[डॉ. भरत झुनझुनवाला]। देश के प्रमुख आर्थिक सलाहकार यानी सीईए कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने भारतीय उद्यमियों का आह्वान किया है कि वे निवेश बढ़ाएं। चूंकि निवेश ही आर्थिक विकास का अहम पैमाना है, लिहाजा हमें निवेश और खपत के संबंध को समझना होगा।

यह कहानी अंडे और मुर्गी जैसी है। यदि हम मानें कि पहले निवेश होता है। जैसे किसी उद्यमी ने कपड़ा बनाने की फैक्ट्री में निवेश किया तो उस निवेश से कुछ श्रमिकों को वेतन मिलता है। उस वेतन से वे खपत करते हैं। उनके द्वारा खपत किए जाने से बाजार में तमाम वस्तुओं की मांग बढ़ती है। इस मांग की पूर्ति के लिए उद्यमी पुन: निवेश करते हैं।

निवेश किया तो बढ़ा उत्पादन 
ऐसा मानें तो आर्थिक विकास का बुनियादी कारक निवेश है। यह हुआ कि अंडा पहले आता है। अब इसी चक्र को हम खपत से भी शुरू कर सकते हैं। जैसे यदि देश की जनता ने कपड़े की खपत बढ़ाई तो कपड़े के दाम बढ़े। कपड़े की मांग और दाम बढ़े तो उद्यमी ने कपड़े की फैक्ट्री में निवेश किया। निवेश किया तो उत्पादन बढ़ा और उत्पादन बढ़ा तो उसमें श्रमिकों को वेतन मिला जिससे पुन: खपत में वृद्धि हुई। यह हुआ कि मुर्गी पहले आती है।

खपत की गाड़ी अकेले आगे नहीं जा सकती
स्पष्ट है कि यह एक गोल चक्र है जिसे हम किसी भी छोर से शुरू कर सकते हैं, लेकिन खपत और निवेश को साथ-साथ चलना होता है जैसे आपस में बंधी हुई दो गाड़ियां। मान लीजिए खपत अधिक हुई और निवेश कम हुआ। लोगों ने कपड़े ज्यादा खरीदे और उद्यमी ने कपड़े बनाने की फैक्ट्री कम लगाई। ऐसे में बाजार में कपड़े के दाम बढेंगे जिसके कारण खपत कम हो जाएगी। निवेश के अभाव में खपत नहीं बढ़ सकती है। खपत की गाड़ी अकेले आगे नहीं जा सकती है, क्योंकि पीछे बंधी निवेश की गाड़ी रुकी हुई है।

माल के दाम घटेंगे तो निवेशक को घाटा होगा 
इसी प्रकार यदि हम मानकर चलें कि निवेश में वृद्धि हुई और खपत में कटौती हो गई तो निवेश में वृद्धि से उत्पादन बढ़ेगा। उत्पादन बढ़ेगा तो माल के दाम घटेंगे। माल के दाम घटेंगे तो निवेशक को घाटा होगा और पुन: निवेश बंद हो जाएगा। निवेश की गाड़ी भी अकेले आगे नहीं जा सकती है, क्योंकि पीछे बंधी खपत की गाड़ी रुकी हुई है। अत: खपत और निवेश को साथ- साथ चलना ही होता है।

खपत और निवेश के साथ-साथ चलने में भी एक विशेष अनुपात होता है। इसे इस तरह समझें कि यदि हम बैल से खेती करते हैं तो निवेश कम होता है और खपत ज्यादा होती है, क्योंकि बैल की देखरेख के लिए ज्यादा श्रमिक चाहिए होते हैं जबकि बैल का दाम तुलना में कम होता है। यदि हम ट्रैक्टर से खेती करें तो ट्रैक्टर में निवेश अधिक और श्रमिक द्वारा खपत कम होती है।

खपत और निवेश का अनुपात  
इसलिए खपत का हिस्सा कम और निवेश का हिस्सा ज्यादा होता है। इस प्रकार खपत और निवेश का अनुपात तकनीकों से निर्धारित हो जाता है। इस अनुपात में दोनों को साथ- साथ चलना होता है। फिर भी खपत और निवेश में ज्यादा प्रभावी खपत ही दिखती है। जैसे फिलहाल बाजार में माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। निवेश हो चुका है और उत्पादन हो रहा है, लेकिन खपत न होने के कारण मंदी छाई हुई है।

