नई दिल्ली [ हर्ष वी पंत ]। उम्मीद के मुताबिक व्लादिमीर पुतिन रूसी राष्ट्रपति का चुनाव बड़ी आसानी से जीत गए और अगले छह साल तक फिर अपने देश का नेतृत्व करेंगे। हालिया चुनाव में उन्हें 76 प्रतिशत वोट मिले और इस तरह वह स्टालिन के बाद रूस की सत्ता पर सबसे अधिक समय तक काबिज रहने वाले नेता भी बन गए। 1999 से ही वह किसी न किसी रूप में रूस के शीर्ष सत्ता केंद्र पर आसीन रहे हैं। इस बार वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि उन्हें पिछली बार की तुलना में अधिक जनसमर्थन मिले।

पिछले चुनाव में रूस के 64 फीसद मतदाताओं ने उनके नाम पर मुहर लगाई थी। इस लिहाज से वह अपने समर्थन में लगभग 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर इस मुहिम में काफी हद कामयाब रहे हैं। जहां पुतिन इस जीत को ‘पिछले कुछ वर्षों में हासिल की गई उपलब्धियों’ का नतीजा बताकर जश्न मना रहे हैं वहीं उनकी जीत एक बड़ी हद तक पूर्वनियोजित लगती है, क्योंकि मुख्य विपक्षी नेता एलेक्सी नवाल्नी को राष्ट्रपति पद के लिए होड़ में बने ही नहीं रहने दिया गया।

भारत-रूस के रिश्ते नई करवट ले रहे हैं

चीन में ‘सम्राट’ के रूप में चिनफिंग की आजीवन ताजपोशी और रूस में पुतिन के चुनाव से एक नए किस्म की अधिकनायकवादी राजनीतिक परिपाटी आकार ले रही है जो उदारवादी ढांचे के समक्ष बेहद कड़ी चुनौती पेश कर रही है। रूस के साथ भारत के लंबे समय से खास रिश्ते रहे हैं, लेकिन तेजी से बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियों में उन रिश्तों की तासीर बदल रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो बदलते वक्त में भारत-रूस रिश्ते नई करवट ले रहे हैं। पुतिन के नए कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुरंत शुभकामनाएं प्रेषित कीं और अब रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण वहीं की यात्रा पर जा रही हैं। देखना है कि उनकी यात्रा दोनों देशों के रिश्तों में कितनी मिठास घोल पाती है। रूस को लेकर भारत की चिंता यही होनी चाहिए कि उसका पाकिस्तान के प्रति झुकाव लगातार बढ़ता जा रहा है और चीन के साथ उसके रिश्तों की पींगें भी बढ़ रही हैं। ध्यान रहे कि अतीत में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर के मसले को लेकर मॉस्को ने कई बार भारत के पक्ष में वीटो किया है।

मॉस्को की रणनीति में दिख रहा बदलाव  

दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को लेकर मॉस्को की रणनीति में बदलाव दिख रहा है। पिछले वर्ष दिसंबर में आयोजित छह देशों के एक सम्मेलन के अंत में जारी संयुक्त घोषणापत्र में मॉस्को ने कश्मीर पर पाकिस्तानी रुख का समर्थन किया। अफगानिस्तान, चीन, ईरान, पाकिस्तान, रूस और तुर्की द्वारा हस्ताक्षरित इस प्रस्ताव में रेखांकित किया गया कि वैश्विक और क्षेत्रीय शांति एवं स्थायित्व को सुनिश्चित करने के लिए भारत और पाकिस्तान को जम्मू- कश्मीर मसले का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार शांतिपूर्ण ढंग से समाधान निकालना चाहिए। इसमें कश्मीर के मुद्दे का उल्लेख होना दर्शाता है कि पाकिस्तान ने अन्य पक्षों को घोषणापत्र में इसे शामिल करने पर राजी किया।

गत वर्ष दिसंबर में नई दिल्ली यात्रा के दौरान रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने चीन की महत्वाकांक्षी योजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की वकालत करते हुए भारत को इससे जुड़ने की बिन मांगी सलाह दी थी। लावरोव ने दलील दी कि भारत अपने हितों से समझौता किए बिना कनेक्टिविटी की इस बड़ी परियोजना से जुड़कर लाभ उठाएगा। संप्रभुता के सवाल के संदर्भ में उन्होंने कहा कि किसी एक मुद्दे पर ही पूरा दांव नहीं लगाना चाहिए। उन्होंने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया चौकड़ी के विचार पर नई दिल्ली की गंभीरता को लेकर भी नाखुशी जाहिर की।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे बदलाव दोनों देशों के बीच खाई पैदा कर रहे हैं

