[ रशीद किदवई ]: शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे का चुनाव मैदान में उतरना महाराष्ट्र की राजनीति में एक बड़ी घटना है। आदित्य ठाकरे का चुनाव लड़ने का फैसला राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को राजनीति का पाठ पढ़ाने और साथ ही राह दिखाने वाला है। एक समय था जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी से अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का बार-बार आग्रह किया, लेकिन राहुल ने उनका प्रस्ताव नकार दिया। दरअसल राहुल गांधी के चाटुकारनुमा सलाहकारों ने यह तर्क दिया कि गांधी परिवार का सदस्य होने के नाते उन्हें केवल प्रधानमंत्री पद का दावेदार होना चाहिए। राहुल गांधी यह समझ नहीं पाए कि देश और समाज, विशेषकर युवाओं का मिजाज बदल चुका है और राजनीति में केवल उन लोगों की पूछ-परख होगी जिनके पास सार्वजनिक जीवन में कुछ विशेष उपलब्धियां होंगी।

राहुल और प्रियंका को जनता की भावनाएं समझनी होंगी

राहुल गांधी की तरह प्रियंका गांधी वाड्रा भी आम जनता और कांग्रेसजनों की भावनाएं समझ नहीं पा रहीं हैं। यदि वह वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से चुनाव हार भी जातीं तो भी एक लड़ाका के तौर पर सामने आतीं, लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ने से इन्कार करके खुद को रण छोड़ने वाला नेता ही साबित किया। अगर उन्हें चुनाव लड़ना ही नहीं था तो फिर उनकी ओर से ऐसी संभावना नहीं उभारी जानी चाहिए थी।

प्रियंका की सीमित राजनीतिक गतिविधियां

लोकसभा चुनाव के बाद से प्रियंका उत्तर प्रदेश की रट लगाए जा रही हैं, लेकिन प्रदेश में उनकी सक्रियता केवल गाहे-बगाहे ही नजर आती है। न तो प्रियंका का दिल्ली से मोह छूट रहा है और न ही उनकी राजनीतिक गतिविधियां सोशल मीडिया से आगे जा पा रही हैं।

आदित्य ठाकरे अपने लक्ष्य को लेकर बहुत साफ हैैं

राहुल और प्रियंका गांधी के विपरीत आदित्य ठाकरे अपने लक्ष्य को लेकर बहुत साफ हैैं। खांटी विचारधारा यानी कोर आइडियोलॉजी को लेकर शिवसेना के मन में कोई संशय नहीं है। आर्थिक मामलों और खासकर रोजगार के साथ-साथ सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाओं की कमी को लेकर सेना केंद्र की भाजपा सरकार को बिल्कुल नहीं बख्शती। उसका अपना आकलन है कि एक राज्य स्तर की पार्टी होने के नाते उसका अस्तित्व इन मुद्दों से जुड़ा हुआ है।

कांग्रेस संगठन हुआ कमजोर

कांग्रेस की स्थिति भिन्न है। कांग्रेस में विचारधारा के नाम पर 2014 से अनेक प्रयोग किए जा चुके हैैं, लेकिन उनसे कोई लाभ नहीं हुआ। संगठन की कमजोरी के चलते बंगाल, बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दल या तो कांग्रेस को मुंह लगाने को तैयार नहीं हैैं या फिर कुछ सीटों का लालच दे कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में पार्टी की किरकिरी होती जा रही है।

आदित्य ठाकरे ने बदली अपनी छवि

पिछले कुछ महीनों से आदित्य ठाकरे ने अपनी और साथ ही अपनी पार्टी की छवि बदलने का प्रयास किया है। चाहे समुद्र किनारे गंदगी साफ करने का का मामला हो या लोकल बस और ट्रेन में सफर करने का या फिर प्लास्टिक के खिलाफ मुहिम छेड़ने का, आदित्य ठाकरे जमीनी स्तर पर जनता और उससे जुड़े मुद्दों के साथ खड़े नजर आते हैं।

