[ प्रदीप सिंह ]: झारखंड विधानसभा चुनाव का नतीजा भाजपा के लिए चेतावनी, चुनौती और अवसर, तीनों लेकर आया है। मतदाताओं ने एक बार फिर साबित किया कि प्रधानमंत्री मोदी जब अपने लिए वोट मांगते हैं तो वह उनकी झोली भरने में संकोच नहीं करता, पर जब वे अपनी प्रदेश सरकार या प्रदेश इकाई के लिए वोट मांगने आते हैं तो उसका रवैया बदल जाता है। मतदाता मोदी और भाजपा को अलग-अलग देखता है। मतदाता एक तरह से गौतम बुद्ध के कहे अनुसार करता है। वह कुपात्र पर दया करने में विश्वास नहीं करता। उसकी नजर में रघुवर दास कुपात्र साबित हुए। मतदाता काफी अर्से से भाजपा को चेतावनी दे रहा है कि राज्य नेतृत्व पर ध्यान दीजिए।

रघुवर दास कई पैमाने पर खराब मुख्यमंत्री गिने जाएंगे

मोदी-शाह की कमाई का पुण्य कुछ तो पार्टी को मिल जाएगा, पर राज्य इकाइयों/मुख्यमंत्रियों का पाप उन्हीं के साथ रहेगा। दिल्ली, बिहार, राजस्थान और अब झारखंड में वही कहानी दोहराई गई। ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ का नारा भले ही केवल राजस्थान में लगा हो, लेकिन सुनाई इन राज्यों में भी दे रहा था। 1977 से अब तक के भाजपा मुख्यमंत्रियों की बात की जाए तो रघुवर दास कई पैमाने पर खराब मुख्यमंत्री गिने जाएंगे। लगता है कि राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन न करने का खामियाजा भुगतने के बाद भी पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा।

मोदी-शाह ने पार्टी के मुख्यमंत्रियों को दी काम करने की पूरी छूट

प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली से लगता है कि वह गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी के तौर-तरीके में बदलाव लाना चाहते हैं। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद वह चाहते थे कि उन्हें काम करने की पूरी आजादी मिले। उन्होंने यह आजादी हासिल भी की। साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी-शाह ने जिसे भी मुख्यमंत्री बनाया उस पर पूरा भरोसा किया। काम करने की पूरी छूट दी। यहां तक कि पार्टी के भीतर ही अपने विरोधियों को कमजोर करने की भी इजाजत दी, लेकिन जिन पर भरोसा किया वे उम्मीदों पर पूरी तरह खरे नहीं उतर रहे। दो इंजन वाली सरकारों को इन्होंने ऐसा बना दिया जिसमें एक ही इंजन काम करता है।

भाजपा के ज्यादातर सांसद और विधायक चुनाव जिताने के लिए मोदी-शाह पर हैं निर्भर

भाजपा की ज्यादातर राज्य सरकारों के पास उपलब्धि के नाम पर केंद्र सरकार की योजनाओं की कामयाबी ही है। बात इतने तक ही सीमित नहीं है। भाजपा के ज्यादातर सांसदों और विधायकों के मन में एक बात घर कर गई है कि उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है, चुनाव जिताने के लिए मोदी-शाह तो हैं ही। पार्टी के लोगों में इस तरह की प्रवृत्ति को रोकना मोदी-शाह की सबसे बड़ी चुनौती है। यह चुनौती और बड़ी हो जाएगी जब अमित शाह अध्यक्ष पद छोडे़ंगे।

चुनाव में हार-जीत के शोर में अहम बात की अनदेखी 

चुनाव में हार-जीत के शोर में सबसे अहम बात की शायद अनदेखी हो रही है। मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से भाजपा के सफर पर ध्यान देना जरूरी है। महाराष्ट्र में भाजपा चौथे से पहले नंबर और हरियाणा में तीसरे से पहले नंबर की पार्टी बन गई। यह उस समय हुआ जब मोदी लहर के अलावा उसे ऐंटी इन्कंबेंसी का फायदा मिला। पांच साल बाद अपनी सरकार की ऐंटी इन्कंबेंसी के बावजूद दोनों राज्यों में वह पहले नंबर की पार्टी बनी रही। त्रिपुरा, जहां पार्टी का कोई नामलेवा नहीं था, वहां वह सत्ता में आ गई। उत्तर प्रदेश में जहां 17 साल से पार्टी तीसरे नंबर पर थी वहां वह प्रचंड बहुमत से सत्ता में है। कर्नाटक में मई 2018 में बहुमत से भले ही थोड़ा कम रह गई हो, पर पहले नंबर की पार्टी बनी। असम सहित पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा हाशिये से राजनीतिक वर्चस्व वाली पार्टी बनी। इसी तरह बंगाल और ओडिशा में दूसरे नंबर की पार्टी बन गई।

भाजपा ने दो साल में खोई पांच राज्यों में सरकारें 

पिछले दो साल में पांच राज्यों में भाजपा की सरकार जाने की बड़ी चर्चा है। ये राज्य हैं, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और अब झारखंड। छत्तीसगढ़ और झारखंड की हार भाजपा को जरूर खलेगी। हालांकि छत्तीसगढ़ में 15 साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी बाहर हुई है। वहीं, मध्यप्रदेश में 15 साल की सत्ता के बाद भी वह सत्ता से ज्यादा दूर नहीं गई। राजस्थान हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन की परिपाटी का अभी तक निर्वाह कर रहा है।

दिल्ली और बिहार में भाजपा नेतृत्व का अभाव पार्टी के लिए समस्या

महाराष्ट्र में तो गजब ही हुआ। उसे भाजपा की चुनावी हार कहना ज्यादती होगी। इसके अलावा एक और बड़ा काम मोदी-शाह की जोड़ी कर रही है-प्रदेश में नए और ज्यादातर जगह युवा नेतृत्व को उभारने की। योगी आदित्यनाथ, देवेंद्र फड़णवीस, सर्वानंद सोनोवाल, विप्लव देव, जयराम ठाकुर और प्रमोद सावंत जैसे युवा हैं तो मनोहर लाल खट्टर और त्रिवेंद्र सिंह रावत जैसे नए नेता, लेकिन दिल्ली और बिहार में नेतृत्व का अभाव पार्टी के लिए समस्या बना हुआ है। हाल-फिलहाल इस समस्या के हल के आसार भी नहीं दिख रहे। कहते हैं कि युद्ध जीतने के लिए कळ्छ लड़ाइयां हारनी पड़ती हैं। चार राज्यों की हार कळ्छ ऐसी ही है।

भाजपा जिस राज्य में सत्ता से बाहर हुई, वहां कांग्रेस की तरह मटियामेट नहीं हुई

भाजपा जिस राज्य में भी सत्ता से बाहर हुई है, वहां कांग्रेस की तरह मटियामेट नहीं हुई है। सबसे बड़ी और अहम बात यह है कि राष्ट्रीय विमर्श भाजपा के हाथ से नहीं निकला है, बल्कि उसकी पकड़ और मजबूत हुई है। पिछले छह महीने में तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या पर अनुकूल फैसले से भाजपा और मोदी-शाह की स्थिति मजबूत ही हुई है। अब नागरिकता संशोधन कानून पर विपक्ष के प्रायोजित हिंसक विरोध ने भाजपा के पक्ष में जैसा ध्रुवीकरण किया है वैसा पहले कभी नहीं हुआ। यह काम भाजपा और पूरा संघ परिवार मिलकर अगले 10-20 साल में भी नहीं कर पाते।

सीएए, एनआरसी और अब एनपीआर का विरोध विपक्ष को आगे भारी पड़ सकता है

नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और अब एनपीआर का विरोध करके विपक्ष को लग रहा है कि उसने सरकार को घेर लिया है और मोदी-शाह को कदम पीछे हटाने पर मजबूर कर दिया है। विपक्ष दलों का यह मुगालता उन्हें आने वाले समय में भारी पड़ने वाला है। विपक्ष का यह दांव नए भौगोलिक क्षेत्रों में भाजपा के विस्तार का आधार बनेगा। बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र और केरल भाजपा के राजनीतिक/चुनावी विस्तार के नए राज्य बनने वाले हैं।

2021 में बंगाल पहली बार भाजपा को सत्ता में पहुंचा दे तो आश्चर्य नहीं होगा

इनमें 2021 में बंगाल पहली बार भाजपा को सत्ता में पहुंचा दे तो आश्चर्य की बात नहीं होगी। बिहार में जनता दल यूनाइटेड के नेताओं के बयान से लग रहा है कि इस माहौल में उन्हें अवसर नजर आ रहा है। खासतौर से झारखंड में हार के बाद। उन्हें लग रहा है कि विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटें लेने के लिए अब भाजपा को दबाया जा सकता है। लोकसभा चुनाव से पहले तीन राज्यों में हार के बाद उसने यही किया था। इस बार उन्हें झटका लग सकता है। 2019 में केंद्र सरकार दांव पर थी। पार्टी कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहती थी। इस बार दांव पर नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री पद है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )