संसद में गलत मिसाल पेश करते जनप्रतिनिधि, चर्चा के दौरान व्यवहार अनुकरणीय होना चाहिए
सांसदों का व्यवहार अनुकरणीय होना चाहिए। संसद में जो हुआ उससे व्यथित लोकसभा अध्यक्ष की पीड़ा को सबने देखा।
[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: मैं अपने एक निजी अनुभव को अक्सर दोहराता हूं। यह साल 1962 की बात है। तब मैं 19 साल का था और पहली बार दिल्ली आया था। उस दौरान हम संसद भवन भी गए। वहां पहुंचे तो किसी अंत:प्रेरणा से मैंने उस भवन को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मैं और मेरे साथी उसे देखकर स्वयं को धन्य महसूस कर रहे थे कि यहां बैठने वाले महानुभाव गांधी जी के मूल्यों में आस्था रखते हैं और देश को दिशा दिखाते हैं।
संसद एवं सांसदों के प्रति श्रद्धा भाव
भारतीय संसद में ब्रिटिश संसद की तर्ज पर दो सदन बनाए गए। इसके तहत भारत में लोकसभा और राज्यसभा बनीं। यहां सभा और सभासद का मंतव्य अत्यंत व्यापक है। संविधान निर्माता यह जानते थे। हमें यह अंतर स्कूल में ही समझा दिया गया था। उससे ही प्रेरित होकर संसद के प्रति हमारी श्रद्धा बढ़ी थी, परंतु क्या यही बात आज की युवा पीढ़ी के बारे में कही जा सकती है कि संसद एवं सांसदों के प्रति उनका वही श्रद्धा भाव है। यह वह प्रश्न है जो प्रत्येक सांसद को स्वयं और अपने साथियों से पूछना चाहिए।
तीन दशकों से संसद का न चलना कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक चलन बन गया
यह तो नहीं पता कि ऐसा होगा कि नहीं, लेकिन पिछले कुछ दशकों से संसदीय कार्यवाही को देखकर भारत के आम नागरिकों को अवश्य यह सवाल मथ रहा है। अब कार्यवाही या पूरे सत्र को ही हंगामे की भेंट चढ़ते देख किसी को हैरानी नहीं होती। इसी सिलसिले में गत पांच मार्च को लोकसभा में हालात इतने असहनीय हो गए कि सात सांसदों को निलंबित करना पड़ा। उसके बाद ही कार्यवाही शुरू हो पाई, लेकिन तबसे भी कोई सार्थक कार्य नहीं हो सका। तकरीबन बीते तीन दशकों से स्थिति कुछ ऐसी बन गई है कि संसद का न चलना कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक चलन बन गया है। लोकसभा का अर्थ तो यही है कि वहां निर्वाचित व्यक्ति सभ्य आचरण से चर्चा-परिचर्चा करे। समाज को समृद्ध करने की संभावनाएं तलाशे, लेकिन इसका उल्टा ही हो रहा है।
गांधी जी के देश में सभ्यता के उलट कार्य हो रहा
दुख की बात है कि यह सब गांधी जी के देश में हो रहा है जहां कुछ लोग उनकी विरासत पर दावा करते रहे हैं कि वही उनके सच्चे उत्तराधिकारी हैं। वे भारत को स्वतंत्रता दिलाने का श्रेय भी लेते आए हैं, लेकिन क्या वे गांधी जी की हिंद स्वराज से परिचित हैं और क्या उन्होंने उसमें गांधी जी के ये शब्द पढ़े हैं कि ‘सभ्यता वह आचरण है जिसमें आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने का अर्थ है नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रण में रखना। ऐसा करते हुए हम स्वयं को पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उल्टा है वह बिगाड़ करने वाला है।’
यदि लोग समाज के मानवीय मूल्यों को पीछे घसीटने पर उतारू हों, तो यह देश का दुर्भाग्य होगा
भारत की सभ्यता की ऐसी समझ गांधी जी को अपने पारिवारिक संस्कारों, स्वाध्याय, जीवन के आरंभिक अनुभवों से मिली थी। वह हिंद स्वराज में ही समझाते हैं कि ‘किसी देश में किसी भी सभ्यता के अंतर्गत सभी लोग संपूर्णता के स्तर तक नहीं पहुंच पाए हैं। अत: प्रत्येक सभ्यता आज भी आगे बढ़ने के प्रयास में लगी हुई है। ऐसे में यदि कुछ लोग अपनी सभ्यता, अपने समाज के मानवीय मूल्यों को पीछे घसीटने पर उतारू हों, तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।’
सुविधाओं से ओतप्रोत कुछ सांसद संसद की कार्यवाही ही नहीं चलने देते
बापू भारत को मूलरूप से कर्मभूमि मानते थे, भोगभूमि नहीं। यह कैसी विडंबना है कि बापू का नाम लेकर ही भारत के कुछ सांसद संसद की कार्यवाही ही नहीं चलने देते। अपनी सब सुविधाओं का उपभोग करते हुए भी वे अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते। क्या वे देश की कार्यसंस्कृति को ठेस नहीं पहुंचा रहे? जनता कब तक यह सब देखती और सुनती रहेगी?