खपत के प्रभावी होने का प्रमाण धर्मस्थल इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट डेवलपमेंट, मैसुरु के अध्ययन से मिलता है। इसके अनुसार देश के सकल घरेलू उत्पाद में जो परिवर्तन होते हैं उसके प्रमुख कारकों में 26 प्रतिशत हिस्सा खपत का है और चार प्रतिशत निवेश का है। यानी देश की आय में उतार-चढ़ाव खपत के कारण होता है।

10 पैसे की खपत और 90 पैसा निवेश 
सीईए सुब्रमण्यम के अनुसार उन देशों में विकास का कारक खपत होती है जहां पर आय 10,000 डॉलर प्रति व्यक्ति से अधिक है। यह बात अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर खरी नहीं उतरती है। अमीरों द्वारा यदि एक रुपये की आय होती है तो उसमें से केवल 10 पैसे की खपत की जाती है और 90 पैसा निवेश किया जाता है। इसकी तुलना में यदि गरीबों को एक रुपये की आय होती है तो उसमें 90 पैसे की खपत की जाती है और 10 पैसे का निवेश किया जाता है। अत: उन देशों में खपत ज्यादा बढ़ती है और विकास तेज होता है जहां गरीबों की आय में वृद्धि होती है।

वैश्विक मंदी का मुख्य कारण असमानता
अन्य अर्थशास्त्रियों के आकलन से भी सुब्रमण्यम की बात मेल नहीं खाती है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जोसेफ स्टिगलिट्स के अनुसार मौजूदा वैश्विक मंदी का मुख्य कारण असमानता है। अमीरों की आय अधिक है और गरीबों की कम। इस कारण बाजार में मांग सुस्त है। संभव है कि सुब्रमण्यम ने यह बात सिर्फ इसलिए कही हो कि भारतीय उद्यमी निवेश करने को उन्मळ्ख हों।

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नीति आयोग के पूर्व प्रमुख अरविंद पानगड़िया ने इस संदर्भ में कहा है कि आर्थिक विकास को वापस पटरी पर लाने के लिए उद्योगों को टैक्स आदि में छूट देने के स्थान पर आर्थिक सुधारों को लागू करना चाहिए। मैं इससे सहमत हूं कि उद्योगों को टैक्स आदि में रियायतें देने से बात नहीं बनेगी। यदि कार का दाम पांच लाख से घटकर चार लाख हो जाए तब भी जनता के पास उसे खरीदने की क्षमता नहीं है।

आर्थिक सुधारों के कारण आई मंदी
इसीलिए उद्योगों को दी गई छूट प्रभावी नहीं होगी। बहरहाल पानगड़िया द्वारा आर्थिक सुधारों में गति के सुझाव में कुछ पेंच फंसे हुए हैं। यहां प्रश्न है कि कौन सा सुधार? अभी तक का अनुभव यह है कि आर्थिक सुधारों के कारण ही मंदी आई है। जीएसटी जैसा सुधार लागू करने के कारण छोटे उद्योग दबाव में आ गए। इस दबाव से उनमें रोजगार के अवसर कम सृजित हुए। श्रमिकों के वेतन में कटौती हुई और मंदी पैठ कर गई। इसलिए यदि हम जीएसटी जैसे सुधारों को और मुस्तैदी से लागू करेंगे तो मंदी बढ़ेगी, न कि घटेगी।

सेवाओं का वैश्विक बाजार 
मंदी को तोड़ने के लिए दो कार्य करने होंगे। पहला यह कि छोटे उद्यमियों को संरक्षण देना होगा। छोटे उद्यमी रोजगार के अधिक अवसर सृजित करते हैं। उनके द्वारा किए उत्पादन में वेतन का हिस्सा अधिक होता है जिससे खपत बढ़ती है। खपत बढ़ने से खपत और निवेश का सुचक्र स्थापित हो जाता है। दूसरा हमें विदेशों को आपूर्ति करने के लिए विनिर्माण के बजाय सेवा क्षेत्र पर अधिक ध्यान देना होगा। सेवाओं का वैश्विक बाजार लगातार बढ़ रहा है। इसलिए हमें ‘मेक इन इंडिया’ के स्थान पर ‘सव्र्ड फ्रॉम इंडिया’ को अपनाना होगा। तभी हम रोजगार उपलब्ध करा सकेंगे। इससे खपत बढ़ेगी और निवेश भी होगा। इन दो तरीकों से हम मंदी को मात दे सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम, बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं)

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