ठाकरे परिवार नेहरू-गांधी परिवार से भिन्न

यह सही है कि ठाकरे परिवार हर लिहाज से नेहरू-गांधी परिवार से भिन्न है, लेकिन एक समानता जरूर है कि दोनों परिवारों के राजनीतिक सदस्यों को वोट और सियासत पर पकड़ को लेकर एक गुमान था। वह अपने आप को सर्वप्रिय और सबसे ऊपर समझते आ रहे थे। 2014 और उसके बाद की राजनीति ने उनके कस-बल ढीले कर दिए, लेकिन शायद एेंठन है कि जाती नहीं। जो भी हो, यह कहा जा सकता है कि आदित्य ठाकरे को यह समझ आ गया है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के युग में भाजपा नेताओं को मातोश्री में बार-बार तलब नहीं किया जा सकता और न ही बड़बोले बयानों या मुखपत्र की बेलगाम संपादकीय टिप्पणियों से जनसमर्थन जुटाया जा सकता है।

भाजपा के बढ़ते जनाधार के कारण आदित्य ठाकरे के सामने चुनौती

वैसे आदित्य ठाकरे का चुनाव लड़ने का फैसला चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि भाजपा का महाराष्ट्र में जनाधार लगातार बढ़ता जा रहा है। केवल नरेंद्र मोदी के राजनीतिक पराक्रम पर भाजपा अस्सी फीसद सीटों पर जीतने की क्षमता रखती है। इसी कारण भाजपा की पुरानी और विश्वसनीय सहयोगी शिवसेना अपनी कामयाबी को लेकर इतनी आश्वस्त नहीं है। यदि 24 अक्टूबर को यानी नतीजे वाले दिन शिवसेना भाजपा के मुकाबले में नजर नहीं आती तो यह आदित्य ठाकरे की विफलता को दर्शाएगा।

शिवसेना की भाजपा पर बढ़त से ही आदित्य ठाकरे का रास्ता सुगम होगा

आदित्य ठाकरे का चुनावी मैदान में उतरना तभी सार्थक सिद्ध होगा जब शिवसेना की कामयाबी भाजपा से बेहतर या फिर बराबर हो। 29 साल के आदित्य ठाकरे शायद यह बखूबी समझ गए हैैं कि शिवसेना पचास सीट जीत कर न तो भाजपा की बराबरी कर पाएगी और न ही अपने महत्वाकांक्षी लोगों को शिवसेना से भाजपा में जाने से रोक पाएगी। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब बड़ी और चुनावी दृष्टि से कामयाब पार्टी ने अपनी सहयोगी अथवा मित्र पार्टी पर कब्जा जमा लिया। देखना है कि महाराष्ट्र में क्या होता है?

महाराष्ट्र की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर है

साफ है कि इस समय महाराष्ट्र की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ पर है। शिवसेना को भाजपा से लगातार खतरा महसूस हो रहा है और उसका विचारधारा पर आधारित विश्वास डगमगा गया है, लेकिन दोनों अलग होने को तैयार नहीं हैं। भाजपा के आकलन में मित्रवत शिवसेना विपक्षी सेना के मुकाबले सस्ता सौदा है। शिवसेना भी अपने बनाए हुए इस भ्रम से प्रसन्न है कि महाराष्ट्र में उसके बगैर भाजपा का काम नहीं चल सकता, लेकिन चुनाव के बाद यह स्थिति बदल सकती है।

महाराष्ट्र में भाजपा का शिवसेना से टकराव हो सकता है

शक्तिशाली भाजपा महाराष्ट्र में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहेगी। इस हालत में उसका शिवसेना से सीधा और निर्णायक टकराव हो सकता है। क्या आदित्य ठाकरे इस स्थिति के लिए तैयार हैैं? इस सवाल का जवाब भविष्य ही देगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि आदित्य ठाकरे का महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में उतरना एक साहसी, किंतु जोखिम भरा कदम है। यह शिवसेना के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।

महाराष्ट्र की राजनीति में हो सकता है नया अध्याय शुरू

यदि महाराष्ट्र में एक बार फिर देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन जाती है और आदित्य ठाकरे उपमुख्यमंत्री बनने में सफल रहते हैैं तो इससे महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू होगा। इससे बहुत सी चीजों के साथ यह भी पता चलेगा कि राजनीति में आत्मविश्वास के साथ-साथ यथार्थ का धरातल अति महत्वपूर्ण होता है। कामयाबी के लिए केवल किसी नाम के सहारे या पुराने ढर्रे पर राजनीति करना काफी नहीं है। विवेक और कौशल ही राजनीति में कामयाबी और नाकामयाबी को परिभाषित करते हैं। महाराष्ट्र के नतीजे कुछ भी हों, 29 साल के आदित्य ठाकरे से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को सीख लेने के लिए तैयार रहना चाहिए।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ओआरएफ के विजिटिंग फैलो हैं )