नई दिल्ली (संजय गुप्त)। संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण जिस तरह हंगामे, शोर-शराबे और व्यर्थ के व्यवधान की भेंट चढ़ गया उससे धन और समय की तो बर्बादी हुई ही, राजनीतिक दलों पर लोगों का भरोसा भी घटा। ऐसा होना एक तरह से भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बजना है। इससे अधिक चिंताजनक और कुछ नहीं हो सकता कि बजट सत्र में नाम मात्र का विधायी कामकाज हो सका और अनेक महत्वपूर्ण विधेयक लंबित रह गए। इनमें कुछ विधेयक ऐसे हैं जिन पर सरकार को अध्यादेश लाना पड़ सकता है। बजट सत्र में सरकार के विरोध के नाम पर शोर-शराबे और हंगामे की विपक्ष ने जो रणनीति बनाई उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। विपक्ष को सरकार का विरोध करने का हक है, लेकिन इसके नाम पर संसद को बंधक बनाने का अधिकार नहीं, लेकिन इसी अधिकार का जबरन इस्तेमाल किया गया। बजट सत्र के दूसरे हिस्से में पूरे 22 दिन तक जिस तरह अलग-अलग बहानों से संसद के दोनों सदनों को ठप कराया गया उससे साफ पता चला कि विपक्ष की रुचि सरकार को काम न करने देने की थी। राज्यसभा के सभापति एवं उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने यह सही कहा कि जो कुछ हुआ वह संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं और हम सबके साथ-साथ देश की जनता ने भी बहुत कुछ खोया है।

हालांकि संसद में हंगामा पहले भी होता रहा है और पूरे के पूरे सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ते रहे हैं, लेकिन अतीत में जब भी ऐसा हुआ तब हंगामे के केंद्र में कोई एक बड़ा विषय था। उदाहरण के लिए संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में एक पूरा सत्र 2जी घोटाले में संयुक्त संसदीय समिति की मांग के कारण हो रहे हंगामे की भेंट चढ़ गया था। चूंकि तब सत्तापक्ष संयुक्त संसदीय समिति के गठन को तैयार नहीं था इसलिए विपक्ष के लिए हंगामा करना एक विवशता सी थी। इस बार सत्तापक्ष पंजाब नेशनल बैंक घोटाले समेत विपक्ष की ओर से उठाए गए मसलों पर चर्चा को तैयार था, लेकिन विपक्षी दलों ने चर्चा से अधिक हंगामा करने में दिलचस्पी दिखाई। इसी का परिणाम यह रहा कि पहले सत्र में जहां केवल बजट पेश हुआ वहीं दूसरे सत्र में बजट से जुड़े विधेयकों के अलावा केवल एक विधेयक ही पारित हुआ। लगातार हंगामे के चलते संसद के करीब 250 कामकाजी घंटे बर्बाद हुए और इस कारण करीब 190 करोड़ रुपये व्यर्थ चले गए। यह रकम छोटी लग सकती है, लेकिन जरूरी विधेयकों के लंबित रह जाने से देश को जो नुकसान होगा उसका आकलन करना कठिन है। विडंबना यह कि कोई भी इसकी जवाबदेही लेने को तैयार नहीं कि बजट सत्र के दूसरे हिस्से में लोकसभा में सिर्फ चार फीसद और राज्यसभा में आठ फीसद काम-काज क्यों हुआ? अगर बीता सत्र पिछले 18 साल में सबसे कम काम वाला सत्र साबित हुआ तो यह सभी राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय बनना चाहिए, लेकिन वे ऐसे संकेत तक नहीं दे रहे हैं। उलटे जनता को सफाई देने के लिए सड़कों पर उतरने की बात कह रहे हैं। बेहतर हो कि कोई इसकी सफाई भी दे कि संसद चली क्यों नहीं?

