[एनके सिंह]। इसी साल जनवरी में एक ब्रिटिश मंत्री लार्ड माइकेल बैट्स ने सदन में कुछ मिनट की देरी से पहुंचने पर यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया कि सदन में प्रश्नकर्ता को जवाब देने के लिए वह निश्चित समय पर नहीं पहुंच सके और यह एक तरह की अशिष्टता है। कई सदस्यों और मंत्रियों ने उन्हें ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया, लेकिन वह अपने फैसले से नहीं डिगे। आज से लगभग 90 साल पहले ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री राम्से डोनाल्ड की सरकार को इस बात पर इस्तीफा देना पड़ा था कि राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति से आपराधिक मुकदमा उठाने का फैसला लिया गया था।

मुंडकोपनिषद का श्लोक ‘सत्यम एव जयते न अनृतम’ यानी सत्य की ही जीत होती है, असत्य की नहीं’ भारत का ध्येय वाक्य है, लेकिन शायद केवल शाब्दिक रूप में। हाल में जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आए और भाजपा को सबसे ज्यादा 104 सीटें मिलीं तो वह एक सत्य था, लेकिन जब 78 सीटों वाली कांग्रेस ने मात्र 38 सीटें जीतने वाले जनता दल-सेक्युलर के नेता कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला बनाया तो सत्य ने अचानक अपना रूप बदल लिया। कुछ ही समय बाद संविधान के अभिरक्षक, परिरक्षक और संरक्षक के रूप में राज्यपाल वजूभाई वाला ने सत्य को दूसरा रूप दे दिया। उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता बीएस येद्दयुरप्पा को शक्ति परीक्षण का लंबा समय देकर और अगले 24 घंटों में शपथ दिलवा कर एक तरह से सत्य की दिशा ही मोड़ दी।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने शक्ति परीक्षण की समय सीमा को 15 दिन से घटाकर 28 घंटे कर दिया और इसी फैसले के साथ सत्य ने एक बार फिर पलटी मारी। जब कांग्रेस और जद-एस के विधायकों पर भाजपा का कोई बस नहीं चला तो मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा को अंतिम सत्य रूपी शक्ति परीक्षण का सामना किए बगैर पद छोड़ना पड़ा। सोचने की बात यह है कि अगर सत्य की ही जीत होती है तो क्या सत्य भी काल-सापेक्ष होता है? 19 मई 2018 को दो बजे तक का सत्य कुछ और था और जब विधायक पाला नहीं बदल पाए या फिर उन्हें इसका अवसर नहीं मिला तो सत्य बदल भी गया। अगर कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय नहीं जाती तो शायद सत्य का स्वरूप कुछ और होता। अगर भाजपा विरोधी दलों के विधायकों का सुरक्षा कवच तोड़ पाती तो सत्य कुछ और हो सकता था।

इस पर भी ध्यान दें कि अगर कांग्रेस जिस दल यानी जद-एस के खिलाफ तमाम आरोप लगाते हुए जनता के वोट हासिल कर 78 सीटें ले आई उसी के नेता के हाथ प्रदेश की बागडोर देने की हद तक न गई होती तो भी सत्य कुछ और होता। इसी तरह अगर भाजपा नैतिकता के आधार पर यह कहती कि जनता ने हमें पूर्ण बहुमत नहीं दिया है लिहाजा हम सरकार बनाने का दावा नहीं पेश करेंगे तो सत्य कुछ और रंगत लिए हुए दिखता। इस अंतिम विकल्प का मतलब यह नहीं कि भाजपा का सत्य (यहां पर सत्ता) पाने के प्रति कोई आग्रह नहीं होता, बल्कि यह एक शुद्ध रणनीति होती कि कुमारस्वामी को भी राज्यपाल संविधान रक्षा की अपनी जिम्मेदारी के तहत 15 दिन का समय दें। इस दौरान भाजपा के रणनीतिकार ‘सत्य की खोज’ में गुपचुप रूप से पूरी तल्लीनता के साथ लगकर कांग्रेस और जद-एस के विधायकों को अपने पाले में लाकर शक्ति परीक्षण में सरकार गिरा सकते थे, मगर शायद उसके रणनीतिकारों का ‘सत्य के प्रति आग्रह’ इतना प्रबल था कि वे अपने ‘सत्याग्रह’ को रोक नहीं पाए और कई घुमाव के बाद आखिरकार सत्य उनके हाथ आते-आते रह गया। वैसे भी ‘अंतरात्मा की आवाज’ मात्र 28 घंटे में नहीं जगती।

यह किसी से छिपा नहीं कि कई वादे और उन पर भरोसे के साथ-साथ नकदी का आदान -प्रदान भी आत्मा जगाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। आखिर हम यह क्यों मान लें कि येद्दयुरप्पा का इस्तीफा ही मूल सत्य है। अभी तो उन्हीं की तरह कुमारस्वामी की सरकार का भी शक्ति परीक्षण बाकी है। कार्यकर्ताओं के स्तर पर अभी से ही कांग्रेस और जद-एस के बीच झगड़े शुरू हो गए हैं। पता नहीं कि ये झगड़े बढ़ेंगें या घटेंगे, लेकिन थोड़ा इंतजार करने पर भाजपा को फिर से सच को पलटने का मौका मिल सकता है और वह नैतिकता के तराजू पर भी खरा उतर सकता है। 15 मई को यानी कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजों के दिन हमारे पास तीन मूल ‘सत्य’ थे। पहला-भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, परंतु स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाई। दूसरा, कांग्रेस सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद मतों में भाजपा से 1.8 प्रतिशत ज्यादा रही, लेकिन संविधान का सत्य तो सदस्यों की संख्या के आधार पर होता है, जो उसके पास नहीं थी। तीसरा, जद-एस का तीसरे नंबर पर रहना, लेकिन 38 सदस्य वाली इसी जद-एस ने 78 सदस्य वाली कांग्रेस के साथ मिलकर सत्य को बड़ी आसानी से दबोच लिया और इस तरह सत्यमेव जयते नानृतम का मतलब कई बार बदलते हुए फिलहाल इस तर्क वाक्य में समाहित हो गया कि ‘जो जीता वही सत्य’ है।

अब्राहम लिंकन का प्रजातंत्र ‘जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन’ था। भारत में यह अवधारणा शायद एक नए दौर से गुजर रही है। इसमें जनता वोक्कालिगा, लिंगायत, दलित, सवर्ण, हिंदू, मुसलमान, अल्पसंख्यक का पर्याय हो गई है। हमारे यहां सरकार का गठन भी कई कारणों पर निर्भर करने लगा है। कई बार जनादेश कुछ होता है, लेकिन सरकार कोई और बनाता है। भारत में जनादेश की मनचाही व्याख्या करने की भी सुविधा है और यह कहने की भी कि सब कुछ जनता की इच्छानुसार ही रहा है या फिर जनहित इसी में है। यह सब आज से नहीं, बल्कि गणतंत्र बनाने के बाद से ही जारी है। ध्येय वाक्य भले ही सत्यमेव जयते हो, लेकिन प्रचलन में जो जीता वही सच है। शायद लिंकन के समय के कुछ भारतीय और अंग्रेज विद्वानों को प्रजातंत्र की परिभाषा बदलने की भारत के समाज की क्षमता का भान था और इसीलिए वे यह कहते रहे कि ब्रिटिश संसदीय प्रणाली भारत के लिए अभी उपयुक्त नहीं है, लेकिन तत्कालीन नेताओं की जिद के तहत वही व्यवस्था अपनाई गई। हमने संसदीय प्रारूप तो ब्रिटिश ले लिया, लेकिन उसे चलाने के लिए जो व्यक्तिगत और सामूहिक नैतिक संबल चाहिए था वह नदारद रहा।

(लेखक ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के सदस्य एवं स्तंभकार हैं)