अवधेश कुमार: आम तौर पर अपने देश में किसी स्थान या द्वीप आदि का नामकरण वैचारिक स्तर पर विवादित बना दिया जाता है, लेकिन नामकरण का अपना महत्व है और इसके संदेश उस स्थान, देश और विश्व के लिए व्यापक और दीर्घकालिक होते हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की स्मृति में मनाए जाने वाले पराक्रम दिवस के अवसर पर अंडमान निकोबार के 21 द्वीपों का नाम परमवीर चक्र से सम्मानित 21 वीरों के नाम पर किए जाने का गहराई से विश्लेषण किए जाने की आवश्यकता है। हमारे देश में इस समय राजनीतिक विचारधारा को लेकर इतना तीखा विभाजन है कि मोदी सरकार के ऐतिहासिक और राष्ट्र की मानसिकता में व्यापक रूप से सकारात्मक बदलाव के लिए उठाए गए कदमों पर भी सामान्यतः नकारात्मक टिप्पणियां होती हैं।

हालांकि नेताजी का नाम और परमवीर चक्र विजेताओं के प्रति देश में सम्मान का इतना गहरा भाव है कि इसका कहीं से मुखर विरोध नहीं दिखा। इसके बावजूद ऐसे लोगों की कमी नहीं जो मानते हैं कि मोदी सरकार इस तरह की प्रवृत्तियों से देश में सैन्यवादी मानसिकता को बढ़ावा दे रही है। सैन्यवाद भारतीय संस्कारों से निकला शब्द नहीं है। यह पश्चिम से निकला है। हम सेना को केवल हथियार चलाने और युद्ध लड़ने तक सीमित नहीं रख सकते। भारतीय संदर्भ में सैन्य भाव व्यक्ति के भीतर अनुशासन के साथ अपने राष्ट्र को लेकर प्रखर चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है। नेताजी के जन्मदिवस को मोदी सरकार ने पराक्रम दिवस के नाम पर मनाने का फैसला किया। पराक्रम शब्द से ही वीरता का बोध होता है।

यह दुर्भाग्य रहा कि हमने पराक्रम, पुरुषार्थ और वीरता को आम पाठ्यक्रम से लेकर समाज की सामूहिक चेतना में विकसित करने की कोशिश नहीं की। उलटे इस विषय में बात करने वालों की आलोचना की जाती रही। पराक्रम और सैन्यवाद दोनों में किसी तरह का साम्य नहीं है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस पश्चिमी अवधारणा वाले सैन्यवाद के प्रतीक नहीं थे। वह उस पराक्रम और पुरुषार्थ के प्रतीक थे, जो अपने कर्मों से यह साबित करना चाहता था कि दुष्ट उपनिवेशवादी शक्तियों के साथ युद्ध करके भारत को उनकी गुलामी से मुक्त किया जा सकता है। जिन परमवीरों के नाम पर द्वीपों का नामकरण हुआ, उन्होंने भी अकारण हथियार नहीं उठाए थे, बल्कि हमलावरों, आतंकियों से अपनी मातृभूमि और आम लोगों की रक्षा के लिए युद्ध कर पुरुषार्थ का परिचय दिया था।

अंडमान निकोबार के सबसे बड़े द्वीप को प्रथम परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम दिया गया है। जैसा कि हम जानते हैं स्वतंत्रता के तुरंत बाद पाकिस्तान की ओर से हथियारबंद घुसपैठ हुई थी। देश की रक्षा करते हुए 3 नवंबर, 1947 को बड़गाम हवाई अड्डे के पास एक हमले में मेजर सोमनाथ शर्मा बलिदान हो गए थे। ऐसे पराक्रमी के नाम पर सबसे बड़े द्वीप का नाम रखा जाना ही हमारे अंदर पुरुषार्थ जगाता है। इन नामकरण में कारगिल युद्ध में केवल 25 साल की उम्र में बलिदान होने वाले परमवीर चक्र विजेता मेजर विक्रम बत्रा का नाम भी शामिल है। कायदे से इस दिशा में देश का ध्यान पहले जाना चाहिए था।

अंडमान निकोबार के बारे में हमारे देश में आम धारणा यही है कि यहां की सेल्यूलर जेल में अंग्रेजों के विरुद्ध लोहा लेने वालों को काला पानी की सजा के लिए भेजा जाता था। यह सच है। दूसरी ओर यह भी सच है कि 30 दिसंबर, 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने यहीं पहली बार तिरंगा फहरा कर अंग्रेजों से स्वतंत्र होने की घोषणा की थी। यद्यपि उन्होंने इसके पूर्व 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया था, किंतु भारतीय भूमि पर वह 30 दिसंबर को ही आए थे। नेताजी ने ही अंडमान निकोबार के दो द्वीपों को शहीद और स्वराज द्वीप नाम दिए थे। मोदी सरकार ने इसका विस्तार करते हुए 2018 में अंडमान के रास आईलैंड का नाम सुभाष चंद्र बोस के नाम पर किया। इन सबको एक साथ मिलाकर देखिए तो अंडमान निकोबार का चरित्र व्यापक रूप से बदल गया है।

सेल्यूलर जेल देखने जाएं तो वह स्पष्ट रूप से हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा झेले गए कष्टों और उनके अदम्य साहस की गाथा सुनाती दिखाई देगी। उन सारे सेनानियों के नाम वहां अंकित हैं। पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डा स्वातंत्र्य वीर सावरकर के नाम पर तो सुभाष चंद्र बोस के नाम पर रास द्वीप तथा शहीद और स्वदेश द्वीपों के साथ परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर 21 द्वीप। कल्पना कीजिए कि वहां जाने पर किसी के अंदर अब किस तरह की ऊर्जा और चेतना पैदा होगी? वास्तव में अंडमान निकोबार अब राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बन गया है।

नीतियों और विचारों के स्तर पर किसी का मोदी सरकार से मतभेद हो सकता है, किंतु देश के अंदर पराक्रम और पुरुषार्थ भाव पैदा करने संबंधी योजनाओं और उठाए गए कदमों का सम्मान सबको करना होगा। यह ध्यान रहे कि किसी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जन्मतिथि को देश के अंदर नई स्फूर्ति पैदा करने के रूप में मनाने की कोशिश नहीं की। पिछले सात-आठ वर्षों में सत्ता राजनीति ही नहीं, संपूर्ण राष्ट्र का स्वर बदला है। नेताजी आज एक प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में जनमानस में स्थापित हुए हैं।

ऐसा पहली बार हुआ कि 23 जनवरी को संसद के सेंट्रल हाल में देश के 80 युवाओं ने नेताजी को न केवल श्रद्धा सुमन अर्पित किए, बल्कि उनमें से कुछ ने वहां भाषण भी दिए। यह बताता है कि अगर आपकी विचारधारा स्पष्ट है और आपमें संकल्पबद्धता है तो आप विचारधाराओं में बंटे और खंडित मानसिकता वाले देश के भीतर भी सकारात्मक भाव, ऊर्जा और स्फूर्ति पैदा करने की ठोस नींव डाल सकते हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)