भाषाई और व्यवहारगत शालीनता बहुत जरूरी, अमर्यादित भाषा का प्रभाव नई पीढ़ी पर पड़ता है
भाषाई और व्यवहारगत शालीनता बहुत जरूरी है। राजनीति में अमर्यादित भाषा और आचरण के बढ़ने का प्रभाव नई पीढ़ी पर पड़ता है। आज जब बड़ी संख्या में सांसदों के आपराधिक प्रकरणों में संलिप्त होने के मामले सामने आते हैं तो यही स्पष्ट होता है कि राजनीतिक दल भी अपना दायित्व पूरी तरह नहीं निभा पा रहे हैं। बीते दिनों संसद में जो कुछ भी हुआ वह देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच बढ़ते आक्रोश और अविश्वास को ही दर्शाता है। ऐसी मनोदशा वाला कोई व्यक्ति देश के भविष्य को लेकर सार्थक चिंतन नहीं कर पाएगा। वह केवल स्वार्थ सिद्धि या दलगत राजनीति के दलदल में ही अपना समय बिता देगा।
जो अविश्वास वरिष्ठ नेताओं में उभरता है वही जनता के बीच जाकर हिंसक रूप धारण कर लेता है
जो अविश्वास वरिष्ठ नेताओं के बीच उभरता है वही जनता के सामने आता है। वही अविश्वास कार्यकर्ताओं के स्तर पर जाकर हिंसक रूप धारण कर लेता है जिसका हालिया उदाहरण दिल्ली में हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला। बीते दिनों दिल्ली में जो हुआ वह न केवल देश के लिए शर्मनाक था, बल्कि इससे विदेशों में भी भारत विरोधी तत्वों को अनर्गल प्रलाप का अवसर मिल गया। जिस देश की प्राचीन सभ्यता सभी धर्मों के आदर के लिए जानी और सराही जाती रही, वहां अब सांप्रदायिक दंगे लोगों की जान ले रहे हैं।
बख्तियार खिलजी ने नालंदा विवि में जो काम किया, 21वीं सदी में दिल्ली के दो स्कूलों में दोहराया गया
जो काम बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्याल में 1193 में किया था उसे इक्कीसवीं सदी में दिल्ली के दो स्कूलों में दोहराया गया। यह निरंतरता कब और कैसे समाप्त होगी? संवेदनशील आयु में जो चोट उन बच्चों के मानस पटल पर लगी होगी, वह कैसे मिटेगी? आवश्यकता तो यह थी कि सभी नेता अपराधियों को अलग-थलग करते, राजनीति भूलकर एक साथ आते, मगर ठीक इसका उल्टा ही हुआ। इसमें संदेह नहीं कि संसद में दिल्ली प्रकरण को लेकर जो शर्मनाक हंगामा हुआ वह समस्या के समाधान के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक लाभ के लिए था।
आम जनता नेताओं तथा दलों से यही अपेक्षा करती है कि वे नई समझ विकसित करें
आम जनता नेताओं तथा दलों से यही अपेक्षा करती है कि वे नई समझ विकसित करें। देशहित से बड़ा दलहित नहीं है। आज भी देश और जनता तमाम समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में प्रत्येक जनप्रतिनिधि का दायित्व है कि वह उनके जीवन की मुश्किलों को समझकर उन्हें दूर करने की दिशा में समर्पित होकर कार्य करे। सांसदों का व्यवहार अनुकरणीय होना चाहिए। संसद में जो हुआ उससे व्यथित लोकसभा अध्यक्ष की पीड़ा को सबने देखा। अब समय आ गया है कि सांसद क्षमा याचना कर आश्वासन दें कि संसद अपनी प्रतिष्ठा को शीघ्र ही पुनर्स्थापित करेगी।
( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत हैं )