नई दिल्ली (राजकिशोर)। हमारे देश की राजनीति हास्यास्पद होने के बाद अब फूहड़ता के स्तर पर पहुंचती नजर आ रहा है। जब उत्तर प्रदेश में एक योगी को मुख्यमंत्री बनाया गया तो इस पर आश्चर्य जरूर हुआ था, परंतु यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी। आदित्यनाथ बहुत दिनों से राजनीति में हैं। 1998 में वह पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए और उसके बाद लगातार चार बार चुनाव जीतकर सांसद बने।

जब उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए चुना गया, उस समय भी वह सांसद ही थे, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार ने पांच साधुओं को राज्यमंत्री का दर्जा देकर एक विचित्र काम किया है। इसके पहले साधुओं या साध्वियों को मंत्री तो बनाया गया है, लेकिन सरकार में शामिल किए बिना एक साथ पांच साधुओं को राज्यमंत्री का दर्जा दे देना एक नई बात जरूर है। जाहिर है, इन साधुओं को कुछ नए अधिकार मिल जाएंगे, लेकिन इनकी जिम्मेदारी में कोई विशेष वृद्धि नहीं होगी।

इस पर मध्य प्रदेश सरकार का कहना है कि साधुओं का सम्मान करने के लिए तथा प्रशासन में जन भागीदारी को बढ़ाने के लिए यह असाधारण कदम उठाया गया है। लेकिन तथ्य कुछ और ही कहते हैं। जिन पांच साधुओं को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया हैं, उनके नाम हैं नर्मदानंद महाराज, हरिहरानंद महाराज, कंप्यूटर बाबा, भय्यू जी महाराज एवं पंडित योगेंद्र महंत। इसकी घोषणा 31 मार्च को हुई। इसके पहले 28 मार्च को इंदौर में संत समाज की एक बैठक हुई थी जिनमें इन पांचों की प्रमुख भूमिका थी। बैठक में सरकार के इस दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया कि राज्य के 45 जिलों में नर्मदा किनारे साढ़े छह करोड़ पौधे लगाए गए हैं।

सरकार द्वारा यह दावा पिछले साल जुलाई में किया गया था। संतों का कहना था कि यह मामला धोखाधड़ी का है और इससे बहुत ही कम पौधे लगाए गए हैं। संतों ने सरकार के इस दावे को महाघोटाले की संज्ञा दी और फैसला किया कि हम नर्मदा किनारे घूम घूमकर पौधों की गिनती करेंगे। उन्होंने इस यात्रा को नर्मदा घोटाला रथ यात्रा का नाम दिया।

चूंकि इस यात्रा की घोषणा होते ही मुख्यमंत्री को लगा कि पूरे राज्य में नर्मदा के किनारे बहुत बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण की जिस योजना को सफल बताया जा रहा था, उसकी पोल खुलने ही वाली है। लिहाजा दो दिन बाद ही 31 मार्च को राज्य सरकार ने आदेश निकाला कि प्रदेश के विभिन्न चिन्हित क्षेत्रों में, विशेषकर नर्मदा किनारे के क्षेत्रों में वृक्षारोपण, जल संरक्षण तथा स्वच्छता के विषयों पर जन जागरूकता का अभियान निरंतर चलाने के लिए विशेष समिति गठित की गई है। राज्य सरकार ने इस समिति के पांच विशेष सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्जा प्रदान किया है। इस तरह उन पांचों विद्रोही साधुओं को वे सभी सुख-सुविधाएं दे दी गईं जो सरकार के एक राज्यमंत्री को मिलती हैं।

कांग्रेस ने जब इन नियुक्तियों की आलोचना की तब भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल ने कहा कि कांग्रेस को संतों से संबंधित कोई भी मामला पसंद नहीं आता। वह हमेशा साधु-संतों का विरोध करती है। साधु-संतों को राज्यमंत्री का दर्जा इसलिए दिया गया है ताकि नर्मदा के संरक्षण कार्य में जनता की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके। भाजपा प्रवक्ता का तर्क समझ में आना मुश्किल है।

