[रसाल सिंह]। कोरोना जनित संकट से मुकम्मल तौर पर निपटने के लिए केंद्र सरकार ने अनेक उपायों पर एक साथ काम शुरू कर दिया है। केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनधारकों के महंगाई भत्ते की वृद्धि पर जुलाई 2021 तक रोक लगाने के साथ ही सांसदों के वेतन भत्‍ते को कम कर दिया है। सांसदों की क्षेत्र विकास निधि को भी दो वर्ष के लिए निलंबित कर दिया गया है। इसी प्रकार कई राज्य सरकारों ने भी अनेक उपायों पर काम शुरू किया है। ये सभी उपाय कोरोना संकट से निपटने के लिए साधन-संसाधन जुटाने की उनकी रणनीति का हिस्सा हैं। इस राष्ट्र-यज्ञ में राजनेता, उद्योगपति, कर्मचारी, व्यापारी और किसान-मजदूर सबको योगदान देने की जरूरत है। राष्ट्र-निर्माण व्यक्ति विशेष का उत्तरदायित्व ही नहीं, अपितु नागरिक समाज का सामूहिक और सहकारी कर्तव्य-बोध है।

कोरोना संकट की व्यापकता को देखते हुए देश में ‘वित्तीय आपातकाल’ लगाया जाना जरूरी है। इसी दिशा में आगे काम करते हुए सरकार को स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन जैसी खर्चीली परियोजनाओं को भी स्थगित कर देना चाहिए। उसे ऐसी तमाम बचतों से प्राप्त धन को ग्राम स्वराज की परियोजना को साकार करने में लगाना चाहिए। गांधी जी कहा करते थे कि भारत गांवों में बसता है। भारत को जानना है तो गांव को जानना पड़ेगा। स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद भी उनकी यह बात प्रासंगिक है। इसलिए भारत का इलाज करने के लिए लाइलाज होते गांवों के इलाज को प्राथमिकता देनी होगी। उद्योग जगत और सेवा-क्षेत्र के व्यापक विस्तार के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी प्रकृति में मूलत: कृषि आधारित है। खेती-बाड़ी और उससे संबंधित कामों पर देश की दो-तिहाई जनसंख्या की निर्भरता है। इसके बावजूद भारत में किसान, किसानी और गांव उपेक्षित हैं। किसान के क्रमश: लाभरहित उद्यम बनते चले जाने की मजबूरी में मजदूरी और छोटे-मोटे काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने वाले ग्रामीणों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसे रोकने के लिए व्यापक निर्णय लेने होंगे और गांवों को रहने लायक बनाने की दूरगामी रणनीति बनानी होगी। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित ग्राम स्वराज के आधारभूत तत्व-समानता, स्वावलंबन, स्वदेशी, विकेंद्रीकरण और सर्वधर्म समभाव आदि हैं।

ऐसे समय में ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने से ज्यादा जरूरी काम गांवों को आत्मनिर्भर बनाना है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती और विकास ही भारत का भविष्य है। इस दिशा में ठोस कदम उठाकर ही ‘अंत्योदय’ के साथ-साथ समावेशी और सतत विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन रोका जा सकता है। इससे शहरी जीवन की स्लम, प्रदूषण, अपराध, ट्रैफिक जाम जैसी तमाम व्याधियों का उपचार भी संभव है। भारत जैसे देश में गांव की आत्मनिर्भरता ही मानवीय गरिमा की गारंटी है। भारत में एक ओर संपन्नता के ऊंचे टीले हैं तो दूसरी ओर अभाव के अतल गड्ढे हैं। भारतीय समाज व्यवस्था की इस ऊबड़-खाबड़ और ऊसर होती भूमि पर पाटा चलाकर समतल और उर्वर बनाने की आवश्यकता है। संयोगवश कोरोना जैसी आपदा ने वह अवसर उपलब्ध कराया है कि हम न केवल इस असाध्य विषमता को मिटाने के लिए प्रयत्नशील हों, बल्कि नई समाज-व्यवस्था के लिए भी कृत-संकल्प हों।

आर्थिक क्षेत्र में भारत को एक नया मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। यह मॉडल अपनी प्रकृति में देशज और स्थानिक होगा। यह सत्य है कि कोरोना संकट ने भारत के सामने अपनी अर्थव्यवस्था के व्यापक विकास और अंतरराष्ट्रीय विस्तार का ऐतिहासिक अवसर उपलब्ध कराया है। इस संकट के फलस्वरूप विश्व बिरादरी में चीन की साख में जबरदस्त गिरावट आई है। अमेरिका से लेकर यूरोपीय और अफ्रीकी देशों में भारत की विश्वसनीयता बढ़ी है। यह बढ़ी हुई विश्वसनीयता कोरोना संकट से निपटने में भारत द्वारा प्रदर्शित अभूतपूर्व क्षमता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय के लिए की गई उसकी पहल की परिणति है।

इस समय भारत को भौतिक विकास की जगह वैकल्पिक सभ्यता के विकास को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति भौतिकतावादी कभी नहीं रही। वास्तव में वह मानव मूल्यवादी आध्यात्मिक संस्कृति है। भारत को फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए विकास का एक वैकल्पिक मॉडल विश्व के सामने रखना चाहिए। इस वैकल्पिक मॉडल में ग्लोबलाइजेशन के बरक्स लोकलाइजेशन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विगत माह पंचायती राज दिवस के अवसर पर अपने एक महत्वपूर्ण संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्राम स्वराज की स्थापना पर बल दिया था। उन्होंने भविष्य में ‘मेक इन इंडिया’ को भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बनाने का संकल्प भी व्यक्त किया है। इस ध्येय वाक्य को और सटीक और सार्थक बनाने के लिए ‘मेक इन रूरल इंडिया’ करने की आवश्यकता है। गांवों को आत्मनिर्भर बनाकर ही भारत को आत्मनिर्भर बनाने की शुरुआत हो सकती है।

आज भारत के गांव शहरी जीवन-शैली और जीवन-मूल्यों के कूड़ाघर बन गए हैं। गांव से आत्मनिर्भरता, सामुदायिकता और मानवीय मूल्यों का लोप हो गया है। ग्रामीण जीवन के इन आधारमूल्यों का अपहरण आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने किया है। आज गांव ईष्र्या-द्वेष और क्लेश के अखाड़े हैं। वे विकृति, विद्रूप और व्यक्तिवाद के नवोदित महाद्वीप हैं। नशाखोरी और एकाकीपन वहां की नई जीवन-चर्या है। अब ग्राम्य-संस्कृति की पहचान रहे प्राचीनतम मूल्यों की घरवापसी का स्वर्णिम अवसर है। संतुलित और सतत विकास, सीमित उत्पादन और संयमित उपभोग ही भविष्य का रास्ता है।

भारत को विकास को परिभाषित करते समय पश्चिमी देशों का मुंह ताकना बंद करना चाहिए। भारत में ग्राम आधारित कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करके और छोटे एवं मझोले उद्योग-धंधों को मजबूती प्रदान करके ही भुखमरी, बेरोजगारी तथा अपराध जैसी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। इन उद्योगों की मजबूती ही खुशहाली का प्रवेशद्वार है। इसी से अंत्योदय भी संभव होगा। हाशिये पर खड़े अंतिम जन की चिंता करके ही आधुनिक राज्य अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकता है

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं)