[ बद्री नारायण ]: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुकाबला करने के लिए दो नए संगठन गठित किए हैैं। इनमें एक है जयहिंद वाहिनी, दूसरा है बंग जनानी वाहिनी। उन्होंने जयहिंद वाहिनी का अध्यक्ष अपने एक भाई कार्तिक बनर्जी को एवं संयोजक दूसरे भाई गणेश बनर्जी को बनाया है। बंग जनानी वाहिनी का अध्यक्ष काकोली दस्तीदार को बनाया गया है। माना जाता है कि तृणमूल कांग्रेस ‘जयहिंद’ का संबंध सुभाष चंद्र बोस एवं स्वामी विवेकानंद के प्रतीकों से जोड़ने की कोशिश करेगी। ममता की तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी अपना वैचारिक संघर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ही मानते हैं।

वामपंथी दल यथा भाकपा, माकपा आदि भी अपनी वैचारिक लड़ाई दक्षिणपंथी राजनीति के वैचारिक आधार रचने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ही मानते हैं, किंतु प्रश्न यह उठता है कि ये सभी दल अपना वैचारिक संघर्ष किस आरएसएस से मानते हैं? क्या उस आरएसएस से जो उनकी धारणा का आरएसएस है या उस आरएसएस से जो वह वास्तव में है? उनकी धारणा का आरएसएस वह है जिसे आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व की वामपंथी व्याख्याओं से रचा गया है। इस धारणा को लगातार दोहराते हुए आरएसएस के बारे में एक प्रकार की रूढ़िवादी सोच बना ली गई है। यह सोच आरएसएस की एक छाया का निर्माण करती है।

आरएसएस स्वयं को लगातार बदलता और नया करता चला आ रहा है। हो सकता है कि यह नयापन एवं परिवर्तन उसके शरीर का ही परिवर्तन हो, आत्मा का नहीं, परंतु जो राजनीतिक दल अपनी लड़ाई आरएसएस से मानते हैं उन्हें आरएसएस के देह स्वरूप में हो रहे लगातार परिवर्तन को तो समझना ही होगा। अगर वे ऐसा नहीं करते तो आरएसएस की एक छाया से लड़ते रह जाएंगे। इसके नतीजे में संघ अपने सामाजिक आधार को और फैलाता चला जाएगा।

पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, उत्तर पूर्व आदि में जहां-जहां संघ ने अपने को फैलाया है वहां उसके विरुद्ध संघर्ष की बात करने वाले राजनीतिक दल सच में जो संघ है, उसके बजाय उसकी छाया से ही लड़ते रहे हैैं। हो सकता है कि मेरी इस बात से कुछ लोग नाराज हों, पर संघ में हो रहे सतत बदलाव को जाने-समझे बिना एक तरह से इस खुशफहमी में जीना है कि हम संघ के विचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। संघ की शक्ति यह है कि वह अपनी लड़ाई किसी से नहीं मानता। वह अपने लक्ष्य को दृष्टिगत रख अपने प्रसार में लगा हुआ है।

संघ के प्रतिवाद के लिए जर्यंहद वाहिनी बनाने वाली ममता बनर्जी यह नहीं समझ पातीं कि संघ की शक्ति डंडे, लाठी में नहीं छुपी है। संघ की पहली शक्ति वह सांस्कृतिक एकाधिकार है जिसकी सतत व्याख्या अंतोनियो ग्राम्शी के सैद्धांतिक प्रतिपादनों से पाई जा सकती है। यह सांस्कृतिक शक्ति धर्म, परंपरा, धार्मिक शास्त्रों-अनुष्ठानों एवं भारतीय पारंपरिक मूल्यों को अपनी भाषा में जोड़ने से संघ को प्राप्त हुई है। इसी कारण वह आज सर्वत्र उपलब्ध होने की क्षमता अर्जित किए हुए है। इसी अंत:शक्ति के कारण संघ व्यापक हिंदू समाज, कठिन भौगोलिक परिक्षेत्र, अल्पसंख्यक समूहों को अपने में जोड़ने में लगा हुआ है।

