नई दिल्ली [ गौरीशंकर राजहंस ]। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की इस घोषणा से देशवासियों का दुखी होना स्वाभाविक है कि इराक में बंधक बनाए गए 39 भारतीयों के मारे जाने की पुष्टि हो गई है। हालांकि इनके जीवित बचने की संभावना कम रह गई थी, फिर भी एक उम्मीद की किरण बाकी थी और उसी के चलते उनके परिजन किसी चमत्कार की आस लगाए हुए थे। आखिरकार आशंकाएं उम्मीदों पर भारी पड़ीं। इराक में बंधक बने 39 भारतीयों के बचने की संभावना तब और भी कम हो गई थी जब पिछले साल अक्टूबर में भारत सरकार ने उनके परिजनों के डीएनए सैैंपल लिए थे। इससे यही संकेत मिला था कि शायद कुछ अनर्थ-अशुभ घट चुका है। दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ।

 

विपक्षी दलों ने की सरकार की आलोचना

विपक्षी दलों की ओर से सरकार की आलोचना के कुछ उचित आधार हो सकते हैैं, लेकिन विपक्षी नेता इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि सरकार बिना किसी प्रमाण के यह नहीं कह सकती थी कि इराक गए भारतीय मारे जा चुके हैैं। अगर सरकार वहां से किसी तरह बचकर आए एक भारतीय हरजीत मसीह के बयान को सही करार देती तो ऐसा होते ही उससे सबूत मांगे जाने लगते और यह पूछा जाता कि आखिर उसने किस आधार पर हरजीत के कथन को सही मान लिया? अगर हरजीत के कथन को सही माने जाने के बाद सौभाग्य से सभी या उनमें से कुछ जिंदा लौट आते तो फिर क्या यह नहीं कहा जाता कि सरकार ने जल्दबाजी में जीवित लोगों को मृतक करार दिया?

इराक से आई अशुभ सूचना पर क्षुद्र राजनीति

इराक से आई अशुभ सूचना पर जायज सवाल उठाए जाने चाहिए, लेकिन इसके नाम पर क्षुद्र राजनीति नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि बर्बर आतंकियों के कब्जे वाले इलाके में भारतीयों की खोज-खबर लेना एक मुश्किल काम था। इस मुश्किल के बारे में सुषमा स्वराज ने विस्तार से प्रकाश भी डाला। सुषमा स्वराज के मुताबिक जून 2014 में लापता हुए सभी भारतीयों के शव मोसुल के उत्तर पश्चिम में स्थित एक टीले से मिले, लेकिन लाख प्रयास केबावजूद यह पता नहीं चल पाया कि उन्हें कब मारा गया?

परिजनों की उम्मीदें एक झटके में टूट गईं

आइएस के खूंखार आतंकियों की नफरत की भेंट चढ़े भारतीयों के परिजनों पर क्या बीती होगी, इसकी कल्पना करना आसान नहीं, क्योंकि वे बीते साढ़े तीन साल से जिस उम्मीद के सहारे जी रहे थे वह एक झटके में टूट गई। उनका शोक और क्षोभ से भर जाना समझ आता है, लेकिन विपक्ष की ओर से ऐसी बातें अनावश्यक हैैं कि सरकार ने परिजनों को पहले सूचना क्यों नहीं दी? हैरत नहीं कि अगर विदेश मंत्री पहले यह काम करतीं तो फिर विपक्ष यह सवाल उठाता कि आखिर जब संसद चल रही थी तो पहले वहां जानकारी क्यों नहीं दी गई?

सुषमा स्वराज ने परिजनों को झूठा दिलासा दिया

सुषमा स्वराज की इसलिए भी आलोचना हो रही है कि उन्होंने परिजनों को झूठा दिलासा दिया, लेकिन विदेश मंत्री के इस तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता कि जब तक यह पता नहीं चल जाता कि बंधक जीवित हैं या उनकी मौत हो गई है तब तक संसद में या संसद के बाहर किसी तरह का बयान देना उचित नहीं था। सरकार स्पष्टता के नाम पर वह बात नहीं दोहरा सकती थी जिसे हरजीत मसीह कह रहा था।

