जागरण संपादकीय: कानून नहीं सोच बदलने से रुकेंगे दुष्कर्म, समाधान के तलाशने होंगे नए उपाय
दुष्कर्म जैसे अपराध से निपटने के लिए कठोर कानून होना अच्छी बात है मगर हर बार इस अपराध से मात्र कानून से निपटने की बात करना और अधिक कठोर कानून बनाना बताता है कि हमें लोकतंत्र और संविधान आदि में कोई खास यकीन नहीं है। निर्भया मामले में भी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी को मात्र 30 दिन का समय दिया गया था कि वे अपनी रिपोर्ट सौंपें।
क्षमा शर्मा। बीते दिनों बंगाल में जिस तरह एक युवा डॉक्टर की उसके ही कार्यस्थल यानी कि अस्पताल में दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई, उसने पूरे देश के डॉक्टरों में उबाल पैदा कर दिया है। मीडिया में आई खबरों के अनुसार यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि वहां के प्रशासन ने इस घटना पर लीपापोती का ही प्रयास किया।
डॉक्टर आंदोलित हुए तो वहां के कई नेता और बहुत से बुद्धिजीवी कहने लगे कि देश भर में यह सब हो रहा है, उस पर क्यों नहीं बोलते। यानी कि जो लोग अब बोल रहे हैं, वे कोई गुनाह कर रहे हैं। तेरे यहां दुष्कर्म हो तो मैं गला फाड़ूं और मेरे यहां हो तो चुप लगा जाऊं, बचने की कोशिश करूं। यह प्रवृत्ति बेहद शर्मनाक और घातक है।
दुष्कर्म जैसे अपराध जहां भी हों, वे निंदा और सजा के लायक ही होते हैं। यह बात और भी बुरी है कि एक महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उस पीड़ित लड़की का पक्ष लेने के बजाय लगातार बचने की कोशिश की। ममता बनर्जी ने लड़की के घर वालों से बहुत बाद में कहा कि हां हमसे गलती हुई। अगर इस मसले पर आंदोलन न होता, मीडिया का साथ नहीं मिलता तो क्या होता? इसे तो आत्महत्या कहकर रफा-दफा कर ही दिया गया था।
आपको याद होगा कि दिल्ली में निर्भया मामले में शीला दीक्षित की इसी बात पर आलोचना की गई थी कि एक महिला मुख्यमंत्री के रहते ऐसा कैसे हो गया। तब भी मांग की गई थी कि ऐसा कठोर कानून बनाया जाए कि लोग महिलाओं के खिलाफ अपराध करने से डरें। तब भी कानून बनाने में वही जल्दबाजी दिखाई गई थी, जो आज बंगाल में दिखाई गई है।
दुष्कर्म जैसे अपराध से निपटने के लिए कठोर कानून होना अच्छी बात है, मगर हर बार इस अपराध से मात्र कानून से निपटने की बात करना और अधिक कठोर कानून बनाना, बताता है कि हमें लोकतंत्र और संविधान आदि में कोई खास यकीन नहीं है। निर्भया मामले में भी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी को मात्र 30 दिन का समय दिया गया था कि वे अपनी रिपोर्ट सौंपें।
उन्होंने उसे 29 दिन में ही तैयार कर सौंप दिया था। इसमें उन्होंने अपराध की गंभीरता के अनुसार सात साल के मुकाबले दस साल, बीस साल और उम्रकैद की सिफारिशें की थीं। साथ ही सड़कों पर अच्छी स्ट्रीट लाइट लगाने और चौबीस घंटे सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था उपलब्ध कराने की भी बात की गई थी, जिससे कि अपराधी अंधेरे का फायदा न उठा सकें।
