[ डॉ. एके वर्मा ]: पांच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव परिणामों ने भारतीय राजनीति में कुछ समय से चल रहे कांग्रेस मुक्त भारत के भाजपाई स्वप्न को तोड़ दिया। भाजपा शासित तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की जो वापसी हुई वह पार्टी और साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए एक संजीवनी की तरह है। कांग्रेस का मनोबल बढ़ने वाला है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले 15 वर्षों से भाजपा सरकारें थीं और वहां सत्ता परिवर्तन संभवत: लोकतंत्र की जरूरत भी थी। चूंकि राजस्थान में पिछले 20 वर्षों से कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता परिवर्तन का क्रम चल रहा है इसलिए वहां वसुंधरा सरकार का जाना लगभग तय सा था। तेलंगाना एक नया राज्य है और वहां चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 119 में 86 सीटें जीतकर सत्ता में धमाकेदार वापसी की। वहीं पूर्वोत्तर के एकमात्र राज्य मिजोरम में सत्तासीन कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई और भाजपा सहयोगी मिजो नेशनल फ्रंट ने 40 में 26 सीटें जीतकर शानदार विजय दर्ज की। इन सभी में सबसे कांटे की टक्कर मध्य प्रदेश में रही और अंतिम समय तक संशय बना रहा कि सरकार कौन बनाएगा?

क्या निहितार्थ हैं इन चुनाव परिणामों के? क्या ये कांग्रेस की सशक्त दल के रूप में वापसी का संकेत हैैं? क्या ये राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने को जनता द्वारा मान्यता दिए जाने जैसे हैैं? नि:संदेह तेलंगाना एवं मिजोरम में करारी हार को दरकिनार कर कांग्रेस कुछ ऐसा ही प्रचारित करना चाहेगी। उसे ऐसा करने का हक भी है। वहीं भाजपा के लिए ये चुनाव परिणाम सबक सिखाने वाले हैैं। भले ही भाजपा चुनाव नतीजों को सता विरोधी रुझान कह हल्का करने की कोशिश करे, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा अपनी सरकारों के प्रति लोगों की बेचैनी को दूर करने में नाकाम रही।

इन राज्यों में शासन पर नौकरशाहों का इतना अंकुश था कि केंद्र और राज्यों की जन-कल्याणकारी नीतियों का लाभ गरीब और समाज के निचले तबके को ठीक से नहीं मिल पा रहा था। इसीलिए छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में दलित और जनजातीय समुदायों ने भाजपा से दूरी बनाई और कांग्रेस या बसपा को वोट किया। इसी कारण इन दोनों राज्यों और साथ ही राजस्थान में भी दलित-जनजातीय बहुल क्षेत्रों में भाजपा की करारी हार हुई है। इन चुनावों में मायावती की बसपा ने भी अपनी दलित राजनीति को मजबूती देने का काम किया। इन राज्यों में यदि कांग्रेस का बसपा से गठबंधन होता तो भाजपा की स्थिति और खराब हो सकती थी।

चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सबसे पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री चुनने का काम करना होगा, क्योंकि इन दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद के दावेदार सबके सामने हैैं। ऐसी स्थिति छत्तीसगढ़ में नहीं है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट में तथा मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में से एक को चुनना है। जबसे राहुल पार्टी अध्यक्ष बने तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि आने वाले वक्त में वह सरकार में भी युवाओं को आगे करेंगे। देखना है कि वह अनुभव और युवा में से किसको चुनते हैं? राहुल गांधी को राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी सरकारों की स्थिरता की भी चिंता करनी होगी, क्योंकि इन दोनों ही राज्यों में पार्टी बमुश्किल साधारण बहुमत तक पहुंच पाई है। उसके सामने हमेशा इसका खतरा बना रहेगा कि सरकार कितने दिन चल पाएगी?