सत्तारूढ़ पार्टी की नजर में क्या साधु संत ही जनता हैं? जिन साधुओं को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है, क्या उनका ऐसा कोई इतिहास है कि नर्मदा के संरक्षण में उन्होंने कोई दिलचस्पी ली हो? मध्य प्रदेश सरकार साधुओं से इसलिए डर गई, क्योंकि वे उसे डराना चाहते थे। इसका सुबूत भी तुरंत मिल गया। जैसे ही पांचों साधुओं को राज्यमंत्री का दर्जा मिला, उन्होंने नर्मदा घोटला रथ यात्रा को स्थगित करने की घोषणा कर दी। यानी अब वे आराम से तमाम सुख-सुविधाओं के साथ तय करेंगे कि नर्मदा के किनारे घोषित संख्या में वृक्षारोपण हुआ है या नहीं। यह बात समझ में आती है कि नर्मदा के संरक्षण में जन सहयोग प्राप्त किया जाए। सच तो यह है कि इस तरह के कार्य बिना जन सहयोग के संभव ही नहीं हैं, लेकिन जन सहयोग दोहरे स्तर पर हो सकता है।

एक तो स्थानीय नगरपालिकाओं और पंचायतों को इस पुनीत कार्य में शामिल किया जाए। राज्य सरकार की अपेक्षा स्थानीय निकायों को ज्यादा पता होता है कि जमीनी स्थिति क्या है। कायदे से तो यह उन्हीं का कर्तव्य होना चाहिए। यह उनकी कार्यसूची में भी है। जन सहयोग लेने का दूसरा तरीका यह हो सकता है कि प्रत्येक जिले में जागरूक और सक्रिय नागरिकों की समितियां बनाई जाएं और उन्हें सरकारी योजनाओं पर अमल के पर्यवेक्षण का दायित्व सौंपा जाए। यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि इन समितियों की रिपोर्ट पर कार्रवाई भी हो। अक्सर देखा जाता है कि नागरिक समितियां तो बन जाती हैं, परंतु उनकी कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसे में उनका होना न होना बराबर हो जाता है।

बेशक साधु-संत हमारे लिए सम्माननीय हैं, लेकिन उनका काम सरकार चलाना या सरकारी सुख-सुविधाओं का उपभोग करना नहीं है। वे एक तरह से समाज के मार्गदर्शक होते हैं, लेकिन मार्गदर्शन का कार्य राज्यमंत्री की सुख-सुविधाएं प्राप्त किए बिना भी हो सकता है। बल्कि यह कहिए कि ये सुख-सुविधाएं प्राप्त किए बिना ही हो सकता है। समाज में साधु-संतों का विशेष स्थान है। वे जो उपदेश देते हैं, वे धार्मिक लोगों को मान्य होते हैं, लेकिन यह काम भी उपदेशक का ही है कि वह देखे कि लोग सिर्फ श्रद्धा व्यक्त करने आते हैं या कुछ सीखने और उस पर अमल करने के लिए भी आते हैं।

समाज में पाखंड स्थापित करना या उसकी वृद्धि धर्म पुरुषों का काम नहीं है। जहां तक मध्य प्रदेश सरकार की बात है, उसका यह कदम निश्चय ही आलोचना के योग्य है। राजनीति में सांसदों, विधायकों और समर्थकों को लालच देकर अपनी ओर कर लेने की परंपरा बहुत दिनों से चली आई है। हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने सिर्फ इस परंपरा का लाभ उठाया है, लेकिन मंत्री पद का जाल साधुओं को लुभाने के लिए भी फेंका जा सकता है, यह अभी तक अकल्पनीय था। जनता से लिए जाने वाले टैक्स का पैसा इस तरह की राजनीतिक हरकतों वाले लोकलुभावनवाद में खर्च किया जाए तो यह सत्ता का भौंडा दुरुपयोग ही कहा जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)