लखनऊ, आशुतोष शुक्ल। रविवार को स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथि थी। उनकी प्रतिमा और चित्रों पर अनेक लोगों ने श्रद्धांजलि अर्पित की। ऐसे ही एक दृश्य ने बहुतों का ध्यान खींचा। पूर्व प्रधानमंत्री के चित्र पर माल्यार्पण करने वालों में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्या भी थे। मौर्या चुनाव से कुछ ही पहले भाजपा में आए और मंत्री भी बने। इससे पूर्व उनकी सारी राजनीति भाजपा विरोध की थी। भाजपा और सवर्ण और सवर्णो में भी ब्राह्मण उनके भाषणों में प्रमुखता पाते। जिस व्यवस्था को मनुवादी बताकर वह और उनका पूर्व दल घोर विरोध करते व तिलक, तराजू और तलवार का उल्लेख किए बिना जिनका कोई कार्यक्रम, या कोई रैली पूरी नहीं होती थी और जो दहाड़ते थे कि ब्राह्मणवाद को भाजपा का समर्थन-संरक्षण प्राप्त है, चुनाव के समय वह भाजपा जा पहुंचे।

प्रसंगवश..! 2017 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के कुछ ही समय बाद रायबरेली के ऊंचाहार के अप्टा गांव में पांच निर्धन, निदरेष ब्राह्मण युवाओं की नृशंस हत्या कर दी गई थी। दो जवानों को जिंदा जलाया गया था, जबकि तीन को मारने के बाद धू धू कर जलती कार के नीचे फेंक दिया गया था। यह मामला दबाने की तब पूरी कोशिश की गई, क्योंकि घटना में एक मंत्री का नाम आ रहा था।

पिछला पूरा हफ्ता उत्तर प्रदेश में जिस ब्राह्मण राजनीति के नाम गया, उसका आरंभ इसी ऊंचाहार कांड से लगभग तीन वर्ष पहले हुआ था। भाजपा के ब्राह्मण नेता उस आग को दबाने के लिए लगाए गए लेकिन, वे उसकी केवल आंच मद्धम कर सके थे। ऊंचाहार से कानपुर के चौबेपुर वाले विकास दुबे के एनकाउंटर को जोड़कर ब्राह्मणों की राजनीति करना अताíकक, हास्यास्पद और निंदनीय है। विकास दुबे अपराधी था और उससे किसी की सहानुभूति नहीं, परंतु जिस तरह से विपक्ष ने पिछले पूरे सप्ताह राम बनाम परशुराम का नारा उछाला, वह यह सिद्ध करता है कि उसके पास सड़क का संघर्ष करने की न इच्छाशक्ति है और न ही मुद्दे हैं।

ईश्वर और ऋषि को आमने सामने खड़ा करने का तर्क भी भला क्या हो सकता है। अचानक सारे दल ब्राrाणों के पक्षधर हो गए हैं। विपक्ष ने उन्हें कब्जाने की चाल चली, भाजपा उन्हें बचाने चली। ऊंचाहार कांड पर क्षेत्रीय उबाल छोड़ दें तो पक्ष-विपक्ष खामोश ही रहे थे। उस समय ब्राrाणों की जाति देखकर उनकी चिंता नहीं गई थी लेकिन, अब जबकि चुनाव की गर्मी बढ़ने लगी है तो बंद अलमारियां भी खुलने लगी हैं। अब बसपा 2007 को दोहराना चाहती है और सपा को 2012 की आस है और इसीलिए उत्तर प्रदेश के करीब पंद्रह सोलह प्रतिशत ब्राह्मण मतों के भाव चढ़ गए हैं। कोई दल परशुराम की प्रतिमा लगाने की तैयारी में है तो किसी को उनकी उपेक्षा की पीड़ा सालने लगी है।

प्रश्न यह है कि क्या ब्राह्मणों ने इस तरह जातिगत आधार पर खेमेबंदी करके कभी वोट भी किया है? क्या परशुराम की एक मूíत या उनके पूजन से ब्राrाण अपना वोट पात्र तय करने लगेंगे। राजनीति जब महापुरुषों को जाति के खांचे में फिट करने की कोशिशों में सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जन्माष्टमी तक को सीमित कर देती है तो वह अपने प्रति आमजन में जुगुप्सा ही जगाती है।

पिछले सप्ताह जन्माष्टमी थी और उसी दिन दस जिलों के लाखों घरों की बत्ती गुल हो गई। कारण बताया गया कि तकनीकी गड़बड़ी आ जाने के कारण ऐसा हुआ। अधिकारी मान रहे हैं कि शक्तिभवन स्थित बिजली मुख्यालय से ही स्मार्ट मीटरों को गलत कमांड दिया गया था। इतने बड़े पैमाने पर और इस तरह बिजली जाने की घटना पहली थी और मंत्री श्रीकांत शर्मा को सामने आकर यह कहना पड़ा कि इससे सरकार की छवि को आघात लगा है। मुख्यमंत्री ने जांच के लिए एसटीएफ को ही लगा दिया। मुख्यमंत्री के तेवर देखते हुए दोषियों को कड़ी सजा मिलना तय है।

रविवार को ही होमगार्ड, राजनीतिक पेंशन और युवा कल्याण मामलों के मंत्री चेतन चौहान का कोरोना के कारण दुखद देहावसान हो गया। उन्हें सांस की पुरानी बीमारी भी थी। कोरोना ने उत्तर प्रदेश के दूसरे मंत्री की जान ली है। कुछ ही दिन पहले मंत्री कमल रानी वरुण का भी इसी बीमारी से निधन हो गया था। कोरोना से लड़ने और उस पर काबू पाने की जितनी कोशिशें हो रही हैं, कोरोना भी उसी अनुपात में और लगातार भयानक होता जा रहा है।

[संपादक, उत्तर प्रदेश]