रसाल सिंह: सुप्रीम कोर्ट ने हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस निर्णय में केंद्र सरकार को आदेश दिया गया कि सभी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाए। अदालत ने अपने आदेश में चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को रेखांकित करते हुए कहा कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए। उसने सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए "आवश्यक बदलाव" करने का निर्देश दिया, ताकि भारत का चुनाव आयोग "वास्तव में स्वतंत्र" हो जाए।

इस आदेश के माध्यम से शीर्ष अदालत ने सरकार से उस प्रारूप का पालन करने को कहा, जिसे स्वयं उसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 2015 में निरस्त कर दिया था। उसने उच्चतर न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान गोपन, गैर-जवाबदेह औरमनमानी कालेजियम प्रणाली को सही ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला और कानून मंत्री किरन रिजिजू और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के साथ जारी उसका वाक-युद्ध एकबार फिर से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को चर्चा और चिंतन के केंद्र में ले आया है।

पिछले कुछ महीनों में न्यायिक नियुक्ति के तरीके पर केंद्र और सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव जैसी स्थिति देखी गई है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एनजेएसी अधिनियम को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए उसके इस निर्णय को संसद की सर्वोच्चता, संविधान की मूल भावना और लोकतांत्रिक जनादेश के प्रतिकूल बताते हुए उनकी अवहेलना करार दिया था।

कानून मंत्री किरन रिजिजू सहित अन्य कई महत्वपूर्ण व्यक्ति भी एनजेएसी की आवश्यकता को रेखांकित करते रहे हैं, ताकि न्यायिक प्रणाली की स्वतंत्रता, पारदर्शिता, निष्पक्षता और जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए लंबे समय से लंबित न्यायिक सुधारों को लागू किया जा सके। उल्लेखनीय है कि विभिन्न न्यायालयों में लंबित करोड़ों वादों और वाद निस्तारण की सुदीर्घ, जटिल और महंगी होती प्रक्रिया ने न्याय-व्यवस्था में आम आदमी के विश्वास को कम किया है। न्याय मांगने वाले को न्याय के लिए असहनीय प्रतीक्षा, प्रताड़ना और पीड़ा सहनी पड़ती है और वह स्वयं दंडित महसूस करता है।

एनजेएसी की परिकल्पना उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र और समावेशी निकाय के रूप में की गई थी। इसे संसद और 16 राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित किया गया था, परंतु सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 2015 में इसे निरस्त कर दिया। इसके बाद से पहले की तरह कालेजियम प्रणाली के माध्यम से ही न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया जारी है। कालेजियम प्रथा 1993 में शुरू हुई थी। इस प्रणाली में सरकार और संसद की बहुत सीमित भूमिका है और शक्ति केवल न्यायपालिका के हाथों में केंद्रित है। इस प्रणाली में पारदर्शिता, निष्पक्षता, स्पष्टता, जवाबदेही और समावेशन का पूर्ण अभाव है। इसलिए इस गोपन प्रक्रिया पर लगातार सवाल उठते रहे हैं।

निश्चय ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सर्वोपरि है, परंतु वर्तमान कालेजियम प्रणाली की स्वकेंद्रित असीम शक्तियां न सिर्फ भारत के बल्कि दुनिया के सभी संविधानों में अंतर्निहित नियंत्रण और संतुलन के प्रावधानों के प्रतिकूल हैं। वर्तमान में, केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच गतिरोध और टकराव जैसी स्थिति बनती जा रही है। सरकार अनुपयुक्त और संदिग्ध व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं करना चाहती। इसलिए कालेजियम द्वारा की गई सिफारिशों की कुछ फाइलें लंबित रहती हैं।

दूसरी ओर, सरकार द्वारा पुनर्विचार के अनुरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा चयनित नामों को ही बार-बार भेजता रहता है। नतीजतन, न्यायिक रिक्तियों में लगातार वृद्धि हो रही है, जिससे बड़ी संख्या में लंबित मामलों के समयबद्ध निस्तारण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सरकार और उच्चतम न्यायालय इस स्थिति का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ते हुए देखे जा रहे हैं। उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्तियों की कालेजियम प्रणाली को अधिक व्यापक, समावेशी, पारदर्शी, जवाबदेह नियुक्ति-तंत्र से बदलने की आवश्यकता है। सरकार ने संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 को लागू किया था।

एनजेएसी में अध्यक्ष के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश, दो अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति सदस्य के रूप में शामिल किए गए थे। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जानी थी, जिसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता शामिल थे। न्यायपालिका ने एनजेएसी को न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत के लिए खतरा मानते हुए 2015 में एनजेएसी और 99 वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित करके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द कर दिया था और अपनी मनमानी शक्तियों की सर्वोच्चता पुनः प्राप्त कर ली थी।

न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए समावेशी और पारदर्शी प्रक्रिया के साथ एक हाइब्रिड तंत्र भारत के लिए वांछनीय है। एक ऐसे तंत्र की आवश्यकता है जो पर्याप्त प्रतिनिधित्व, समावेशिता, योग्यता और पारदर्शी चयन प्रक्रिया सुनिश्चित करे। इसकी पहल स्वयं उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना भारतीय लोकतंत्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक और शुभकर होगा। इस पृष्ठभूमि में एनजेएसी में संशोधन पर पुनर्विचार करना भी महत्वपूर्ण होगा।

संशोधित एनजेएसी में न्यायपालिका की आशंकाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। सरकार द्वारा नामित सदस्यों के वीटो पावर प्रावधान को लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रिया के साथ बदल दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा सरकार की अनुकंपा से प्राप्त राज्यसभा की सदस्यता और राज्यपाल जैसे पद स्वीकारने पर भी रोक लगाई जानी चाहिए। इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि नए बनने वाले नियुक्ति तंत्र में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का समुचित प्रतिनिधित्व तो हो, किंतु इनमें से किसी के पास भी मनमानी शक्तियां नहीं होनी चाहिए। केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय को पारस्परिक संवाद के माध्यम से संशोधित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग लागू करने की दिशा में यथाशीघ्र आगे बढ़ना चाहिए।

(लेखक दिल्ली विवि के किरोड़ीमल कालेज में प्रोफेसर हैं)