बंगाल में रेलें जलाई गईं तो देश के दूसरे हिस्सों में सरकारी-गैर सरकारी वाहन। इसके साथ ही पुलिस पर हमले किए गए। देश की राजधानी दिल्ली में शाहीन बाग नामक इलाके में सड़क पर कब्जा कर लिया गया, जो करीब सौ दिन तक जारी रहा। इसके चलते दिल्ली-एनसीआर के लाखों लोग परेशान होते रहे। प्रदर्शनकारियों और उनके समर्थकों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो उसने सड़क खाली कराने के स्थान पर सड़क पर कब्जा करके बैठे लोगों से बात करने के लिए वार्ताकार नियुक्त कर दिए। इससे सड़क पर कब्जा करने वालों का दुस्साहस और बढ़ा, क्योंकि वार्ताकारों की नियुक्ति ने सड़क पर कब्जे को एक किस्म की वैधानिकता प्रदान कर दी।

विपक्ष ने सीएए के खिलाफ मुस्लिम समाज को बरगलाने का काम किया

आखिरकार जब कोरोना का कहर बढ़ने लगा तो दिल्ली पुलिस ने शाहीन बाग को खाली कराने का वह काम किया, जो उसे पहले दिन करना चाहिए था। हालांकि सरकार यह कहती रही कि नागरिकता संशोधन कानून का देश के किसी नागरिक से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन मुस्लिम समाज को बरगलाने में जुटे लोग तरह-तरह के कुतर्क देकर यही राग अलापते रहे कि यह कानून उनके खिलाफ ही है।

यदि कोरोना ने दस्तक न दी होती तो शायद शाहीन बाग आज भी प्रदर्शनकारियों के कब्जे में होता

यदि कोरोना ने दस्तक न दी होती तो शायद शाहीन बाग आज भी प्रदर्शनकारियों के कब्जे में होता। इस अंदेशे की एक वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि प्रदर्शन और सड़क पर चलने के अधिकार में संतुलन बनाने की जरूरत है। इसका ठीक-ठीक क्या मतलब है, यह फैसला सामने आने पर ही पता चलेगा।

कृषि विधेयकों के विरोध के लिए सीएए वाले तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं

पता नहीं उसका फैसला क्या होगा, लेकिन इस पर गौर करने की जरूरत है कि कृषि विधेयकों के विरोध के लिए भी वही तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं, जो सीएए के खिलाफ अपनाए गए थे। ये विधेयक किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों के वर्चस्व से बचाने के लिए हैं, लेकिन विपक्षी दल उन्हें यह समझा रहे हैं कि उपज बेचने की वही व्यवस्था ठीक थी, जिसमें इन दोनों का आधिपत्य रहता था। एक तरह से किसानों को यह बताया जा रहा है कि जो उनके शोषण में सहायक बन रहे थे, वही उनके मददगार हैं। एक नया शोशा यह छोड़ा गया है कि सरकार इन विधेयकों के जरिये अनाज खरीद की एमएसपी व्यवस्था खत्म करने जा रही है। यह ठीक वैसा ही शोशा है जैसा नागरिकता संशोधन कानून के मामले में इस दुष्प्रचार के जरिये छोड़ा गया था कि इससे मुसलमानों की नागरिकता चली जाएगी।

कृषि विधेयकों को सीएए की तरह सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है

चूंकि इधर एक नया चलन यह बन गया है कि सरकार के हर फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है, इसलिए नागरिकता संशोधन कानून के मामले में भी दी गई और दो-चार, दस-बीस नहीं, करीब डेढ़ सौ याचिकाएं दाखिल कर दी गईं। हैरत नहीं कि कृषि विधेयकों के कानून का रूप लेते ही उनके खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं का ढेर लग जाए। केरल सरकार ने अपने विधि विभाग को यह कह ही दिया है कि इन प्रस्तावित कानूनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की संभावनाएं तलाशे। इस तरह की संभावनाएं तमाम अन्य लोग और खासकर प्रशांत भूषण जैसे वकील भी तलाश रहे होंगे। उन्होंने कहा भी है कि राज्यसभा में कृषि विधेयकों को जिस तरह पारित कराया गया, उसके खिलाफ विपक्ष को सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए। अभी तक का अनुभव यही कहता है कि अगर उनकी यह सलाह नहीं सुनी गई तो यह काम वह खुद कर सकते हैं। बड़ी बात नहीं कि सुप्रीम कोर्ट में राज्यसभा के सभापति और उपसभापति के अधिकारों को भी चुनौती दे दी जाए।

विरोध के नाम पर विरोध की प्रवृत्ति अंधविरोध का रूप लेती जा रही

पता नहीं आगे क्या होगा, पर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विरोध के नाम पर विरोध की प्रवृत्ति अंधविरोध का रूप लेती जा रही है। अंधविरोध की इसी खतरनाक प्रवृत्ति के चलते कुतर्कों के साथ झूठ का सहारा बड़ी बहादुरी के साथ लिया जाना आम हो गया है। राज्यसभा में जिन सदस्यों ने हद दर्जे का हंगामा किया और जिसके चलते निलंबन की चपेट में आए, वे खुद को पीड़ित बताने के लिए हरसंभव जतन कर रहे हैं और इस क्रम में इसका जिक्र करने से बच रहे हैं कि वे पीठासीन अधिकारी के सामने मेज पर चढ़कर नारेबाजी करने के साथ धक्कामुक्की भी कर रहे थे।

कांग्रेस और वामदलों के सांसद एक सुर में बोल रहे हैं, सरकार विपक्ष की आवाज दबा रही

निलंबित सांसदों में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के अलावा वामपंथी दलों के भी सदस्य हैं। उनकी मानें तो सरकार विपक्ष की आवाज दबा रही है। यह चोरी और सीनाजोरी का सटीक उदाहरण है। इस मामले में कांग्रेस और वामदलों के सांसद एक साथ हैं और एक सुर में बोल रहे हैं, लेकिन 2015 में केरल विधानसभा में बजट पेश किए जाते समय विपक्षी विधायकों के हंगामे से आजिज आकर तत्कालीन सरकार ने उनके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी थी। यह रिपोर्ट इसलिए दर्ज कराई गई थी, क्योंकि हंगामा मचा रहे विधायकों ने अध्यक्ष के आसन के साथ कुर्सियां और माइक तोड़ डाले थे। तब सत्ता में कांग्रेस थी और विपक्ष में वामदल। आज दोनों दल मिलकर हंगामा मचाने की पैरवी कर रहे हैं और हुड़दंगी सांसदों के निलंबन पर कह रहे हैं कि लोकतंत्र खत्म होने को है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )

[ लेखक के निजी विचार हैं ]