मौत पर सियासत, सुषमा स्वराज को लोकसभा में बोलने नहीं दिया गया

हरजीत के मुताबिक सभी को उसके सामने गोली मार दी गई थी और वह इसलिए बच गया, क्योंकि उसके पैर में गोली लगी थी। सुषमा स्वराज की मानें तो हरजीत यह नहीं बता पा रहा था कि वह मोसुल से अरबिल कैसे पहुंचा? जो भी हो, यह अच्छा नहीं हुआ कि उन्हें लोकसभा में बोलने नहीं दिया गया। इसी कारण उन्हें इस मसले पर पूरी जानकारी देने के लिए संवाददाता सम्मेलन का सहारा लेना पड़ा। बेहतर होता कि इसकी नौबत नहीं आती और मौत पर सियासत नहीं की जाती।

देश में दलालों ने 39 भारतीयों को सुनहरे सपने दिखाकर युद्धग्रस्त क्षेत्रों मे भेज दिया था

यह जानना दुखद है कि 30-35 हजार रुपये प्रतिमाह की नौकरी के लिए 39 भारतीय अपनी जान खतरे में डालकर बेहद जोखिम वाले इराक में पहुंच गए। 2014 में वहां जैसे हालात थे उनमें उनके लिए वहां से निकल पाना बहुत ही कठिन था। उनके साथ जो भयावह घटा उससे यह साफ है कि देश में ऐसे दलालों का जाल बिछा हुआ है जो लोगों को सुनहरे सपने दिखाकर युद्धग्रस्त क्षेत्रों मे भेज देते हैं। उनसे कहा जाता है कि वहां उन्हें मोटी तनख्वाह और सारी सुख-सुविधाएं मिलेंगी। भरपूर कमाई के बाद वे लाखों रुपये कमाकर घर लौटेंगे। जब ऐसे लोग इन क्षेत्रों में पहुंचते हैैं तो उनका सामना कटु सच्चाई से होता है और कई बार उनके लिए वहां से निकलना मुमकिन नहीं होता।

आइएस की सच्चाई का पता लोगों को पहले से होता तो शायद वे कभी इराक नहीं जाते

यदि आइएस का शिकार बने लोगों को पहले से ही सच्चाई का पता होता तो शायद वे कभी इराक नहीं जाते। उन्हें तुर्की में काम दिलाने की पेशकश की गई थी, लेकिन उन्हें इराक ले जाया गया। यह धोखाधड़ी किसने की, इसकी जांच होनी चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भविष्य में ऐसी धोखाधड़ी न होने पाए।

देश के अंदर ही रोजगार के पर्याप्त अवसर खोजे जाने चाहिए

समय आ गया है कि एक ओर जहां देश के अंदर ही रोजगार के पर्याप्त अवसर खोजे जाएं वहीं दूसरी ओर काम की तलाश में बाहर जाने वालों के बारे में इसकी छानबीन की जाए कि वे छल-छद्म का शिकार तो नहीं हो रहे? कामगारों को विदेश ले जाने, उन्हें वीजा दिलाने वाली कंपनियों के तौर-तरीके गहनता से जांचे जाने चाहिए। हालांकि सरकार समय-समय पर जोखिम वाले देशों को लेकर सूचना-सलाह देती रहती है, लेकिन इससे भी आगे जाकर उसे उन तत्वों पर लगाम लगाने की जरूरत है जो सब्जबाग दिखाकर लोगों को विदेश ले जाते हैैं। ऐसे तत्व लोगों के साथ ठगी भी करते हैैं और मानव तस्करी भी। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नेपाल से लड़कियों को धोखे या लालच से विदेश ले जाने का काम भारत के जरिये ही होता है।

रोजगार की तलाश में इराक गए 39 भारतीयों का ताबूत में लौटना एक भयानक त्रासदी है

यह सही है कि अभागे 39 भारतीयों के इराक जाने में सरकार की प्रत्यक्ष कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन उनके परिजनों को उचित सहायता देना सरकार का फर्ज है। इसलिए और भी, क्योंकि ज्यादातर गरीब हैैं। नि:संदेह आर्थिक मदद से उनके दुख तो दूर नहीं होंगे, परंतु जीने का सहारा कुछ हद तक मिल जाएगा। इराक गए 39 भारतीयों का ताबूत में लौटना एक भयानक त्रासदी है। इसकी कल्पना नहीं की जाती कि इस युग में ऐसी बर्बर सोच वाले तत्व इस धरती पर मौजूद हैैं जो लोगों को सिर्फ इसलिए मार दें कि वे उनके धर्म के नहीं थे। हैरानी यह है कि हमारे अपने कुछ लोग ऐसी बर्बर सोच वाले तत्वों की मदद करने इराक-सीरिया चले गए।

[ लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैैं ]