ए. सूर्यप्रकाश। समान नागरिक संहिता भाजपा की पुरानी मांग रही है। इसके नेता देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए अभियान चलाते रहे हैं। इसी कड़ी में अब पुष्कर सिंह धामी का नाम जुड़ गया है, जो दूसरी बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने है। पिछले दिनों अपनी पहली कैबिनेट बैठक में धामी ने समान नागरिक संहिता के निर्माण लिए एक कमेटी बनाने का फैसला किया। विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने इसे लागू करने का वादा किया था। इस प्रकार उत्तराखंड ने इस संबंध में दूसरे राज्यों को एक रास्ता दिखा दिया है।

संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 'राज्य, भारत के समस्त क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू कराने का प्रयास करेगा।' यह अनुच्छेद राज्य के नीति निदेशक तत्व भाग में है, जो कि संविधान में सलाह के रूप में दर्ज है। यानी यह बाध्यकारी नहीं है। हालांकि समान नागरिक संहिता से जुड़ी कुछ बातें संविधान की सातवीं अनुसूची में समवर्ती सूची के खंड पांच में भी दी गई है। समवर्ती सूची में दर्ज विषयों पर केंद्र और राज्य, दोनों कानून बना सकते है। मुस्लिम पर्सनल ला (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत विवाह, पालन-पोषण, मेहर, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मुद्दे भी इसके अंतर्गत आते हैैं। इनमें से कई विषय समवर्ती सूची के खंड पांच में भी दर्ज है। यदि उत्तराखंड इस संबंध में कानून बनाता है तो भी वह पहला राज्य नहीं होगा। वास्तव में गोवा एक ऐसा राज्य है, जहां पुर्तगाल के शासनकाल से ही समान नागरिक संहित लागू है, लेकिन अन्य राज्यों में समान नागरिक संहित की बात होने पर मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता विरोध करने लगते है। पिछले साल नवंबर में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने समान नागरिक संहिता का यह कहकर विरोध किया था कि 'यह भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए न तो उपयुक्त है, न ही उपयोगी।'

इन दिनों समान नागरिक संहिता के खिलाफ जो बातें कही जा रही हैं, वे कमोबेश वैसी ही है जैसी संविधान सभा में 23 नवंबर, 1948 को अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान कुछ मुस्लिम सदस्यों ने कही थीं। उस दौरान संविधान सभा में हुई बहस पर नजर डालें तो पाएंगे कि आजादी के 75 वर्षों में देश में काफी कुछ बदल गया है, लेकिन समान नागरिक संहिता के विषय पर मुस्लिम नेताओं का चिंतन नहीं बदला है। संविधान सभा में विरोध करने वालों में मोहम्मद इस्माइल साहिब, नजीमुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम शामिल थे। इस्माइल साहिब ने विरोध करते हुए कहा था कि 'नागरिकों के लिए समान कानून की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय यदि लोग अपने पर्सनल कानून का पालन करते हैं तो कोई नाराजगी या असंतोष नहीं होगा। नजीमुद्दीन अहमद ने दावा किया कि 'विवाह और उत्तराधिकार के कानून धार्मिक निषेधाज्ञा का हिस्सा हैं।' महबूब अली बेग ने कहा कि '1350 वर्षों से मुस्लिमों द्वारा निजी कानून का पालन किया जा रहा है और सभी प्राधिकारियों द्वारा इसे मान्यता भी दी गई है।' मुस्लिम सदस्यों के इन तर्कों को केएम मुंशी, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर और प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. बीआर आंबेडकर ने खारिज कर दिया। केएम मुंशी ने असहमति जताते हुए कहा कि 'कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है। कुछ मुस्लिम देशों में भी अल्पसंख्यकों के पर्सनल ला को मान्यता नहीं दी गई है। तुर्की और मिस्र जैसे देशों में किसी भी अल्पसंख्यक के लिए निजी कानून की मान्यता नहीं दी गई है। 1937 में जब केंद्रीय विधानमंडल ने शरीयत कानून पारित किया था तो मुस्लिम सदस्यों ने कहा कि यह सभी मुस्लिमों पर लागू होगा। यहां तक कि खोजा और कच्छी मेमन लोगों को भी नहीं बख्शा गया, जो इसका विरोध कर रहे थे। तब अल्पसंख्यकों को अधिकार देने की बात क्यों नहीं याद आई?'

अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा कि 'देश के नेता चाहते थे कि पूरे भारत को आपस में जोड़ा जाए और इसे एक राष्ट्र के रूप में एकजुट किया जाए। इसके जरिये क्या हम उनकी इच्छा की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ेंगे या इस देश को हमेशा प्रतिस्पर्धी समुदायों के रूप में बांटे रखना चाहते हैं?Ó डा. आंबेडकर ने कहा कि 'वह मुस्लिम सदस्यों की बातों को सुनकर बहुत ही चकित हैं। देश में एकसमान और पूर्ण आपराधिक संहिता, संपत्ति का हस्तांतरण अधिनियम और अन्य जरूरी कानून पहले से लागू हैैं। इसका मतलब है कि व्यावहारिक रूप से पूरे देश में नागरिक संहिता लागू है। विवाह और उत्तराधिकार के विषय इससे बाहर है। इसीलिए हम सब इस अनुच्छेद को संविधान में रखना चाहते हैं।'

डा. आंबेडकर ने मुस्लिम सदस्यों के इस तर्क को चुनौती दी कि मुस्लिम कानून पूरे देश में अपरिवर्तनीय और एकसमान हैं तथा प्राचीन काल से सभी मुस्लिमों द्वारा इसका पालन किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि '1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत उत्तराधिकार और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन करता रहा। 1937 तक संयुक्त प्रांत, केंद्रीय प्रांत और बांबे में उत्तराधिकार के मामले में मुस्लिमों पर बहुत हद तक हिंदू कानून लागू होता रहा। उत्तरी मालाबार में मरुमक्कथायम कानून मुस्लिमों सहित सभी नागरिकों पर लागू होता था, जो एक मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी।Ó उन्होंने अनुच्छेद 44 के पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि 'अच्छा होगा कि एकसमान नागरिक संहिता का निर्माण करते समय हिंदू कानून की कुछ बातों को भी उसमें समाहित किया जाए।' इस पर संविधान सभा के दो मुस्लिम सदस्यों ने माना कि 'कुछ समय बादÓ भारत में समान नागरिक संहिता लागू हो सकती है। नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि 'देश को समान नागरिक संहिता का लक्ष्य रखना चाहिए, लेकिन यह क्रमश: और लोगों की सहमति से होना चाहिए।' हुसैन इमाम ने कहा कि 'समान नागरिक संहिता वांछनीय है, लेकिन इसका वक्त नहीं आया है।

जहां तक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात है तो क्या कोई देश के भीतर समानता और बंधुत्व जैसे विचारों के समान रूप से विकसित होने की आशा कर सकता है या फिर ऐसे ही लगातार मतभेदों की धुन बजती रहेगी, जैसी कि अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने चेतावनी दी थी?

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के जानकार एवं स्तंभकार हैं)