नई दिल्ली [ बलबीर पुंज ]। हाल के दिनों में विश्व की दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने एशियाई राजनीति को प्रभावित किया है। पहली-अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका द्वारा पुन: संरक्षणवादी आर्थिक नीति का दोहन और दूसरा-सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में अमेरिका के बाद दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था चीन में लौटा तानाशाही माक्र्सवादी अधिनायकवाद। इसी पृष्ठभूमि में चीन द्वारा भारत से रिश्ते सुधारने और उन्हें सुदृढ़ करने संबंधी वक्तव्य भी प्रकाश में आया। चीन की पहल नि:संदेह स्वागतयोग्य है, किंतु 56 वर्ष पहले हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नाम पर छल का अनुभव कर चुके भारत को क्या अब चीन के प्रति निश्चिंत हो जाना चाहिए? दुनिया के दो सर्वाधिक आबादी वाले देश और आर्थिक महाशक्ति होने के कारण भारत-चीन के सामान्य संबंध वैश्विक शांति और मानवता के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं, यह इस बात से स्पष्ट है कि इन दोनों देशों की जनसंख्या का कुल योग करीब 275 करोड़ है जो वैश्विक मानव संसाधन (760 करोड़) का 36 प्रतिशत है। दोनों देश 1.23 करोड़ वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले हुए हैं। एक तरह से दुनिया का हर तीसरा व्यक्ति भारतीय या चीनी है।

चीन के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम से विश्व की चिंता बढ़ी

जहां भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र होने के साथ-साथ सामरिक रूप से चौथा सबसे ताकतवर देश और उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति है वहीं साम्राज्यवादी मानसिकता, निरंकुश माक्र्सवादी राजनीतिक अधिनायकवाद और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के घातक संयोजन से चीन विश्व की बड़ी शक्तियों में से एक बना हुआ है। उसकी इस प्रगति में प्रखर राष्ट्रवाद की भी मुख्य भूमिका है। विगत दिनों बीजिंग में एक वार्षिक प्रेस वार्ता में चीनी विदेश मंत्री वांग-यी ने कहा, ‘चीनी ड्रैगन और भारतीय हाथी को आपस में लड़ना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें साथ में नृत्य करना चाहिए। यदि चीन और भारत एकजुट हो जाएं तो वे एक और एक दो के स्थान पर एक और एक ग्यारह हो सकते हैं। हिमालय भी हमें मित्रवत संबंधों से नहीं रोक सकता।’ विवादों पर वांग ने कहा, ‘कुछ मुश्किलों के बावजूद चीन-भारत के रिश्ते बेहतर हो रहे हैं। चीन अपने अधिकार और वैध हितों को बरकरार रखते हुए भारत के साथ संबंधों के संरक्षण पर ध्यान दे रहा है।’ क्या इन लच्छेदार बातों के पीछे चीन का वास्तविक विस्तारवादी चेहरा छिपा रह सकता है? चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति के साथ उसके हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने विश्व की चिंता को कहीं अधिक बढ़ा दिया है। चीनी संसद ने राष्ट्रपति शी चिनफिंग के आजीवन सत्ता में बने रहने संबंधी प्रस्ताव पर औपचारिक मुहर लगा दी। अब चिनफिंग आजीवन राष्ट्रपति बने रहेंगे। उनसे पहले चीन की सांस्कृतिक क्रांति के अगुआ और सत्तारूढ़ दल के संस्थापक माओत्से तुंग ने भी निरंकुश सत्ता का उपभोग किया था, जिसमें ‘समाजवादी कल्पनालोक’ के नाम पर हजारों-लाखों निरपराधों को मौत के घाट उतार दिया गया था। गत वर्ष ही चिनफिंग भी नए युग में चीनी विशेषता वाले समाजवादी दर्शन को आगे बढ़ाने की घोषणा कर चुके हैं।

चीन के हर दावे हो रहे झूठे

साम्यवादी चीन का इतिहास उसके कपट भरे साम्राज्यवादी चरित्र की व्याख्या करता है। एक अक्टबूर 1949 की साम्यवादी क्रांति के बाद उसने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। फिर सोवियत संघ के साथ मिलकर कोरिया में संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं से युद्ध किया। इसके बाद भारतीय जमीन पर गिद्ध-दृष्टि डालते हुए उस पर हमला कर कब्जा जमा लिया। आज स्थिति यह है कि चीन का जहां 23 देशों के साथ सीमा-समुद्री विवाद चल रहा है वहीं विश्व में मानवता के लिए खतरा बन चुके पाकिस्तान और उत्तर कोरिया का घनिष्ठ मित्र बना हुआ है। भारत से संबंध के संदर्भ में चीन की नीति स्पष्ट है जिसके अनुसार जिस पर चीन का दावा है या फिर उसका कब्जा है उस पर वह वार्ता के लिए तैयार तो है, किंतु साथ ही चाहता है कि भारत निर्वासित तिब्बतियों को सुविधाएं देना बंद करे और अरुणाचल प्रदेश से अपना संबंध नकार दे। भारत-चीन सीमा विवाद लगभग छह दशक पुराना है जिसमें कई दौर की वार्ता के बाद भी पर्याप्त सफलता नहीं मिली है। चीन यह भी दावा करता है कि आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने के प्रयास में वह गंभीर है, किंतु जब हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे पाकिस्तानी आतंकियों पर कार्रवाई की बारी आती है तो वह उसमें हर बार असफल हो जाता है। वर्ष 1962 के प्रत्यक्ष युद्ध के बाद से चीन परोक्ष रूप से भारत को निरंतर अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है जिसमें उसने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के विरुद्ध संयुक्त रूप से छद्म युद्ध छेड़ा हुआ है। यही नहीं, बीते कई वर्षों से चीन अपने प्राचीन रणनीतिकारों के अनुरूप सामरिक-आर्थिक घेराबंदी करने के लिए भारत के पड़ोसी देशों से निकटता भी बढ़ा रहा है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार आदि पड़ोसी देशों में चीन का भारी निवेश और आठ अरब डॉलर के कर्ज तले दबे श्रीलंका के महत्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह को चीन द्वारा 99 वर्षों के लिए हथियाना- इसके उदाहरण हैं।

क्या हाथी और ड्रैगन के संबंध सामान्य हो सकते हैं? 

परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में भारत के प्रवेश पर चीन की बाधा, डोकलाम विवाद सहित अन्य चीनी अड़चनों की पृष्ठभूमि में वर्ष 2017 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 18.6 प्रतिशत बढ़कर 5 लाख 48 हजार करोड़ रुपये की ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गया, किंतु सत्य क्या है? चीन के साथ व्यापार भारत के लिए सदैव ही घाटे का सौदा रहा है। 2017 में भारत को इससे 51.75 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है। वास्तव में, भारत औसतन चीन को 10-15 अरब डॉलर की वस्तुएं निर्यात (मुख्यत: कच्चा माल) करता है, जबकि चीन से 60-70 अरब डॉलर का माल आयात (अधिकांश विद्युत उपकरण) करता है। पिछले कई वर्षों में यह व्यापारिक घाटा 40-50 अरब डॉलर के आसपास रहा है। इसका प्रमुख कारण चीन की वह दोगली नीति है जिसमें भारतीय व्यापारियों को सीमित सुविधाओं के साथ प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है। जहां ‘वन बेल्ट, वन रोड’ या ‘सिल्क रोड’ जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं के बल पर चीन अपनी साम्राज्यवादी नीति को आगे बढ़ा रहा है, वहीं उसे दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत के बढ़ते प्रभाव से चुनौती मिल रही है।

आज भारतीय नेतृत्व न केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण है, बल्कि नेहरूयुगीन नारे हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के भ्रमजाल से भी बाहर निकल चुका है। इस वर्ष राजधानी दिल्ली में संपन्न हुए अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन सम्मेलन, ‘साझा मूल्य, साझा भाग्य’ मंत्र पर हुई भारत-आसियान वार्ता और भारत के हालिया रक्षा समझौतों से चीन की छटपटाहट साफ देखी जा रही है। क्या हाथी और ड्रैगन के संबंध सामान्य हो सकते हैं? यह तभी संभव है जब चीन अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं का परित्याग करते हुए अपने पड़ोसी देशों की संप्रभुता व उनकी अखंडता का सम्मान करे और आतंकवाद पर अपना रुख स्पष्ट करे। क्या यह वर्तमान परिस्थितियों में संभव है? अब यदि इसका उत्तर ‘हां’ में है तो हाथी और ड्रैगन अवश्य एक साथ नृत्य कर सकते हैं।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]