नई दिल्ली [परिचय दास]। राम भारतीय मन की श्रेष्ठ कृति हैं तथा विश्व साहित्य की उपलब्धि। वाल्मीकि ने जब रामायण रचा तो वह क्रौंच के वियोग और दु:ख से द्रवित होकर अन्याय का रचनात्मक प्रतिरोध था। आइवान लालिच ने कहा है कि कविता केवल प्रार्थना का स्वर ही नहीं है, कविता सामाजिकता का गंभीर निर्देशन भी है। शब्द ही सामाजिकता हैं। शब्द का उच्चारण हम इसलिए करते हैं कि हम व्यक्ति की स्थिति की वास्तविकता को स्वीकार करते हैं। राम के बहाने वाल्मीकि की कविता एक व्यक्तिनिष्ठ सामाजिक प्रार्थना है जिसका अंत:स्वर गहरी नीरवता है।

तुलसी ने कठिन समय में राम को मातृभाषा की धमनी में ढाला- 'रामचरितमानस' के रूप में। पुरुषार्थ के साथ भविष्य द्रष्टा के गहरे रहस्य से भरे जीवन की बात। रहस्यमयता के साथ कवि की ध्यानमग्नता घुल-मिल गई है कि शिल्प- रस आधारित साहित्यिकता एक क्लास बन जाती है। राम साहित्य में, राम जीवन में, राम लोक में, राम जीवन में। राम भारतवर्ष की भाषा बन गए, विश्व की भाषा बन गए। गोचर और अगोचर। शब्द में व शब्द से परे। प्रतिज्ञा में, समरसता में। राम की कीर्ति व छवि देशों को पार कर जाती है, साथ ही भाषाओं को।

साहित्यिक उत्कृष्टता और राम के उच्च गुणों के संघनन ने उनकी कीर्ति- सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया। राम के ऊपर जितनी रचनाएं सम्भव हुई हैं, शायद ही किसी पर हुई हों। केशव दास की 'रामचन्द्रिका' में भाषा व अलंकारों का सौष्ठव तथा मैथिली शरण गुप्त के 'साकेत' में सहज लौकिकीकरण मिलता है। शंकर देव ने राम पर ही पहली कविता का सृजन किया। 'अध्यात्म रामायण', 'आनंद रामायण', 'कृत्तिवास रामायण', 'प्रतिमा नाटक', 'महावीर चरित', 'मिथिला भाषा रामायण', 'राम अवतार चरित', ' कुमुदेंदु रामायण ', 'भावार्थ रामायण', 'विलंका रामायण', 'वैदेही विलास', 'कंब रामायण', ' दशरथ जातक', 'पउम चरिउ' आदि राम पर आधारित प्रमुख रचनाएं हैं। इसके अलावा चीन, इंडोनेशिया, जापान,कंबोडिया , लाओस, मलेशिया, थाईलैंड, नेपाल, श्रीलंका आदि में राम पर विविध रचनाएँ हैं। 

आधुनिक समय में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ' राम की शक्ति पूजा ' अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है। समकालीन रचनाकारों ने राम को अपना वर्ण विषय बनाया है। 'रामायण दर्शन' (के वी पुट्टप्पा), 'रामायण कल्पवृक्षम' (विश्वनाथ सत्यनारायण) को 'ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। राम पर लोक साहित्य, लोक कला, लोक संगीत, लोक मंच की अनेक रचनाएं हैं। राम पर रचित रचनाओं का अध्ययन एक शास्त्र को जन्म देता है। राम एक अनुभव हैं। उन पर आधारित साहित्य से वंचना व वेदना से पार जाने का उद्यम है तथा अहंकार का तिरोहण। 

सांसारिक व आध्यात्मिक :

दोनों तरह की बिंबावलियाँ वहां हैं। इन दोनों दुनियाओं के बीच की खाई को पाटने के लिए सेतुबंध साहित्य ही है। साहित्य की दृश्यात्मकता यथार्थ बन जाती है। राम में जो आलोक है उसमें प्रेम, सृजन, छंद की क्षमता है। होश संभालते ही भारतवासी रामकथा के रस को ग्रहण करने लगता है और महाभारत की समझ भी। विजयादशमी शक्ति की भावाभिव्यक्ति का नूतन मोड़ है, अपरिचित महादेश में नए मील का पत्थर है। भावों का वक्तव्य के साथ नूतन स्पंदन की भाषा का पुनः सृजन विजयादशमी है।