हाल के समय में संघ क्षेत्रीय संस्कृतियों को भी अपने वैचारिक ढांचे से जोड़ने में सफल होता हुआ दिखा है। संस्कृति की भाषा एवं भाव को अपनी शैली में जोड़ने के कारण उसने एक सांस्कृतिक शक्ति प्राप्त की है। जो भी राजनीतिक दल आरएसएस से वैचारिक प्रतिवाद का दावा कर रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि संघ सरीखी सांस्कृतिक शक्ति एवं सांस्कृतिक भाषा विकसित किए बिना ऐसा कर पाना कठिन है। इस भाषा का निर्माण भारतीय संस्कृति के तत्वों एवं स्नोतों में समाहित होकर ही किया जा सकता है।

संघ की एक अन्य शक्ति है उसके संपूर्ण ढांचे में निहित समाहन की शक्ति। संघ में अपने विरोधी तर्कों, ढांचों एवं शक्तियों को समाहित कर लेने की अद्भुत शक्ति है। संघ अपने ढांचे से जरूरी समझौते करके भी जनजातीय समूहों, उत्तर-पूर्व के गैर-हिंदू समूहों और अल्पसंख्यकों को अपने से जोड़कर एक ‘विस्तृत हिंदुत्व’ का निर्माण करने में लगा हुआ है। यह ‘इच्छा’ जब तक संघ के विरोध में सक्रिय शक्तियों में विकसित नहीं हो पाती तब तक उनके लिए संघ से मुकाबला कठिन है। समाहन की यही शक्ति समाज एवं राजनीति में प्रभावी परंपरा रचती है।

संघ की तीसरी शक्ति है सेवाभावी सामाजिक कार्य।

संघ पूरे देश में अनेक सेवाभावी परियोजनाएं चला रहा है। इन सेवाभावी परियोजनाओं के माध्यम से वह जरूरतमंद लोगों तक पहुंचकर उन्हें अपने में शामिल कर रहा है। सेवाभाव की यह संस्कृति भी उसने भारतीय परंपरा में निहित सेवा एवं दान की भावना से सीखी है। इस पारंपरिक सीख का परिवद्र्धन संघ ने ईसाई मिशनरियों के सेवा कार्य की राजनीति को अप्रासंगिक बनाने के लिए भी किया है। अभी हाल में कुंभ में नेत्र रोगियों के लिए लगाए गए ‘नेत्र कुंभ’ के जरिये संघ लगभग दो लाख नेत्र रोगियों तक पहुंचने में सफल रहा। इसके लाभार्थियों में हिंदू-मुस्लिम, वंचित, आदिवासी सामाजिक समूहों के लोग शामिल थे।

जहां संघ प्रचारक अपने घर परिवार का मोह छोड़ संगठन के प्रति समर्पित होने का आभास देते हैं वहीं ममता बनर्जी ने जो ‘जय हिंद वाहिनी’ बनाई उसकी कमान अपने भाइयों को सौंप दी। इस तरह धारणा की लड़ाई में ममता बनर्जी अपनी लड़ाई प्रथम चरण में ही हार बैठीं। संघ प्रचारक जिस त्याग भाव को अपनी छवि से जोड़कर रखते हैं उससे जनता के बीच उनके प्रति भरोसा पैदा होता है। स्पष्ट है कि संघ और भाजपा विरोधी दलों को यह सोचना होगा कि पुरानी भाषा, पुरानी धारणा एवं पुराने हथियार से नित परिवर्तित होते जाने वाले संगठन से सफल प्रतिवाद नहीं किया जा सकता।

संघ से लड़ने के लिए इन दलों को भी नया तन एवं नई आत्मा वाला नया अवतार लेना होगा। सबसे बड़ा अंतर्विरोध है कि जहां ये दल राजनीतिक सत्ता की लड़ाई लड़ रहे हैैं वही संघ सामाजिक सत्ता रचने में लगा है। जब उसे अपने किसी प्रचारक में राजनीतिक प्रतिभा एवं आकांक्षा दिखती है तो वह उसे भारतीय जनता पार्टी से जोड़ देता है। गैर राजनीतिक होने की उसकी यह छवि उसके प्रति जनता में विश्वास सृजित करती है। स्पष्ट है कि राजनीतिक शक्तियों को खुद को सामाजिक अभियानों से जोड़ना होगा।

( लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैैं )

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