[ ए. सूर्यप्रकाश ]: आखिरकार सदियों की प्रतीक्षा पूरी होने जा रही है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए सभी औपचारिकताएं पूरी हो गई हैं। शीर्ष अदालत के निर्णय के अनुरूप राम मंदिर निर्माण का दायित्व पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ नाम से ट्रस्ट के गठन का एलान कर दिया और गृहमंत्री ने इस ट्रस्ट के कुछ सदस्यों के नाम भी घोषित कर दिए।

प्रधानमंत्री ने ट्रस्ट की घोषणा को ऐतिहासिक बताया

प्रधानमंत्री ने संसद में इस कदम को ऐतिहासिक बताया। ध्यान रहे कि अयोध्या में विवादित स्थल की जमीन हिंदुओं को सौंपने के साथ ही अदालत ने केंद्र सरकार को यह निर्देश भी दिया था कि वह इस निर्णय के तीन महीनों के भीतर मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट का गठन करे। उसने सरकार से यह भी कहा था कि वह ट्रस्ट या उसके जैसी कोई व्यवस्था करे जो मंदिर निर्माण और उसके प्रबंधन के साथ ही ट्रस्टियों की शक्तियों एवं अधिकारों से जुड़े प्रावधान बनाए।

अयोध्या में बाहरी एवं अंदरूनी चबूतरे का कब्जा ट्रस्ट को दिया जाना है

अयोध्या में बाहरी एवं अंदरूनी चबूतरे का कब्जा ट्रस्ट को दिया जाना है। शेष अधिग्रहीत जमीन के विषय में केंद्र को अपने विवेक से फैसला करना था। उसने यह जमीन भी ट्रस्ट को देने का फैसला किया। इसके साथ ही अदालत ने यह भी निर्देश दिया था कि अयोध्या में एक उचित स्थान पर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन आवंटित की जाए। फैसले के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार को परस्पर परामर्श के जरिये निर्धारित अवधि में यह आवंटन करना था। सरकार ने पिछले हफ्ते अदालत के इन सभी निर्देशों को पूरा कर दिया।

इधर मंदिर निर्माण की तैयारियां, उधर स्पष्ट नहीं कि सुन्नी बोर्ड जमीन स्वीकार करेगा या नहीं

जहां ट्रस्ट की आगामी बैठक में मंदिर निर्माण की तैयारियों पर बात होने जा रही है वहीं यह अभी स्पष्ट नहीं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड पांच एकड़ जमीन को स्वीकार करने के लिए तैयार है या नहीं? जो भी हो, राम मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट का गठन वर्ष 1994 में केंद्र सरकार के वादे को ही पूरा करने जैसा है।

राव सरकार ने वादा किया था यदि मंदिर के अवशेष मिले तो अधिग्रहीत जमीन हिंदुओं को लौटा देंगे

सितंबर 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार ने यह वादा किया था कि यदि बाबरी मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर के अवशेष पाए जाते हैं तो वह अधिग्रहीत जमीन हिंदुओं को वापस लौटा देगी। उस समय केंद्र सरकार ने यह प्रतिबद्धता जताई थी कि ‘यदि यह बात सामने आती है कि गिराए गए ढांचे से पहले वहां हिंदू मंदिर मौजूद था तब सरकार हिंदू समुदाय के पक्ष में कदम उठाएगी। यदि यह सामने आता है कि अतीत के किसी कालखंड में वहां हिंदू मंदिर का अस्तित्व नहीं था तब सरकार मुस्लिम समुदाय के पक्ष में निर्णय करेगी।’

पुरातत्व सर्वेक्षण की जांच में मस्जिद के नीचे से स्तंभ और हिंदू मंदिर से जुड़े अन्य प्रतीक मिले

इसके करीब एक दशक बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ को इससे जुड़े दावों-प्रतिदावों की पड़ताल करने का जिम्मा सौंपा गया। पुरातत्व सर्वेक्षण की जांच में ऐसे साक्ष्य सामने आए कि गिराई गई मस्जिद के नीचे से स्तंभ और हिंदू मंदिर से जुड़े अन्य प्रतीक मिले। इस दिशा में केंद्र सरकार द्वारा दिया गया आश्वासन एकदम स्पष्ट था जिसमें किसी किस्म के किंतु-परंतु नहीं थे।

