[प्रणय कुमार] निश्चित रूप से संघ-कार्य को विस्तार देने में परिव्राजक परंपरा के प्रचारकों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। आज के घोर भौतिकतावादी युग में अपना घर-परिवार छोड़कर भारत के गांव-नगर-प्रांत, खेत-खलिहान, कछारों की धूल भरी, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां नापना कोई आसान काम नहीं। संघ कार्य को आज जैसी स्वीकार्यता मिली है, वैसी तब कहां थीं! तपोनिष्ठ प्रचारकों को तब अपने चरित्र एवं आचरण, ध्येय एवं निष्ठा से ही कार्यक्षेत्र में अनुकूल स्थितियां निर्मित कर लोगों के हृदय में स्थान बनाना पड़ता था और रूखा-सूखा खाकर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। न दिन का ठिकाना, न रात की चैन, न खाने की सुध, न सोने की चिंता, हर पल बस एक ही धुन, एक ही लगन कि हिंदू-समाज का संगठन करना है, राष्ट्रीय विचारों को आगे बढ़ाना है, भारत प्रथम, राष्ट्र सवरेपरि के भाव को पुष्ट करना है, भारत को वैभव के सिंहासन पर आरूढ़ करना है। ध्यान रहे- समाज का संगठन, समाज में संगठन नहीं।

माधव गोविंद वैद्य उपाख्य बाबूराव जी वैद्य प्रचारक श्रेणी के ही गृहस्थ कार्यकर्ता थे। वैसे भी आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार संघ को ऐसे तपोनिष्ठ गृहस्थ कार्यकर्ताओं का ही संगठन मानते थे। वे गृहस्थ कार्यकर्ताओं के त्याग एवं समर्पण को अधिक महत्व देते थे। उनका कहना था कि घर-परिवार में रहते हुए सामाजिक एवं राष्ट्रीय सरोकारों और दायित्वों का निर्वहन अधिक दुष्कर एवं परिश्रमसाध्य है। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के मध्य संतुलन स्थापित करना एक साधना है। महान भारतवर्ष की निर्गुण संत-परंपरा भी तो यही है। संन्यासी बनने के लिए घर छोड़ने की तुलना में स्वार्थ और सुविधाओं का मोह छोड़ना अधिक मायने रखता है। यों ही नहीं कहा जाता कि राजा भी मन से संन्यासी हो सकता है और संन्यासी भी मन से भोगी हो सकता है। एमजी वैद्य मन से संन्यासी थे। उनका पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित था।

गृहस्थ होते हुए भी उन्होंने संघ द्वारा सौंपे गए दायित्वों का सार्थक रूप से निर्वहन किया। वे स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्ताओं के लिए आदर्श दृष्टांत थे। उन्होंने न केवल अपना जीवन संघ-समाज को समíपत किया, अपितु अपने दो-दो पुत्रों को भी संघ-सरिता एवं प्रचारक-परंपरा की सतत-अविरल धारा का हिस्सा बनाया। समाज में पर उपदेश कुशल बहुतेरे के उदाहरण बहुत देखने को मिलते हैं। त्याग और नैतिकता के मापदंड प्राय: अपने लिए अलग और अन्य के लिए अलग होते हैं। आयु के आधार पर आकलन करें तो उनकी आयु लगभग संघ-आयु के समकक्ष ठहरती है। उन्होंने संघ को आद्य सरसंघचालक से लेकर वर्तमान सरसंघचालक मोहनराव भागवत तक विकसित होते देखा। वे अकेले ऐसे कार्यकर्ता एवं अधिकारी थे जिन्हें छहों सरसंघचालकों के साथ कार्य करने का दुर्लभ अवसर प्राप्त था। इसीलिए वह न केवल संघ की विचारधारा और रीति-नीति को स्वयं हृदयंगम करने में सफल रहे, अपितु उसे रचने-गढ़ने एवं सरल भाषा में दूसरों तक पहुंचाने में भी उनका कोई सानी नहीं। उनकी मेधा एवं कुशाग्रता इतनी तीक्ष्ण थी कि दसवीं से लेकर परास्नातक तक की सारी परीक्षाएं उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं। नागपुर में मिशनरी शिक्षण संस्थान हिस्लॉप कॉलेज में प्राध्यापक रहते हुए भी उन्होंने संघ कार्य से कोई समझौता नहीं किया। एक तरफ शिक्षण की पृष्ठभूमि, संघ कार्य में सक्रिय एवं प्रत्यक्ष सहभागिता तो दूसरी तरफ संघ के मुखपत्र समझे जाने वाले नागपुर के तरुण भारत में संपादक का गुरुतर उत्तरदायित्व। ऐसे चुनौतीपूर्ण दायित्वों के निर्वाह ने उनके व्यक्तित्व को चमकाया एवं ऐसी ऊंचाई प्रदान की कि वे संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख एवं प्रथम प्रचार प्रमुख बने। बल्कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस के पश्चात मीडिया एवं आम जनता के भ्रम एवं शंकाओं के निवारण हेतु संघ-नेतृत्व ने पहली बार जब प्रवक्ता जैसे पद (दायित्व) की आवश्यकता महसूस की तो उसे माधव गोविंद वैद्य ही इस उत्तरदायित्व के लिए सर्वाधिक उपयुक्त पात्र नजर आए। उन्होंने इस उत्तरदायित्व का बखूबी निर्वाह किया।

उस दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मीडिया फ्रेंडली नहीं समझा जाता था। यह वह दौर था, जब संघ के अनुषंगिक संगठनों में से एक भाजपा कुछ राज्यों में सत्ता में आई थी। संघ के तमाम अन्य अनुषंगिक संगठनों की भी सरकार से बड़ी अपेक्षाएं थीं। मीडिया के तीखे सवालों से लगभग हर रोज संघ को दो-चार होना पड़ता था, ऐसे में माधव गोविंद वैद्य जी के संतुलित एवं सारगर्भित उत्तर समाधानपरक होते थे। उनका सम्यक एवं संतुलित वक्तव्य विवाद से संवाद और संवाद से सहमति तक का पथ प्रशस्त करता था।

वैद्य का जीवन न केवल संघ के स्वयंसेवकों के लिए अपितु सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले सभी लोगों के लिए प्रेरणादायी हो सकता है। उनका अध्ययनशील मन, तार्किक-बौद्धिक प्रकृति, संयमित-संतुलित व्यवहार एवं वाणी, वाकपटुता एवं प्रत्युत्पन्नमति- सब अनुकरणीय है। बल्कि सबसे पहले तो उन स्वयंसेवकों को उनके चिंतन-मनन-लेखन-स्वाध्याय आदि से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए, जिनकी लिखने-पढ़ने में रुचि इन दिनों बहुत कम हो चली है। साधना एवं स्वाध्याय के बिना समाज में सार्थक भूमिका या बदलाव का वाहक बन सकना कदापि संभव नहीं। उनके ऋषि तुल्य व्यक्तित्व के अवसान से उत्पन्न रिक्तता को भर पाना तो कदाचित कठिन होगा, पर उनके राष्ट्रीय एवं कल्याणकारी विचार सभी देशवासियों को दिशानिर्देश प्रदान करते रहेंगे। डॉ. मोहनराव भागवत के शब्दों में, श्रीमान माधव गोविंद उपाख्य बाबूराव वैद्य के शरीर छोड़ने से हम सब संघ के कार्यकर्ताओं ने अपना एक वरिष्ठ छायाछत्र खो दिया है।

(शिक्षक एवं विचारक)