भारत और रूस में शीर्ष नेतृत्व की तमाम बेहतरीन कोशिशों के बावजूद द्विपक्षीय रिश्तों में ठहराव बढ़ता जा रहा है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे बदलाव दोनों देशों के बीच खाई पैदा कर रहे हैं। रूस के लिए अमेरिका की अगुआई वाला पश्चिमी जगत सबसे बड़ी चुनौती है और उसकी विदेश नीति की प्राथमिकताएं इसी पहलू के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं कि पश्चिम को प्रत्येक मोर्चे पर कैसे मात दी जाए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से लेकर पश्चिमी यूरोपीय क्षेत्र में रूस यही कर रहा है।

पश्चिमी जगत भी वैश्विक राजनीति में रूस को संदेह की दृष्टि से ही देखता है। कई मामलों में तो वह उस पर चीन से भी कम भरोसा करता है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद अमेरिका-रूस संबंधों में जगी सुधार की उम्मीद ने भी अब दम तोड़ दिया है, क्योंकि अमेरिकी घरेलू राजनीति में काफी कड़वाहट घुल गई है। ब्रिटेन और रूस भी इन दिनों टकराव के दौर से गुजर रहे हैं। ब्रिटिश धरती पर एक पूर्व रूसी जासूस और उनकी बेटी की नर्व एजेंट द्वारा की गई हत्या की कोशिश ने आग में घी का काम किया।

रूस को कड़ा जवाब देने के लिए पूरा पश्चिमी जगत ब्रिटेन के साथ एकजुट

इस मामले में रूस को कड़ा जवाब देने के लिए पूरा पश्चिमी जगत ब्रिटेन के पीछे एकजुट खड़ा है। भारत के लिए हालात जरा अलग हैं। उसे पड़ोस में चीन के उभार से बढ़ रही समस्याओं का समाधान तलाशना है। चीन अब दक्षिण एशिया और हिंद महासागर जैसे परंपरागत रूप से भारत के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में भी अपना दखल देने पर आमादा है। भारत और चीन की ताकत में बढ़ती विषमता से सीमा पर हालात और भी ज्यादा अस्थिर हो गए हैं।

फिर उसके साथ मिलकर पाकिस्तान भारत के समक्ष दोहरी चुनौती बढ़ाता है। भारत की वैश्विक ताकत बनने की आकांक्षाओं को चीन भाव ही नहीं देता और सुरक्षा संबंधी भारत की तमाम मांगों पर उसके साथ बातचीत बेनतीजा ही रही है। इसका नतीजा यही निकलता है कि जहां पश्चिम को जवाब देने के लिए रूस को शायद चीन का साथ और समर्थन मिल जाए, लेकिन भारत को ऐसी कोई सुविधा हासिल नहीं है। ऐसे र्में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी वर्चस्व पर अंकुश लगाने के लिए नई दिल्ली को समान विचार वाले देशों के साथ मिलकर वैकल्पिक मंच बनाने के साथ ही ऐसा विमर्श भी तैयार करना होगा जो चीन की सही तरीके से काट कर सके।

चीन और पाकिस्तान के साथ बढ़ती रूस की गलबहियों से आने वाले कुछ वर्षों में भारत-रूस रिश्तों की कड़ी परीक्षा होनी तय है। भारत और रूस के रिश्तों की धुरी हमेशा से रक्षा संबंधों पर टिकी रही है जहां अब आर्थिक आधार खिसक रहा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि रिश्तों के मौजूदा स्वरूप पर कुछ सार्थक बातचीत को बढ़ाया जाए। इसमें केवल अतीत के रिश्तों की भावनाएं ही काम नहीं आएंगी, क्योंकि भारत और रूस दोनों का साबका नई चुनौतियों से पड़ रहा है और भू-सामरिक परिदृश्य भी तेजी से अपना स्वरूप बदल रहा है।

(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)

चीन-पाक के साथ रूस की बढ़ती नजदीकी से आने वाले वक्त में भारत- रूस रिश्तों की कड़ी परीक्षा होनी तय है