सिद्धार्थ मिश्र। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं जिनके अनेक दूरगामी परिणाम होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने आधार की अनिवार्यता व निजता का उल्लंघन, समलैंगिकता व व्याभिचार को अपराध मुक्त करने सहित अनुसूचित जाति, जनजाति में क्रीमी लेयर सिद्धांत, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर बेहद संवेदनशील मुद्दों पर प्रगतिशील निर्णय देकर एक नए भारत के निर्माण की नींव रखी है। कोर्ट ने इन निर्णयों के माध्यम से महिला अधिकार व सशक्तीकरण, व्यक्ति की गरिमा को कायम रखने और अस्पृश्यता व पुरुष वर्चस्व को खत्म करने की दिशा में कदम उठाया है। परंतु प्रत्येक निर्णय के सामाज पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करने की भी जरूरत है। आधार, सबरीमाला मंदिर व तीन तलाक मामलों में दिए निर्णयों को जनता से समर्थन मिला है। समलैंगिकता व व्याभिचार पर कोर्ट के निर्णय पर लोगों ने मिलीजुली प्रतिक्रिया व्यक्त की है।

आधार कानून को सही ठहराया
लंबे समय से अपेक्षित आधार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कुछ प्रावधानों को निरस्त कर आधार कानून को सही ठहराया है। कोर्ट का मानना है कि आधार व्यक्ति की निजता पर एक युक्तियुक्त प्रतिबंध है जिससे बेहद गरीबी में जीवन जी रही बड़ी आबादी को गरिमा प्रदान करने का उद्देश्य पूरा होता है। कोर्ट ने व्यवस्था की है कि आयकर रिटर्न, पैन व सब्सिडी वाली सरकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए आधार जरूरी रहेगा। परंतु बैंक खाते, मोबाइल फोन, स्कूल में दाखिला और नीट व यूजीसी की परीक्षाओं के लिए यह जरूरी नहीं होगा। कोर्ट ने माना कि डाटा सुरक्षा महत्वपूर्ण है इसलिए सरकार अवैध घुसपैठियों को आधार नंबर न लेने दे। कोर्ट ने कहा है कि आधार केवल न्यूनतम बायोमेटिक सूचना मांगता है जिससे निजता का उल्लंघन नहीं होता। न्यायालय ने माना है कि आज कल्याणकारी राज्य में तकनीक उत्तम शासन का प्रमुख औजार बन चुकी है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, छात्रवृत्ति, स्कूल में भोजन व एलपीजी सब्सिडी में विशाल रकम लगी होती है और सुरक्षित आधार से ही इन योजनाओं का लाभ गरीबों तक पहुंच सकता है।

आधार कानून को सही ठहराया
यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने चार-एक के बहुमत से दिया है जिसमें चार जजों ने आधार कानून को उचित ठहराया। जस्टिस डीवाइ चंद्रचूड़ ने इससे असहमति जताई और कहा कि आधार और उसके नियम असंवैधानिक हैं। उन्होंने कहा कि यदि आधार को सरकार द्वारा दी जाने वाली प्रत्येक सेवा और लाभ के लिए अनिवार्य कर दिया जाता है तो उसके बिना देश में रहना असंभव हो जाएगा। यह फैसला काफी हद तक उचित है क्योंकि कई सेवाओं के लिए आधार की अनिवार्यता को कोर्ट ने समाप्त कर दिया है। परंतु इस मामले में यह आश्चर्यजनक है कि जब निजता के अधिकार को पहले ही मौलिक अधिकार घोषित किया जा चुका है तो ऐसे में कोर्ट द्वारा आधार कानून को उचित ठहराना कितना न्यायप्रद है। केरल के सबरीमाला मंदिर में सदियों से महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को कोर्ट ने हटा दिया है। कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार की रोक ने धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को एक मृत अक्षर बना दिया और यह महिला की व्यक्तिगत गरिमा पर ठेस थी।