भाजपा को किनारे करने के श्रेय से लैस राहुल गांधी के सामने एक चुनौती राष्ट्रीय स्तर पर बनाए जाने वाले भाजपा विरोधी महागठबंधन में अपने नेतृत्व को लेकर भी उभर आई है, क्योंकि उन्होंने जिस तरह कांग्रेस की ‘मुस्लिम पार्टी’ की छवि दूर करने के लिए ‘नरम हिंदुत्व’ की ओर कदम बढ़ाया और मंदिर दर्शन को अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उससे पार्टी की सेक्युलर छवि पर प्रश्नचिन्ह लगा है। यह छवि अनेक सहयोगी दलों को रास नहीं आ रही है। राहुल के सामने यह भी प्रश्न है कि क्या उनको राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन करना चाहिए या पार्टी के इस नए उभार को राष्ट्रीय स्तर पर परखने का अवसर लेना चाहिए?

अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां गठबंधन में सौदेबाजी करेंगी। इसका ताजा उदाहरण महागठबंधन के लिए बुलाई गई बैठक में मायावती और अखिलेश का सम्मिलित न होना है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि तेलंगाना में कांग्रेस और तेदेपा का गठजोड़ बुरी तरह नाकाम रहा। इसके पूर्व उत्तर प्रदेश में भी 2017 में कांग्रेस-सपा गठबंधन सफल नहीं हुआ था। गठबंधन करने से कांग्रेस पर नकारात्मक राजनीति का भी लेबल चस्पां होता है। वह भाजपा को भले हरा दे परंतु उसका अपना जनाधार कमजोर होता है। उप्र में 1996 में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का बसपा से गठबंधन क्या हुआ, पार्टी का दलित मतदाता हमेशा के लिए कांग्रेस से खिसककर बसपा के पाले में चला गया। उसके बाद आज तक कांग्रेस प्रदेश में अपने पैर नहीं जमा सकी है।

यह साफ है कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ खोने के बाद भाजपा के सामने कहीं गंभीर चुनौतियां दिखने लगी हैैं। कांग्रेस और विपक्ष की ओर से इन परिणामों को मोदी विरोधी जनादेश के रूप में पेश किया जाएगा। उनकी सभी नीतियों और निर्णयों को जनता द्वारा नकारने के संकेत के रूप में देखने की कोशिश रहेगी। इसके चलते संभवत: पार्टी कुछ ‘कोर्स-करेक्शन’ करे। जो भी हो, मोदी सरकार में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। कांग्रेस में तो यह शुरुआत से ही थी और वहां ‘हाई-कमान’ संस्कृति के चलते छोटे-बड़े सभी निर्णय बिना शीर्ष नेतृत्व की इजाजत के नहीं लिए जाते। इसका ज्वलंत उदाहरण मनमोहन सिंह रहे जो प्रधानमंत्री होने के बावजूद निर्णय लेने के लिए संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की ओर देखते थे। भाजपा में मोदी के पहले तक एक सार्वजनिक सामूहिक नेतृत्व दिखता था जो अब विलुप्त सा हो गया है। पार्टीजन नई ‘कॉरपोरेट-संस्कृति’ को शायद मन से स्वीकार नहीं कर पाए हैं और इसी कारण जमीन पर भाजपा सरकार के कामों की ‘मार्केटिंग’ नहीं हो पाती।

आज कोई पूछता है कि मोदी ने किया क्या है तो उसका उत्तर देने वाला कोई नहीं होता। इसके अलावा लोगों को लगता है कि भाजपा ने इधर अपना एजेंडा विकास से हटाकर मंदिर कर दिया है। चुनावों के समय मंदिर को प्रमुखता से लाना इसका ही संकेत देता है। भाजपा को पता होना चाहिए कि मंदिर का मुद्दा कभी जनता को बहुत रास नहीं आया।

उप्र में भाजपा ने 1991 से लेकर 2014 तक मंदिर को एजेंडे में रखा। इस दौरान उसका ग्राफ गिरता चला गया। जब मोदी ने 2014 में मंदिर के एजेंडे को विकास से विस्थापित किया तब जाकर भाजपा की देश और प्रदेश की सता में वापसी हुई। इन चुनावों की सबसे अहम बात यह है कि किसी ने भी ईवीएम और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठाए। यह भारतीय लोकतंत्र की जीत है। चुनाव परिणाम यह भी बता रहे हैैं कि लोकसभा चुनाव अधिक रोचक और कांटे की टक्कर वाले हो सकते हैैं।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी अॉफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैैं ]