[ प्रदीप सिंह ]: कांग्रेस सचमुच संकट में लगती है। बात सिर्फ चुनाव हारने-जीतने की नहीं है। सवाल दशा-दिशा और उसकी ओर से उठाए जा रहे मुद्दों का है। बीते कुछ समय में देश की दोनों बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा में भारी बदलाव आया है। राहुल गांधी की कांग्रेस आजादी के आंदोलन की विरासत वाली कांग्रेस तो छोड़िए, इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस भी नहीं रह गई है। यह सोनिया गांधी की कांग्रेस है जिसे राहुल गांधी अपनी कांग्रेस बनाना चाहते हैं। नतीजा यह हुआ है कि वह उसे अपनी कांग्रेस तो अभी तक बना नहीं पाए और पार्टी सोनिया गांधी की कांग्रेस रह नहीं गई। सोनिया गांधी ने कांग्रेस को एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) बना दिया था। दस साल तक पार्टी और सरकार एनएसी यानी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने चलाया। परिवार के प्रति वफादारी पहले भी आवश्यक शर्त थी। अब वफादारी एकमात्र शर्त हो गई है।

देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित हो गई हैं। इनमें तीन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजे कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों का आगे का राजनीतिक रास्ता तय करेंगे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा पंद्रह साल की एंटी इनकंबेंसी का सामना कर रही है। वहीं राजस्थान में पांच साल की सरकार और अलोकप्रिय मुख्यमंत्री का। यह परिस्थिति किसी भी विपक्षी दल के लिए सत्ता थाली में परोसकर मिलने जैसी है, परंतु ऐसा लग नहीं रहा है। पहले मध्य प्रदेश की बात करते हैं।

मध्य प्रदेश में कांग्रेस के प्रमुख रूप से तीन नेता हैं। नौ बार सांसद रहे कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष हैं। चुनाव की बागडोर उनके हाथ में दी गई है, लेकिन वह मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित नहीं किए गए हैं। उनकी डोर पीछे से ज्योतिरादित्य सिंधिया खींच रहे हैं, जो मुख्यमंत्री पद के लिए राहुल गांधी की एकमात्र पसंद हैं, लेकिन ठहरिए। उन्हें भी पार्टी ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। ये दोनों नेता लोकसभा के सदस्य हैं। वे विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे या नहीं, यह अभी तक साफ नहीं है। तीसरे नेता हैं दिग्विजय सिंह। वह दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। कहावत है कि मरा हाथी भी सवा लाख का होता है। सो दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में अकेले ऐसे नेता हैं जिनका कम या ज्यादा, पूरे प्रदेश में जनाधार है। वह कभी राहुल गांधी के राजनीति गुरु माने जाते थे। अब राहुल गांधी उन्हें फूटी आंख नहीं देखना चाहते। चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है और दिग्विजय सिंह पार्टी हाईकमान पर तंज कस रहे हैं। वह कह रहे हैं कि कहीं प्रचार के लिए या भाषण देने नहीं जाएंगे, क्योंकि उनके जाने से कांग्रेस के वोट कटते हैं। तो राज्य में पार्टी का सबसे मजबूत नेता घर बैठ गया है।

जो पार्टी व्यापमं जैसे मुद्दे पर शिवराज सिंह चौहान की सरकार को नहीं घेर पाई उसकी मुद्दों को उठाने और उन्हें भुनाने की क्षमता पर संदेह होना स्वाभाविक है। इस मुद्दे पर कांग्रेस की हालत ‘रोजे बख्शवाने गए थे और नमाज गले पड़ गई’ जैसी है। अब झूठे तथ्य देने के आरोप में कांग्रेस के ही नेता कठघरे में खड़े हैं। नए-नए अध्यक्ष बने कमलनाथ ने फर्जी वोटर लिस्ट का मुद्दा जोरशोर से उठाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खानी पड़ी।