यह अच्छा नहीं हुआ कि संसद को एक तरह से विरोध प्रदर्शन का अड्डा बना दिया गया। हैरत की बात यह है कि इस काम में कल तक राजग की सहयोगी रही तेलुगु देसम पार्टी भी शामिल रही। उसने आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने की अपनी मांग पर जोर देने के लिए न केवल सरकार और राजग से नाता तोड़ा, बल्कि अपने सांसदों के जरिये दोनों सदनों में तरह-तरह से शोर-शराबा भी किया। आंध्र की राजनीति में खुद को आगे दिखाने के फेर में तेलुगु देसम पार्टी की विरोधी वाईएसआर कांग्रेस भी हंगामा मचाने में पीछे नहीं रही। इसी तरह अन्नाद्रमुक ने कावेरी जल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने के लिए संसद को सबसे उपयुक्त जगह माना तो अन्य दलों ने भी अपने-अपने मसले उठाकर हंगामा करने का काम किया। कांग्रेस ने पहले पीएनबी घोटाले को लेकर हंगामा किया और फिर एससी-एसटी एक्ट के तहत कार्रवाई की प्रक्रिया में बदलाव संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश पर ऐसा रुख अपना लिया मानो यह आदेश सरकार ने दिया हो। इतना ही नहीं उसने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरोध में लोगों को भड़काने का भी काम किया। एक विडंबना यह भी रही कि संसद में जिन भी मसलों पर हंगामा किया गया उन्हें लेकर चर्चा करने से जानबूझकर बचा गया। अगर चर्चा हुई होती तो पक्ष-विपक्ष की राय के जरिये आम जनता इन मसलों की तह तक जा सकती थी। शायद विपक्षी दल यह चाहते ही नहीं थे कि इन मुद्दों पर नीर-क्षीर तरीके से बहस हो। इसीलिए बहस के स्थान पर हंगामे की राह पर चला गया।

हमारे राजनीतिक दल संसदीय परंपराओं को लेकर कितने गंभीर हैं, इसका पता इससे भी चलता है कि बजट सत्र के दौरान ही केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस तो दिया गया, लेकिन इसकी चिंता नहीं की गई कि हंगामे और शोर-शराबे के बीच इस प्रस्ताव पर कोई चर्चा कैसे हो सकती है? विपक्ष को यह अच्छी तरह पता था कि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा तभी शुरू हो सकती है जब सदन व्यवस्थित हो, लेकिन यह जानते-बूझते हुए भी उसने सदन में हंगामा मचाना जारी रखा। शायद विपक्षी दलों ने यह तय कर लिया था कि वे ज्वलंत समस्याओं पर संसद में चर्चा नहीं होने देंगे। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि हमारे राजनीतिक दल इससे बेपरवाह हो चुके हैं कि दुनिया के अनेक देशों में भारतीय लोकतंत्र की मिसाल दी जाती है। यह मिसाल इसीलिए दी जाती है, क्योंकि संसद लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करती है।

यदि संसद में बुनियादी काम ही नहीं होंगे तो फिर यह तय है कि वही देश भारतीय लोकतंत्र का उपहास उड़ाएंगे जो उसकी मिसाल देते हैं। इसके साथ ही देश की जनता भी संसद के रवैये पर निराशा प्रकट करेगी। आज जब इसकी आवश्यकता कहीं अधिक है कि संसद अपने हिस्से का काम सही तरह करे तब यह देखना दयनीय है कि राजनीतिक दल संसद को बाधित करने पर आमादा हैं। यह सही है कि यह जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है कि संसद सही तरह चले, लेकिन विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह संसद चलने में अपना सहयोग प्रदान करे। वह ठीक इसके उलट काम कर रहा है। विपक्षी दल ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे उन्हें संसद के चलने-न चलने की परवाह ही नहीं। इसे देखते हुए ऐसे तौर-तरीके बनाने की जरूरत है जिससे संसद चलाने के मामले में सत्तापक्ष के साथ ही विपक्ष की भी जिम्मेदारी तय हो। संसद को सुचारु रूप से चलाने के मामले में कोई नई परिपाटी इसलिए भी शुरू की जानी चाहिए, क्योंकि संसदीय कार्यवाही का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। हालांकि आज के हालात में संसद चलाने के तौर-तरीकों पर नए सिरे से विचार होना संभव नहीं दिखता, लेकिन राजनीतिक दलों को यह याद रखना चाहिए कि यह वह आवश्यकता है जिसकी पूर्ति होना लोकतंत्र के साथ खुद उनके अपने हित में है।

(लेखक- दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)