इस रोक का आधार था कि मासिक धर्म से गुजर रही महिला प्रदूषित व अपवित्र होती है और वह भगवान अय्यप्पा के ब्रह्मचर्य की शपथ लिए हुए पुरुष भक्तों का ध्यान भटका सकती है। कोर्ट का कहना है कि यह पुरुष वर्चस्व को दर्शाता है। जहां एक तरफ हम देवी की उपासना करते हैं वहीं एक निश्चित उम्र की महिला को अशुद्ध समझा जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय समाज आज तक अपने यहां महिलाओं, कमजोर व पिछड़े वर्गो को स्थान नहीं दे पाया जिसके वे वास्तव में अधिकारी हैं। समाज के विस्तार में विभिन्न कारणों से अनेक मान्यताएं जन्म लेती हैं जिनमें कुछ अनुचित भी होती हैं। भारत में वर्ण व्यवस्था के चलते, बाहरी आक्रमणों व अनेक ऐतिहासिक कारणों से अनेक कुप्रथाएं व भ्रांतिया उत्पन्न हो गई थी जिसमें महिलाओं को दुर्बल और पुरुषों को शारीरिक व मानसिक रूप से सबल समझा जाने लगा। पुरुषों ने महिला को उपभोग की वस्तु मात्र समझा और उसके संबंध में समस्त निर्णय लेने का अधिकार भी अपने पास रखा। इस पुरुषीय वर्चस्व की व्यवस्था में महिलाओं को अनेक अधिकारों से वंचित कर दिया गया।

यद्यपि कोर्ट के ज्यादातर निर्णय उदार व प्रगतिशील प्रतीत होते हैं, पर कुछ मामलों में यह जानना जरूरी है कि जो कानून सैकड़ों वर्षो से सफलतापूर्वक कार्यरत हैं क्या वे जनता को कठिनाई पहुंचा रहे थे। यदि ऐसा नहीं है तो फिर उस कानून को बदलने की क्या जरूरत थी। बेहतर होता कि कोर्ट समलैंगिकता व व्याभिचार के मामलों में कोई अन्य व्यवस्था करती। एक व्यक्ति की नैतिकता व समाज की नैतिकता में अंतर होता है और एक समाज की मान्यताएं व नैतिकता सैकड़ों वर्षो में उत्पन्न होती है जिन्हें अचानक समाप्त नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसी व्यक्ति विशेष की नैतिकता को पूरे समाज पर थोप देने से विपरीत परिणाम भी आ सकते हैं। जरूरी नहीं है कि न्यायालय हमेशा सही निर्णय ही देंगे और ऐसा स्वाभाविक है कि कुछ मामलो में न्यायालय के निर्णय कठोर लग सकते हैं और जनता उनसे सहमत न रहे। यदि राज्य को ऐसा प्रतीत होता है तो वह ऐसे मामलों में कोर्ट के आदेश को पलट भी सकता है। जैसा कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एससी, एसटी अधिनियम मामले में दिए निर्णय में किया गया है। अनेक मसलों में निर्णय जजों की व्यक्तिगत सोच पर भी निर्भर होते हैं।

शिक्षा व परवरिश समेत अनेक चीजें उनकी सोच को प्रभावित कर सकते हैं। इन मामलो में कोई वस्तुनिष्ठ पैमाना बनाना कठिन है कि सदैव सटीक, उचित, उत्तम व संपूर्ण निर्णय आएं। सैद्धांतिक रूप से वही कानून सही माना जाना चाहिए जिससे समस्त जनता या फिर एक बड़ा हिस्सा सहमत हो। यह पता लगाना कठिन है कि किसी कानून या निर्णय का जनता पर क्या प्रभाव पड़ा है। ऐसे में अनेक कानूनों का पालन जनता के लिए कष्टप्रद होता है, परंतु राज्य के पास उनके प्रभाव को आंकने का सही पैमाना न होने से वे चलते रहते हैं। कानून का निर्माण व उसका अनुपालन दोनों अलग बाते हैं। चूंकि कानून का क्रियान्वयन पुलिस या अन्य एजेंसियों व निचले न्यायालयों के माध्यम से होता है इसलिए इसमें लंबा समय लगता है और अनेक स्तर पर जनता के शोषण की गुंजाइश बनी रहती है। बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय के ज्यादातर निर्णय प्रशंसनीय व स्वागतयोग्य हैं और इनके अनुपालन से देश में समानता के लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर, हैं)