Russia Ukraine War: पुतिन की धमकी से समरनीति और कूटनीति के गलियारों में खलबली
पुतिन की धमकी का मतलब यही निकाला जा रहा है कि वह लड़ाई खत्म करने के लिए लड़ाई बढ़ाने की रणनीति पर चल रहे हैं। यह राष्ट्रीय प्रभुसत्ता और अखंडता के सिद्धांत पर खड़े संयुक्त राष्ट्र चार्टर की बुनियाद और नियम आधारित व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
शिवकांत शर्मा। इस सप्ताह मोल्दोवा और यूक्रेन की सीमा पर स्थित रूसी प्रांत ट्रांसनिस्टिया में और यूक्रेन की उत्तरी सीमा से लगे रूसी शहर बेल्गोरोद के शस्त्रगार में धमाके हुए। अनुमान है ये धमाके यूक्रेनी सेना की मिसाइलों से हुए। यूक्रेन ने तो इस अनुमान की पुष्टि नहीं की, पर पुतिन ने रोषभरी धमकी देते हुए कहा, ‘जो भी तीसरा देश लड़ाई में हस्तक्षेप करेगा और हमारे लिए सामरिक खतरे खड़े करेगा, उसे बिजली जैसा कड़क जवाब दिया जाएगा।’ उन्होंने अपनी धमकी को स्पष्ट करते हुए कहा कि हमारे पास ऐसे शस्त्रस्त्र हैं, जिनके होने का दावा कोई और नहीं कर सकता और जरूरत पड़ी तो हम उनका प्रयोग करने से नहीं चूकेंगे। पुतिन की धमकी से समरनीति और कूटनीति के गलियारों में खलबली सी मच गई है।
समरनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि यूक्रेन युद्ध के किसी भी मोर्चे पर अपेक्षित कामयाबी न मिलने से पुतिन बिफर गए हैं। उनकी धमकी का मतलब यही निकाला जा रहा है कि वह लड़ाई खत्म करने के लिए लड़ाई बढ़ाने की रणनीति पर चल रहे हैं। यदि नाटो देशों ने यूक्रेन सेना को नए हथियार देना जारी रखा तो वह सीमित दायरे में मार करने वाले टैक्टिकल परमाणु हथियारों का प्रयोग करने की हद तक जा सकते हैं। लड़ाई के लंबा खिंचने के साथ-साथ बढ़ती परमाणु धमकियों की दो वजहें बताई जा रही हैं।
अवधेश राजपूत
एक तो रूसी सेना को उसकी धाक और उम्मीद के मुताबिक कामयाबी हासिल नहीं हो रही है। दूसरे, सीमित दायरे में मार कर सकने वाले परमाणु हथियारों के मामले में नाटो देश रूस के सामने कहीं नहीं टिकते। शीतयुद्ध के अंत और सोवियत संघ के बिखरने तक सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक परमाणु हथियार अमेरिका के पास थे। उन्हें चलाने वाली सबसे शक्तिशाली और बेहतर मिसाइलें भी उसी के पास थीं, लेकिन शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका ने अपनी वरीयता पर ध्यान नहीं दिया, जबकि पुतिन के नेतृत्व में रूस ने उन्हें बनाना जारी रखा। 1994 की बुडापेस्ट संधि के बाद यूक्रेन के परमाणु अस्त्र भी रूस को मिल गए थे।
परमाणु हथियारों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। लंबी दूरी से मार करने वाले, जिन्हें बैलिस्टिक मिसाइलों पर लगाकर वार किया जाता है। अमेरिका के पास 5,500 सामरिक परमाणु अस्त्र हैं, जबकि रूस के पास इस समय 6,000 सामरिक परमाणु अस्त्र हैं। असली असंतुलन सीमित दायरे में मार करने वाले परमाणु अस्त्रों का है, जो 300 किमी की दूरी से चलाए जा सकते हैं। इनका प्रयोग दुश्मन के टैंकों और सेना की व्यूह रचना नष्ट करने के लिए किया जाता है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ हर साल हजारों ऐसे परमाणु अस्त्र बनाते थे।