हिंदू आस्था को वैज्ञानिक साक्ष्यों की कसौटी पर कसा गया

इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए केंद्र सरकार का यह शपथपत्र एक बहुत बड़ा जोखिम था, क्योंकि यह मसला हिंदुओं की उस मान्यता से जुड़ा था जिसके अनुसार वे मानते हैं कि भगवान राम का जन्म इसी विवादित जगह पर ही हुआ। इसका अर्थ यह था कि हिंदुओं को इसके साक्ष्य पेश करने होंगे या फिर वे यह उम्मीद रखें कि ध्वस्त ढांचे के नीचे ऐसे साक्ष्य मौजूद हों। इससे भगवान राम के जन्मस्थान की साख को लेकर सवाल उठने का खतरा था। सीधे तौर पर देखा जाए तो यह पूरी तरह से अन्याय ही था, क्योंकि हिंदू आस्था को वैज्ञानिक साक्ष्यों की कसौटी पर कसा जाना था।

यदि वैज्ञानिक साक्ष्य असफल रहते तो राम के जन्मस्थान पर हिंदुओं का दावा छूट जाता

यदि उसमें असफलता मिलती तो राम के जन्मस्थान पर उनका दावा छूट जाता। क्या हिंदुओं को ऐसी स्थिति में फंसाना उचित था? फिर भी हिंदुओं ने इसे मंजूर कर लिया। ऐसी कोई और मिसाल दुनिया में कहीं और मिलना मुश्किल है। इसमें कुछ भी नतीजा निकल सकता था। इससे हिंदुओं की भावनाएं आहत हो सकती थीं, फिर भी हिंदुओं ने इसमें ताल से ताल मिलाई।

हिंदुओं ने जन्मस्थान को लेकर अदालत के फैसले का किया इंतजार

जन्मस्थान पर अपनी आस्था से जुड़े पहलू पर शीर्ष अदालत के फैसले का भी उन्होंने पूरे धीरज के साथ इंतजार किया। अगर कभी भी किसी को हिंदू समुदाय के सेक्युलर लोकतांत्रिक पैमानों का साक्ष्य चाहिए तो यह उसका एक बड़ा उदाहरण होगा। नरसिंह राव सरकार के शपथपत्र पर हिंदुओं का मौन और न्यायिक फैसले की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा यही दर्शाती है कि बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए संविधान हमेशा सर्वोपरि रहा।

अयोध्या फैसले पर मुसलमानों की स्वीकृति दर्शाती है सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता में आस्था

आखिरकार अदालत इस नतीजे पर पहुंची, हिंदुओं की आस्था और विश्वास यही है वे बाबरी मस्जिद के निर्माण के पहले से ही उस स्थान को भगवान राम का जन्मस्थान मानते आए हैं। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भारतीय मुसलमानों की स्वीकृति भी हमारी लोकतांत्रिक ढांचे के लचीलेपन और संविधान की व्याख्या के मामले एवं ऐसे विवादों के निपटान में सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता में आस्था को ही दर्शाता है। यह हमारी संवैधानिक जीवनशैली का जीवंत स्वरूप भी है।

सदियों पुराने विवाद का संवैधानिक दायरे में निपटारा लोकतांत्रिक परंपराओं का अनुपम उदाहरण

सदियों पुराने इस विवाद का हमारे संवैधानिक दायरे में निपटारा हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं का अनुपम उदाहरण है और इस बात का भी कि एक लोकतंत्र के रूप में हम किस प्रकार उभरे और समृद्ध हुए हैं? इसका जश्न मनाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने राम जन्मभूमि पर आए निर्णय के बाद अपनी प्रतिक्रिया में इसका उल्लेख भी किया था कि भारतीयों ने लोकतांत्रिक रीति-नीति और प्रक्रियाओं में अनुकरणीय आस्था का प्रदर्शन किया।

अयोध्या में राम मंदिर भारत की सभ्यता के गौरव का होगा प्रतीक

जब भी राम मंदिर बनकर तैयार होगा तब यह न केवल भारत की सभ्यता के गौरव, बल्कि लोकतंत्र एवं सौहार्द के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी प्रतीक होगा। इसे लेकर अब कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। दुनिया में अन्यत्र कहीं ऐसा उदाहरण मिलना असंभव है।

इस्लामिक देशों में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा पर आवाज उठाने का कभी दम नहीं दिखाया

ऐसे में कुछ विघ्नसंतोषियों की अनदेखी करना ही उचित है जिन्हें पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने खारिज कर दिया था और जो अपने निहित स्वार्थों के चलते हमारे लोकतंत्र को अवरुद्ध करने की कोशिशों में जुटे हैं, क्योंकि जनता उन्हें बार-बार नकार रही है। इस मामले में पश्चिमी मीडिया से लोकतंत्र पर भाषण सुनना और भी विचलित करने वाला है जिसने दुनिया के साठ इस्लामिक देशों में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा पर आवाज उठाने का कभी दम नहीं दिखाया।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )