[ राजीव सचान ]: सुप्रीम कोर्ट की ओर से अयोध्या मामले की सुनवाई टाले जाने के साथ ही यह तय हो गया था कि इस पर लोग निराशा जताने के साथ ही मोदी सरकार पर इसके लिए दबाव भी बनाएंगे कि वह अब तो इस मामले में कुछ करे। आखिरकार ऐसा ही हो रहा है। बीते दिनों शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के अयोध्या जाने और वहां विश्व हिंदू परिषद की ओर से धर्म संसद आयोजित होने के पीछे एक बड़ा कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या मामले की सुनवाई टाल देना रहा। यह सुनवाई केवल टली ही नहीं, बल्कि न्याय की बाट जोहते लोगों को कोई नई तारीख भी नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट की ओर से कहा गया कि नई पीठ ही यह तय करेगी कि मामले को अगले साल फरवरी में सुना जाए या फिर, मार्च या अप्रैल में। इससे जाने-अनजाने देश को यही संदेश गया कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं है। यह संदेश इसलिए और गया, क्योंकि अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट में सात सालों से लंबित है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से सितंबर 2010 में दिए गए फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मई 2011 में रोक लगा दी थी और फिर उसकी तब तक सुधि नहीं ली जब तक 2016 में सुब्रमण्यम स्वामी ने एक याचिका पेशकर इस मामले की जल्द सुनवाई का आग्रह नहीं किया। 2017 में इस याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने कहा था कि इस मामले को आपसी बातचीत से सुलझाने की कोशिश की जाए तो बेहतर। उन्होंने इस बातचीत में मध्यस्थता करने की भी पेशकश की, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसके बाद अयोध्या विवाद की सुनवाई फिर शुरू हुई तो पहले इस तरह की दलीलें दी गईं कि इस मामले की सुनवाई अगले आम चुनाव तक टाल देनी चाहिए, फिर इस पर जोर दिया गया कि पहले सुप्रीम कोर्ट के 1994 के उस फैसले पर विचार हो जिसमें कहा गया था कि मस्जिद में नमाज इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र वाली पीठ ने ऐसा ही किया और यह पाया कि इस फैसले का अयोध्या विवाद से कोई सीधा लेना-देना नहीं। इसके बाद यह उम्मीद और बढ़ी कि अब सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या विवाद का निपटारा जल्द ही हो जाएगा, लेकिन बीते दिनों नए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई वाली पीठ ने कहा कि यह मामला नई पीठ सुनेगी और वही यह देखेगी कि मामले की सुनवाई कब हो। इस टिप्पणी ने तुषारापात सा किया। लोगों को एक तरह से वही होता दिखा जो कपिल सिब्बल चाह रहे थे। यदि ऐसा कोई संकेत मिला होता कि सुप्रीम कोर्ट की नई पीठ अगले साल जनवरी में अयोध्या मामले की सुनवाई दिन-प्रतिदिन करेगी तो भी शायद लोगों को उतनी निराशा नहीं हुई होती जितनी हुई और जिसके चलते यह मांग तेज हुई कि सरकार अध्यादेश लाकर या फिर कानून बनाकर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करे। नि:संदेह यदि सरकार अध्यादेश या फिर कानून के जरिये मंदिर निर्माण की पहल करती है तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन तब उसके पास यह कहने को होगा कि उसने अयोध्या में मंदिर निर्माण का अपना वायदा पूरा करने की कोशिश की। अभी तो वह ऐसा कुछ कहने की स्थिति में भी नहीं।

स्पष्ट है कि अगर मोदी सरकार या भाजपा की ओर से अयोध्या मामले को उठाया जाता है तो उसे इस सवाल से दो-चार होना पड़ेगा कि आखिर उसने बीते चार साल में मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? इस सवाल पर सरकार की ओर से दिए जाने वाले ऐसे किसी जवाब से शायद ही बात बने कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा कर रही थी, क्योंकि सच्चाई यही है कि अगर सुब्रमण्यम स्वामी ने पहल न की होती तो सुप्रीम कोर्ट शायद ही अयोध्या विवाद की सुनवाई करने के लिए सक्रिय होता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और अन्य हिंदू संगठनों ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए अपनी मांग तेज करते हुए सरकार से कानून बनाने का जो अभियान सा छेड़ दिया है उससे इसके आसार दिख रहे हैैं कि यह मसला अगले आम चुनावों में एक मुद्दा बन सकता है।

जानना कठिन है कि अगर ऐसा होता है तो इससे किसे राजनीतिक लाभ मिलेगा, क्योंकि अब तो कोई भी दल यह कहने की स्थिति में नहीं दिख रहा कि अयोध्या में राम मंदिर नहीं बनना चाहिए। अधिक से अधिक वे यही कह रहे हैैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा होना चाहिए। अयोध्या में मंदिर निर्माण के विरोधी रहे राजनीतिक दलों के सुर बदल गए हैैंं तो शायद इसीलिए कि उन्हें यह समझ आ गया है कि वहां मंदिर बनाने की मांग में वजन है। अब ऐसे सुझाव भी राम मंदिर निर्माण के विरोध की खोखली आड़ ही अधिक हैं कि विवादित स्थल पर स्कूल या अस्पताल बनना चाहिए। इसी तरह ऐसे तर्कों का भी कोई मूल्य नहीं कि क्या राम मंदिर बनने से गरीबी और बेकारी दूर हो जाएगी, क्योंकि इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता कि यह विवाद हल न होने से देश गरीबी और बेरोजगारी से मुक्त हो जाएगा। अब ऐसे तर्क भी सुनाई नहीं देते कि भला नई पीढ़ी को मंदिर-मस्जिद से क्या मतलब? मतलब है और इसीलिए बीते दिनों देश का ध्यान अयोध्या पर केंद्रित रहा।

नि:संदेह बाबरी मस्जिद की कानूनी लड़ाई लड़ रहे संगठनों के नेता भी यह जान रहे होंगे कि विवादित स्थल पर अब मस्जिद नहीं बन सकती, लेकिन वे शायद इसलिए अड़े हुए हैैं कि ताकि खुद को मुस्लिम समाज का हित रक्षक कहला सकें। दुर्भाग्य से वे सबसे अधिक अहित अपने ही समाज का कर रहे हैैं। उन्हें इससे परिचित होना चाहिए कि यह विवाद समाज में वैमनस्य बढ़ा रहा है।

एक क्षण के लिए यह माना जा सकता है कि अपनी राजनीति के फेर में पड़े नेता यह समझने को तैयार न हों कि उनके रुख-रवैये के कैसे परिणाम सामने आ रहे हैैं, लेकिन क्या इस साधारण सी बात से सुप्रीम कोर्ट भी परिचित नहीं? लंबित मामलों को लेकर चिंतित रहने वाले सुप्रीम कोर्ट को तो इससे और भी अच्छी तरह परिचित होना चाहिए कि देरी के क्या दुष्परिणाम होते हैैं। अयोध्या में बीते दिनों जो कुछ हुआ और इस विवाद को लेकर भविष्य में जो माहौल बनेगा उसके लिए आरएसएस, विहिप, भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के साथ सुप्रीम कोर्ट भी उत्तरदायी होगा।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )