जीवन में आदर-सम्मान का विशेष महत्व है। हमें दूसरों के प्रति यह भाव सीखना चाहिए और उनके प्रति वैसा ही उपयुक्त व्यवहार करना चाहिए। अगर हम भगवान श्रीराम के जीवन को समझने का प्रयास करेंगे तो ऐसा पाएंगे कि वे किस तरह अपने बाल्यकाल से ही दूसरों के प्रति आदर-सम्मान का भाव रखते थे। यह भाव हमें शिष्टाचार, सदाचार और अनुशासन का पाठ पढ़ाता है। हम अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी जीते हैं। अपने लिए जीना स्वार्थयुक्त जीवन जीना होता है, जबकि दूसरों के लिए जीना परमार्थ युक्त-जीवन जीना होगा। हम मनुष्यों का इस नाते यह पावन कर्तव्य बनता है कि हम जहां कहीं रहें, सदैव दूसरों के प्रति यह आदर-भाव बनाए रखें।

मानव-जीवन का यह परम कर्तव्य है कि हम श्रेष्ठता की ओर बढ़ें, सद्मार्ग अपनाएं और दूसरों को इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि बड़ों के प्रति आदर-सत्कार का पवित्र भाव रखें। इसका आध्यात्मिक महत्व यह है कि इससे जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के परम साधन यही हैं। इसमें जीवन के सारे सद्गुण का सार समाहित है। दया, क्षमा, करुणा, सहनशीलता, परोपकार, अहिंसा, सत्य, प्रेम और सौहार्द आदि गुणों के ये प्रेरणास्नोत कहे गए हैं। श्रीराम बचपन से ही माता-पिता-गुरु-परिजन आदि सबका आदर, नमस्कार और सत्कार करते हैं। इसी तरह हमें अन्य महापुरुषों के जीवन में भी उनके जीवनियों से ये सारी बातें मालूम हो सकती हैं। ये महज पढ़कर भुला देने की बात नहीं है, बल्कि इसे आदत में शामिल कर लेना, मौके पर पालन करना और दूसरों को भी प्रेरित करना चाहिए। वस्तुत: यदि हम आदर-भाव करना सीख लेते हैं, तो इसके साथ-साथ हम अनेक अच्छे गुणों को सीख लेते हैं और यह गुण हमें अच्छा आदमी बनने और बेहतर काम करने की प्रेरणा प्रदान कर देता है। तभी तो आदर सत्कार को भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व दिया गया है। वैज्ञानिक न्यूटन का नियम है कि हर क्रिया की उसी अनुपात में प्रतिक्रिया होती है। अगर हम दूसरों को सम्मान देते हैं तो हमें भी सम्मान मिलेगा और यदि नहीं देते हैं तो हमें भी सम्मान नहीं मिलेगा।

[विनय कुमार]