शीतयुद्ध के अंतिम वर्षो के दौरान और उसके बाद हुई परमाणु निरस्त्रीकरण संधियों की बदौलत अमेरिका ने अपने अधिकांश टैक्टिकल परमाणु अस्त्र नष्ट कर दिए और उन्हें यूरोप के नाटो देशों से भी हटा लिया, लेकिन रूस ने अपने लगभग दो हजार टैक्टिकल परमाणु अस्त्रों को बचाकर रखा। इसलिए आज अमेरिका के पास कुल जमा दो सौ टैक्टिकल परमाणु अस्त्र बचे हैं, जबकि रूस के पास दो हजार हैं। अमेरिका के सौ से अधिक टैक्टिकल परमाणु अस्त्र नाटो देशों की रक्षा के लिए बेल्जियम, जर्मनी, नीदरलैंड्स, इटली और तुर्की में तैनात हैं। रूस ने अपने अधिकांश टैक्टिकल परमाणु अस्त्रों को नाटो देशों की सीमाओं के पास लगा रखा है। रूस के टैक्टिकल परमाणु अस्त्रों को बैलिस्टिक मिसाइलों, तोपों, विमानों और पनडुब्बियों के तारपीडो जैसे कई माध्यमों से इस्तेमाल किया जा सकता है। जबकि नाटो देशों के टैक्टिकल अस्त्र केवल विमानों द्वारा ही गिराए जा सकते हैं। टैक्टिकल परमाणु अस्त्रों में रूस की इसी बढ़त ने नाटो देशों को चिंता में डाल रखा है।
नाटो देशों की समस्या यह है कि उनकी सरकारें लोकतांत्रिक हैं, जहां जन समर्थन के बिना परमाणु युद्ध का जोखिम उठाना संभव नहीं। इसलिए यदि पुतिन टैक्टिकल परमाणु हथियारों का प्रयोग कर भी लेते हैं, तब भी नाटो के लिए जवाब में परमाणु हमला करना शायद मुमकिन नहीं होगा। वैसे भी टैक्टिकल परमाणु अस्त्रों में रूस की बढ़त के चलते नाटो को लंबी दूरी के सामरिक परमाणु अस्त्रों का सहारा लेना होगा, जिनके प्रयोग से व्यापक विनाश का जोखिम उठाने के लिए नाटो देशों के लोग तैयार नहीं होंगे। यही सब गणित लगाकर पुतिन जंग में डटे हुए हैं।
पुतिन का नया उद्देश्य डोनबास, ओडेसा आदि को जोड़कर एक नया कठपुतली देश खड़ा करना है। यह बचे-खुचे यूक्रेन और रूस के बीच बफर का काम करेगा। वह इसे मोल्दोवा और यूक्रेन की सीमा पर पड़ने वाले रूसी अलगाववादी प्रांत ट्रांसनिस्टिया से भी जोड़ना चाहते हैं, जहां 1992 से रूस की एक सैनिक टुकड़ी तैनात है। संयुक्त राष्ट्र में बार-बार वादे करने के बावजूद रूस ने उसे वहां से नहीं हटाया है।
पुतिन ने रूबल में भुगतान की शर्त न मानने वाले पोलैंड और बल्गारिया की गैस सप्लाई बंद करके आर्थिक जंग का मोर्चा भी खोल दिया है। इससे रूसी अर्थव्यवस्था को तो नुकसान होगा ही, यूरोप की अर्थव्यवस्था भी मंदी के भंवर मे फंस सकती है, जिसका असर यूरोप ही नहीं, पूरी दुनिया को ङोलना होगा। पुतिन संयुक्त राष्ट्र महासचिव के साथ जिस तरह पेश आए, उससे स्पष्ट है कि वह इस वक्त किसी बातचीत या युद्धविराम के मूड में नहीं हैं। दूसरी तरफ यूक्रेन में रूसी सेना के अत्याचारों और विनाश से पुतिन और रूस के प्रति नफरत गहरी होती जा रही है।
यूक्रेन के लोग समर्पण करने और रूस की धौंस में रहने को कतई तैयार नहीं हैं। ऐसे में नाटो के पास रूस से सीधी टक्कर लेने से बचते हुए यूक्रेन की मदद करते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता। नाटो के सामने नई चुनौती फिनलैंड और स्वीडन जैसे तटस्थ देशों की सुरक्षा की भी है, जो अब नाटो की सदस्यता चाहते हैं। पुतिन को यह कतई गवारा नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र के लिए चिंता का विषय यह है कि उसके इतिहास में पहली बार कोई देश किसी स्वतंत्र देश पर हमला करके जबरन उसके टुकड़े कर रहा है और वह उसे रोक नहीं पा रहा।
(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)