इन्हीं अनेक सिफारिशों के आधार पर देश में नया दुष्कर्म कानून बनाया गया था। देखने की बात यह है कि इन बारह वर्षों में कितने अपराधियों को सजा मिली। बल्कि इस बीच तो दुष्कर्म के अपराध और दुष्कर्म के झूठे केस दोनों ही बहुत बढ़े हैं। क्या सड़कों की लाइटें ठीक हो सकीं? सार्वजनिक परिवहन को लेकर छोटे शहरों की तो बात क्या करें, क्या दिल्ली में ही चौबीस घंटे उपलब्ध हो सका? नए कानून के बावजूद निर्भया के खिलाफ अपराध करने वालों को सजा देर से मिल सकी।
अब बंगाल में जो नया कानून बनाया गया है, उसमें भी इक्कीस दिन में सुनवाई पूरी होने का प्रविधान है। दुष्कर्म और हत्या के मामलों में या ऐसे मामले जहां अपराध को अंजाम देने के बाद पीड़िता को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, उसमें फांसी की सजा का प्रविधान है। जब भी कोई दुष्कर्म हो एक नया कानून बना दिया जाए, तो एक दिन शायद यह होगा कि लोग मांग करने लगेंगे कि जैसे ही कोई पकड़ा जाए उसे गोली से उड़ा दिया जाए।
जैसा कि कई साल पहले कर्नाटक में अपराधियों के साथ किया गया था और बहुत से लोगों ने इस प्रकार के दंड का समर्थन किया था। जब तक अदालत में आरोप सिद्ध न हो जाए, तब तक आरोपित को अपराधी कैसे माना जा सकता है? त्वरित न्याय एक तरह से कानून को पीछे खिसकाकर तानाशाही को निमंत्रण देना होता है। फिर अपने यहां जिस तरह से जांच की जाती है, उसमें अनेक बार अपराधियों के मुकाबले निरपराधों को पकड़ लिया जाता है।
तब ये कठोर से कठोर कानून क्या वाकई अपराधियों को सजा देंगे या ये बहुत से निरपराधियों की भी बलि लेंगे, क्योंकि एनसीआरबी के ही आंकड़ों को अगर देखा जाए तो दुष्कर्म के मामले जहां बढ़ रहे हैं, वहीं झूठे मामले बनाकर कानूनों का गलत इस्तेमाल भी हो रहा है। अपने यहां की जो न्यायिक प्रक्रिया है उसके बारे में कहा जाता है कि यह बहुत धीमी है। करोड़ों मामले अदालतों में लंबित हैं।
यह बात एकदम सही भी है। हालांकि न्यायिक प्रक्रिया ऐसी भी नहीं होनी चाहिए कि जल्दबाजी के चक्कर में कोई निरपराध फांसी पर चढ़ा दिया जाए, क्योंकि बंगाल के नए कानून के अनुसार दुष्कर्म के किसी भी मामले की जांच इक्कीस दिनों में पूरी की जानी चाहिए। यह समयसीमा पहले दो महीने थी।
पीड़िता को जल्दी न्याय मिल सके, इसके लिए विशेष अदालतें बनाने की मांग कही गई है। निर्भया के समय यह मांग भी की गई थी कि दुष्कर्म की शिकार औरतों के लिए वन स्टाप क्राइसिस सेंटर हर जिले में बनाने चाहिए, लेकिन यह बात भी शायद ठंडे बस्ते में चली गई।
सरकारें अपनी असफलता को छिपाने के लिए अक्सर कठोर कानून की बातें करती हैं, पर जैसे ही उनके यहां कुछ होता है, वहां लोग सबसे पहले अंगुली उसी स्त्री की तरफ उठाते हैं जिसके खिलाफ अपराध हुआ। निर्भया मामले में भी कई लोग कह रहे थे कि इतनी रात में वह अपने पुरुष मित्र के साथ क्यों घूम रही थी?
जैसे कि पुरुष मित्र के साथ घूमना कोई अपराध हो कि बाहर के लोग किसी लड़की का दुष्कर्म करें। बंगाल में भी हमने ऐसी ही बातें सुनीं कि सेमिनार रूम में वह लड़की क्या करने गई थी? अरे सवाल पूछना हो तो उन अपराधियों से पूछो कि वे वहां क्या करने गए थे? बात साफ है जब तक समाज और लोग महिलाओं के प्रति अपना सोच नहीं बदलेंगे तब तक सिर्फ कठोर कानून बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा।
(लेखिका साहित्यकार हैं)