नई दिल्ली[कैलाश बिश्नोई]। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले दिनों सभी अंतरराज्यीय नदी जल विवादों के निपटारे के लिए एकल स्थायी टिब्यूनल बनाने हेतु अंतरराज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक 2019 को मंज़ूरी दे दी है। इस विधेयक को अंतरराज्यीय नदी जल विवादों के न्यायिक निर्णय को और सरल तथा कारगर बनाने तथा अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956 को संशोधित करने के लिए लाया जा रहा है। इससे अलग-अलग राज्यों के नदी जल-विवाद के लिए अलग-अलग टिब्यूनल बनाने की व्यवस्था को खत्म किया जा सकेगा और एक ही समेकित और स्थायी टिब्यूनल के जरिये सभी संबद्ध पक्षों के मध्य सुलह की कोशिश होगी।

इस स्थायी टिब्यूनल में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और अधिकतम छह सदस्य शामिल होंगे। अध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि को पांच वर्ष तय किया गया है। उपाध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि तथा अन्य सदस्यों का कार्यकाल जल विवादों के निर्णय के साथ सह-समाप्ति आधार पर होगा। अधिकरण को तकनीकी सहायता देने के लिए आकलनकर्ताओं (केंद्रीय जल अभियांत्रिकी सेवा के विशेषज्ञ) की भी नियुक्ति की जाएगी। जल विवादों के निर्णय के लिए कुल समयावधि अधिकतम साढ़े चार बरस तय की गई है। अधिकरण की पीठ का निर्णय अंतिम होगा और संबंधित राज्यों पर बाध्यकारी होगा।

वर्तमान में अंतरराज्यीय जल विवादों के लिए बनाए गए टिब्यूनलों में विवादों को निपटाने के लिए कोई तार्किक, एकरूप और सामान्य प्रक्रिया नहीं है। विवादों के स्वरूप को देखते हुए उन्हें यह अधिकार है कि वे समझौता कराने के लिए आधारभूत सिद्धांतों में बदलाव कर सकें। इस वजह से एक अधिकरण से दूसरे की मूल धारणाएं बहुत बदल जाती हैं। इसके अलावा अधिकरणों का निर्णय राज्यों के लिए बाध्यकारी नहीं है।

विवादों के निपटारे के लिए बातचीत एवं निर्णय के लिए कोई निश्चित समय-सीमा नहीं है। कावेरी जल-विवाद पर बने टिब्यूनल को ही 17 साल लगे जिससे विवाद और भी लंबा खिंच गया। पानी की बढ़ती मांग ने राज्यों के बीच के जल-विवादों को इतना बढ़ा दिया है कि अब यह देश की क्षेत्रीय स्थिरता के लिए चिंता का विषय बन गया है। जल आवंटन को लेकर जगह-जगह हिंसा की घटनाएं हुई हैं। इस प्रकार के विवाद बढ़ते रहे, तो ये देश की आर्थिक प्रगति और सामाजिक विकास में बड़ी बाधा बन जाएंगे।

भारत में जल संसाधनों के विभाजन के संबंध में राजनीतिक लामबंदी की जाती है एवं ऐसे राजनीतिक आंदोलनों के कारण क्षेत्रवाद और अलगाववादी भावनाएं पनपती हैं जो भारत की एकता और अखंडता के लिए घातक हैं। इस प्रकार के संघर्षो से नदीय जल पर निर्भर लोगों की आजीविका प्रभावित होती है। हिंसक आंदोलनों से कानून व्यवस्था के समक्ष चुनौतियां उत्पन्न होती हैं तथा लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा होती है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए अंतरराज्यीय विवाद उभरना सामान्य बात है। इन विवादों के समाधान के लिए संविधान में अनुच्छेद 262 का प्रावधान किया गया है, जो सरकार को जल विवादों के समाधान के लिए नियम बनाने व विशेष न्यायाधिकरण की स्थापना का अधिकार देता है। अनुच्छेद 262 (2) के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को इस मामले में न्यायिक पुनर्विलोकन और सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया है। विदित हो कि अनुच्छेद 262 संविधान के भाग 11 का हिस्सा है जो केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रकाश डालता है।

अनुच्छेद 262 के आलोक में अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956 को लाया गया। अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956 के अंतर्गत जब दो या दो से अधिक राज्य सरकारों के बीच जल विवाद पैदा होता है तो अधिनियम की धारा 3 के तहत कोई भी राज्य केंद्र सरकार को इस संबंध में अनुरोध भेज सकता है। उक्त अधिनियम के अंतर्गत, जिस विवाद को बातचीत के जरिये नहीं सुलझाया जा सकता उसके प्रति असंतुष्ट होने की स्थिति में केंद्र सरकार उस विवाद को एक पंचाट को सौंप सकती है। कावेरी और कृष्णा से संबंधित जल विवाद वर्ष 1990 और 2004 में फैसले के लिए पंचाटों को सौंप दिए गए थे।

हाल के वर्षो में कावेरी जल विवाद में राजनीतिक इच्छाशक्ति या संवैधानिक प्रावधानों की अपर्याप्तता एवं अस्पष्टता के चलते भारत के अंतर-राज्य जल विवाद के संदर्भ में यह एक वृहद् विचारणीय प्रश्न बनता हुआ प्रतीत हो रहा है। देश के कई राज्यों के मध्य नदियों के पानी के बंटवारे का मामला अदालतों के समक्ष लंबित है। ये मामले बताते हैं कि हम सात दशक बाद भी किस तरह नदियों के जल के बंटवारे का कोई कारगर उपाय नहीं खोज सके हैं और भविष्य के लिए आशंका व्यक्त की जा रही है कि पानी की बढ़ती मांग, मानसून-चक्र में बदलाव और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से राज्यों के बीच नदियों के पानी को लेकर झगड़े और गंभीर होंगे। ऐसे में नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाना चाहिए तथा संबंधित राज्यों के कमांड क्षेत्र के विकास के लिए राष्ट्रीय योजनाएं आरंभ की जानी चाहिए। इस दिशा में दामोदर घाटी की भांति अलग-अलग निगमों की स्थापना उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

नदी जल विवादों से निपटने के लिए फ्रांस की ‘जल संसद’ व्यवस्था के मॉडल का अनुगमन किया जा सकता है। फ्रांस में ‘जल संसद’ को देश की नदियों के प्रबंधन का दायित्व सौंपा गया है और इस संसद में गैर-सरकारी और पर्यावरण से संबंधित संगठनों के लिए कुछ सीटें आरक्षित की गई हैं। इसके अलावा नदी परिषद अधिनियम के अंतर्गत नदी बेसिन संगठन की स्थापना कर राज्यों के बीच मध्यस्थता एवं शांतिवार्ता के माध्यम से विवादों का समाधान किया जा सकता है।

[लेखक- अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]  

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