मिथकों व उपकथाओं के जरिए यह स्मृति का प्रकाशन है। स्मृति नहीं तो समय नहीं। यह अन्याय के प्रति प्रतिरोध का आत्मा का जीवित प्रतिरूप है। कल अपरिचित और आज परिचित बंधुत्व के स्पर्श की तरह झील के पानी में छाया की तरह लीन होते जा रहे गोधूलि के रंग की तरह। आत्मा में संधि जैसी। कविता शब्दों का स्थापत्य है। हर शब्द की ध्वनि और स्वर के आचरण में स्पष्ट खिलावट। उसी तरह विजयदशमी हमारे भीतर की श्रेष्ठ स्वस्ति का प्रकटीकरण है। 

विजयादशमी की महक महाकविता व गेंदे के फूल की महक है। विजया दशमी केवल शास्त्र नहीं, लोक संस्कृति के अनेक चरित्र, अनेक विश्वास, शब्द सम्पदा व विश्वास भी है। एक शून्यता का गहन स्पर्श। अगाध का अनुभव। अपनी आत्मा के अंधकार में चम चमाती रुपहली मछली की तरह। राम हमारी धमनियों में रक्त प्रवाह की तरह हैं। जैसे कविता का अर्थ उसकी शैली या शब्द संयोजन में नहीं होता उसी तरह विजया दशमी केवल अनुष्ठान में निहित नहीं।

वह भारतीय जन की आंखों में सहज दीप्त है। विजयादशमी का अर्थ शौर्य और पराक्रम की आराधना है। यह निडरता और तेजस्विता का भी प्रतीक है। अग्नि तत्व भी इसमें है। विजयादशमी एक सगर्भा अभिव्यक्ति है। मन के गर्भाशय में विचार, भावनाएं, भाव प्रतिभाओं के संग पदार्थ पनपते ,जन्मते, बिखरते रहते हैं लेकिन जीवन का क्रम अखंड बना जाता है।

ध्यान रखना चाहिए कि अन्याय का अंत अवश्य होता है इसलिए विजयादशमी दूरदर्शिता की महिमा भी है जहां व्याख्या -अर्थ और व्यंग्य -अर्थ दोनों दृष्टि से मनुष्य दूर से जितना अधिक देख सकता है उसे देख लेना चाहिए। विजयादशमी बताती है कि केवल विद्वत्ता जीवन का आधार नहीं हो सकते उसके लिए अंत: प्रज्ञा होना आवश्यक है तथा बहुवचनात्मक भी। रावण ने एक आधिकारिक केंद्रीयता स्थापित कर ली थी जबकि जरूरत है लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की। 

अन्याय को सहना पराधीनता है। रावण , मेघनाथ, कुम्भकर्ण का एक पक्ष था। उस पक्ष को हम विचार की दृष्टि से भिन्न दृष्टि मानते हैं । उससे हमारी असहमति है। असहमति भी जीवन का विस्तार करती है। राम का संगठन - भाव व कौशल सीखने लायक़ है। उनकी सधी भाषा भी हमारे काम की है। सम्यक दृष्टि बोध था उनका। चपर चपर हर बात में नहीं बोलना चाहिए, यह उनका धीरोदात्त व्यक्तित्व इंगित कर देता है।

रावण की नाभि में अमृत है, यह जानना भी राम की रणनीतिक कुशलता है। उन्हें क्षमा करना आता है, जहाँ उचित हो। उन्होंने प्रतिक्रियाशील राजनैतिक मर्म को जाना, उसे छोड़ा। वनवास के दौरान वे शिक्षा और संस्कृति को आखिरी आदमी के पत्तल तक ले गए। अन्त्यजों व गिरिजनों से जुड़ कर उन्होंने एक नया अध्याय रचा। इस प्रयत्न को सुबोध्य बनाते हुए उन्होंने एक नई क़िस्म की सामाजिकता विकसित की।

इसलिए यह भंगिमा विकेन्द्रित जनोन्मुखता की ओर जाती है। भूमि पर पैदल चलते हुए बिंब के साथ। शायद राम ने अन्तिम जन को आधार बनाकर पहली बार अन्यायी राज्य शक्ति का प्रतिरोध किया। मैं इसे उनका 'एक समग्र सामाजिक अन्वेषण' मानता हूं। विरोध का अर्थ यथार्थ को अस्वीकार कर, काल प्रवाह के बाहर निकाल जाना नहीं होता।

स्वप्न और कल्पना के पाल खोल कर दंतकथा की नगरी में टहलना नहीं होता। शब्द को उसका अर्थ फिर से लौटाना, व्याकरण को लौटा लाना, तार्किकता लाना मनुष्य के लिए सम्भव है। तभी शब्द अपनी गतिमयता, छंदमयता और लक्ष्यमयता की शक्ति से गतिमान हो जाते हैं। राम ने अन्याय को चुनौती देकर मनुष्य जाति के लिए शब्द के अर्थ को नई संभावना दी, मनुष्य के स्वस्त्व का व्याकरण लौटाया। (ललित निबंधकार, कवि, आलोचक, संस्कृतिकर्मी)