मध्य प्रदेश हो या राजस्थान अथवा छत्तीसगढ़, राहुल गांधी के भाषण सुनें तो आपको लगेगा कि विधानसभा का नहीं लोकसभा का चुनाव हो रहा है। भाजपा की तीन सरकारें मतदाता की अदालत में अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर खड़ी हैं, लेकिन राहुल गांधी इन राज्यों में प्रधानमंत्री का रिपोर्ट कार्ड मांग रहे हैं। क्या कोई बता सकता है कि आखिर वह लोकसभा चुनाव में किसका रिपोर्ट कार्ड मांगेंगे? मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि पर कांग्रेस चोट नहीं कर पाई है, परंतु शिवराज के मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ भारी नाराजगी है।

राजस्थान का मामला और दिलचस्प है। कभी सोनिया गांधी और राहुल गांधी की पसंद रहे सीपी जोशी और मोहन प्रकाश काले पानी की सजा भोग रहे हैं। मैदान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट हैं। अशोक गहलोत राजस्थान में कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। वह दस साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं। एक समय राहुल गांधी उन्हें किनारे लगाना चाहते थे, लेकिन सोनिया गांधी के दखल से बच गए। इसके बाद गुजरात और कर्नाटक के प्रभारी के रूप में उन्होंने राहुल गांधी को प्रभावित किया।

1971 में पूर्वी बंगाल की शरणार्थी समस्या के समय शरणार्थी शिविरों में उनके काम को देखकर इंदिरा गांधी ने उनकी संगठन क्षमता को पहचाना था। इस सबके बावजूद मुख्यमंत्री पद के लिए राहुल गांधी की पसंद सचिन पायलट हैं। अगर कांग्रेस अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं करती है तो राजस्थान में सत्ता का आसान रास्ता कठिनाई में भी बदल सकता है। अभी तक इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि पार्टी मुख्यमंत्री पद के लिए किसी का नाम घोषित करेगी।

छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जिसमें पंद्रह साल से सत्ता से बाहर होने के बावजूद कांग्रेस का ठोस जनाधार है। वह हर चुनाव में भाजपा का पसीना छुड़ाती है परंतु जीत नहीं पाती। प्रदेश में पार्टी के बहुत सारे छोटे, मझोले और बड़े नेता माओवादियों के हमले में मारे गए। अजीत जोगी बचे थे। उन्होंने अपनी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बना ली। अब मायावती की बहुजन समाज पार्टी से उनका तालमेल हो गया है। रमन सिंह चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के लिए मैदान में हैं। आदिवासियों में चाउर वाले बाबा के रूप में जाने जाते हैैं। राज्य में कांग्रेस का नेतृत्व बचा नहीं है। जो नेता बचे हैं वे सीडी कांड की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पहली बार प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बिना चुनाव लड़ेगी। इस आदिवासी बहुल राज्य में राहुल गांधी और उनकी पार्टी की क्या रणनीति है, बता पाना कठिन है।

नारे और लक्षित चुनाव प्रचार चुनाव नतीजों को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। एक समय कांग्रेस को इसमें महारत हासिल थी। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ। इंदिरा गांधी ने समय से पहले लोकसभा भंग करके चुनाव कराया। नारा दिया,‘गरीबी हटाओ।’ वह हर चुनावी रैली में कहती थीं, ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ और वे कहते हैं इंदिरा हटाओ।’ बात लोगों के मन में घर कर गई। 1980 में कांग्रेस ने नारा दिया, ‘जात पर न पांत पर इंदिरा जी की बात पर मुहर लगेगी हाथ पर।’ यह नारा घर-घर पहुंच गया।

आज राहुल गांधी की कांग्रेस के पास एक अच्छा नारा भी नहीं है। राहुल गांधी घूम-घूम कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गाली दे रहे हैं। लगता है कि वह इस मुगालते में हैं कि यही जीत का मंत्र है। चुनाव में नकारात्मक मुद्दे का फायदा मिलने की दो शर्तें होती हैं। पहली, एक ऐसा सकारात्मक मुद्दा जो विश्वसनीय लगे और जबान पर चढ़ जाए। दूसरा, मतदाता सत्तारूढ़ दल को उखाड़ फेंकने पर आमादा हों। 2014 में भाजपा ने ये दोनों शर्तें पूरी कीं। राहुल गांधी का प्रधानमंत्री को गाली देना 2009 में लालकृष्ण आडवाणी का मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री बताने जैसा है।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]